खतड़ुआ पर्व: सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विवेचना
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खतड़ुआ: कुमाऊं का पारंपरिक लोकपर्व
खतड़ुआ कुमाऊं और गढ़वाल में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पर्व है, जो वर्षाकाल की समाप्ति और शरद ऋतु के आगमन का प्रतीक है। यह पर्व विशेष रूप से कन्या संक्रांति के दिन, आश्विन माह की प्रथमा तिथि को मनाया जाता है। यह पर्व ऋतु परिवर्तन का संकेत देता है और इसकी शुरुआत से ही कुमाऊं, गढ़वाल और नेपाल के कुछ हिस्सों में मनाया जाता रहा है।
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'खतड़ुआ' शब्द की उत्पत्ति
'खतड़ुआ' शब्द की उत्पत्ति 'खातड़' या 'खातड़ि' शब्द से हुई है, जिसका मतलब रजाई या गद्दे होता है। बारिश के मौसम में सिलन के कारण इन वस्त्रों की गुणवत्ता प्रभावित होती है, इसलिए खतड़ुआ के दिन इन्हें धूप में सुखाया जाता है। यह पर्व शीत ऋतु के आगमन का संकेत होता है।
खतड़ुआ का महत्व
अश्विन मास की शुरुआत (सितंबर मध्य) से पहाड़ों में ठंड का आगमन धीरे-धीरे होता है। इस समय, लोग गर्मियों में प्रयोग में नहीं आए कपड़े और बिस्तर निकालकर धूप में सुखाते हैं और पहनना शुरू करते हैं। यह पर्व वर्षा ऋतु की समाप्ति और शीत ऋतु के आगमन का प्रतीक है।
पशुधन की स्वच्छता और स्वास्थ्य
खतड़ुआ पर्व पशुधन की स्वच्छता और उनके स्वास्थ्य से भी जुड़ा है। इस दिन ग्रामीण अपने पशुओं के गोशालाओं की विशेष सफाई करते हैं। चौमास के दौरान गोशालाओं में गंदगी बढ़ जाती है, जो पशुओं की सेहत के लिए हानिकारक हो सकती है। इस दिन, गायों को नहलाया जाता है और गोशालाओं में मुलायम घास बिछाई जाती है। पशुओं को विशेष प्रकार की पौष्टिक घास खिलाई जाती है और लोकगीत गाए जाते हैं, जो उनके दीर्घायु होने की शुभकामना देते हैं।
खतड़ुआ की परंपराएं
खतड़ुआ पर्व की परंपराएं विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होती हैं। सामान्यत: आश्विन संक्रांति के दिन, लोग चौराहे पर लकड़ी का ढेर लगाते हैं और इसे 'खतड़ू' के रूप में तैयार करते हैं। इस ढेर में सूखी घास और लकड़ी जोड़कर एक पुतला बनाया जाता है। कुछ जगहों पर, कांस के पौधों को फूलों के साथ काटकर बुड़िया (बूढ़ी महिला) की आकृति में ढालकर गोबर के ढेर पर गाड़ा जाता है।
खतड़ुआ के रिवाज
शाम के समय, घर की महिलाएं एक मशाल जलाकर, जिसे 'खतड़ुवा' कहते हैं, गौशाला में घुमाती हैं और भगवान से प्रार्थना करती हैं कि पशुओं को बीमारियों से दूर रखें। इसके बाद, गांव के बच्चे चौराहे पर लकड़ी का ढेर लगाते हैं और उसमें 'खतड़ुआ' की जलती मशालें समर्पित करते हैं। इस ढेर को पशुओं की बीमारियों का प्रतीक मानकर 'बुढ़ी' को जलाया जाता है। खतड़ुआ की राख को सभी लोग अपने माथे पर लगाते हैं और पशुओं के माथे पर भी लगाते हैं। इस प्रक्रिया से माना जाता है कि पशुओं की बीमारियाँ समाप्त हो जाती हैं।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण
खतड़ुआ पर्व की ऐतिहासिक मान्यता भी विवादित है। कहा जाता है कि कुमाऊनी सेना के गैड़ा सिंह ने गढ़वाली सेनापति खतड़ सिंह को पराजित किया था, जिससे यह पर्व 'खतड़ुआ की हार' का प्रतीक बना। हालांकि, इस घटना का ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता। कुमाऊं और गढ़वाल के इतिहास में इस तरह के युद्ध और सेनापतियों का उल्लेख नहीं है। यह मान्यता एक भ्रामक प्रचार का हिस्सा हो सकती है।
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कवि बंशीधर पाठक की व्यंग्यपूर्ण कविता
कुमाऊंनी कवि श्री बंशीधर पाठक 'जिज्ञासु' ने खतड़ुआ के संबंध में इस भ्रामक मान्यता पर व्यंग्यपूर्ण कविता लिखी है:
"अमरकोश पढ़ी, इतिहास पन्ना पलटीं, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल। कथ्यार पुछिन, पुछ्यार पुछिन, गणत करै, जागर लगै, बैसि भैट्य़ुं, रमौल सुणों, भारत सुणों, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल। स्याल्दे-बिखौती गयूं, देविधुरै बग्वाल गयूं, जागसर गयूं, बागसर गयूं, अलम्वाड़ की नन्दादेवी गयूं, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल।"
निष्कर्ष
खतड़ुआ पर्व एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और ऐतिहासिक त्योहार है जो पशुधन की स्वच्छता, शीत ऋतु के आगमन और परंपराओं के संरक्षण से जुड़ा है। यह पर्व न केवल कुमाऊं और गढ़वाल की सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखता है, बल्कि पारंपरिक मान्यताओं और रिवाजों को भी सहेजता है।
लोकपर्व खतडुवा की हार्दिक बधाइयाँ 💐
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