गोरिल की गढ़वाली जागर कथा,भाग- 1
न्याय देवता गोरिल की अनसुनी कथा
बयाली के श्मशान घाट में कैसे हुआ
गोरिया और कलुवा भाइयों का जन्म।
हिमालय के ग्लेशियर में कैसे हुई
राजा झालूराय की दर्दनाक मौत?
गोरिल की गढ़वाली जागर कथा,भाग- 1
आज हम इस पोस्ट के द्वारा गोरिल देवता की लोकगाथा के दूसरे भाग की कथा पर चर्चा कर रहे हैं। मित्रों को इस कथा का बेसब्री से इंतजार है।किंतु इसी दौरान उत्तरायणी और गणतंत्र दिवस से सम्बंधित जरूरी पोस्टों के कारण दूसरे भाग की शेष कथा को देने में कुछ विलम्ब हो गया है।
मैंने दिनांक 18 जनवरी को पोस्ट की गई प्रथम भाग की कथा में बताया है कि गढ़वाल की जागर कथा में न्याय देवता का गुणगान 'पृथीनाथ को पाट' के रूप में बहुत श्रद्धाभाव से किया जाता है। कुमाऊं की तरह गढ़वाल में भी जन सामान्य के बीच ग्वेल देवता या गोरिल की पूजा और जागर लगाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है किंतु कुमाऊं अंचल की तरह यह ज्यादा लोकप्रिय नहीं है।कुमाऊं और गढ़वाल की गोरिल कथा की कई घटनाओं में भी अंतर पाया जाता है।वर्त्तमान कथा की जो हम चर्चा यहां कर रहे हैं, वह जनश्रुति मात्र नहीं अपितु गढ़वाल के लब्धप्रतिष्ठ लोककथा विशेषज्ञ डॉ.गोविंद चातक की पुस्तक 'गढ़वाली लोक गाथाएं' (तक्षशिला प्रकाशन, दिल्ली,1996) में 'पृथीनाथ को पाट' के रूप में संग्रहित लोकगाथा है। डॉ.गोविंद चातक ने उक्त पुस्तक में (8.6.18 पृ.177-187) गोरिल की इस जागर का आख्यान 'पृथीनाथ को पाट' के रूप में किया है। यह कथा न्याय देवता गोरिल के साथ जुड़ी अवांतर कथाओं के संदर्भ में भी बहुत कुछ नई जानकारियों को लिए हुए है।इसलिए न्यायदेवता की पूजा आराधना के उद्भव तथा विकास पर शोध करने वाले विद्वानों के लिए यह कथा बहुत महत्त्वपूर्ण है।
गढ़वाली लोकगाथा पर आधारित इस कथा में न्याय देवता का नाम 'गोरिल' या 'गोरिया' दिया गया है। इनके पिता का नाम झालूराय और माता का नाम "जिया-मां कालिंक्या" बताया गया है।कुमाऊंनी ग्वेल की कथाओं में प्रायः कालिंका और झालूराय के विवाह की कथा से पहले कालिंका द्वारा दो लड़ते हुए भैंसों को अलग करने की कथा आती है किन्तु यहां वह कथा नहीं मिलती। कुमाऊं की कथा में कालिंका को पंच देवताओं की बहिन माना जाता है, और उन्हीं की अनुमति से राजा के साथ कालिंका का विवाह होता है। पर इस गढ़वाली कथा में कालिंक्या को महादेव शिव की बहिन कहा गया है।जैसा कि पहले भाग की कथा में बताया गया है कि कालिंक्या घनघोर गाजणी वन में रहने वाली चामत्कारिक शक्तियों से सम्पन्न और सोने के महलों में रहने वाली तपस्विनी थी,जिसे जिया-मां भी कहा गया है।
इस गढ़वाली गोरिल कथा के अनेक ऐसे रोचक कथा प्रसंग हैं जो कुमाऊं संस्करण की कथा में नहीं मिलते हैं।उदाहरण के लिए राजा झालूराय द्वारा कालिंक्या के आश्रम में अनशन करके घोर तपस्या करना, राजा झालूराय द्वारा कालिंक्या को हीरे की अंगूठी के बदले पीने का पानी मांगना, कालिंक्या द्वारा अनजाने में अंगूठी पहन लेने पर राजा द्वारा कालिंक्या को विवाह के लिए बाध्य करना,शिव जी के धाम में राजा द्वारा कालिंक्या के लिए कठोर तपस्या करना और प्रसन्न होने पर विवाह के लिए अनुमति देना, कालिंक्या द्वारा बूढ़े झालूराय से विवाह करने के लिए तैयार नहीं होना,उसके बाद शिव जी द्वारा बूढ़े झालूराय को नौजवान युवक बना देना और उन्हें पुत्रप्राप्ति का वरदान देना आदि कुछ ऐसे नए कथाप्रसंग हैं जो ग्वेल देवता की परंपरागत कथा से बिल्कुल हठ कर हैं और अधिकांश लोगों को इनकी जानकारी नहीं है।
इसके अलावा गोरिया के जन्म की कथा के घटनाप्रसंग भी नए हैं।इस कथा के अनुसार कालिंक्या के दो जुड़वां पुत्र होते हैं-गोरिया और कलुवा किन्तु उसकी सौत उनके स्थान पर सिल और लोढा (लोड़ो-सिलोटो) रख देती हैं।इन दोनों पुत्रों का प्रसव भी महल में नहीं बल्कि नदी के किनारे श्मशान घाट में होता है। इस कथा में एक बहुत बड़ा अंतर यह है कि राजा झालूराय की पुत्र उत्पन्न होने से पहले ही हिमालय के ग्लेशियरों में दर्दनाक मृत्यु हो जाती है और कालिंक्या और उसकी सौत रानियां विधवा हो जाती हैं। इस कथा की खासियत यह है कि इसमें काठ के घोड़े को पानी पिलाने की घटना नहीं है,जो कि गोरिल कथा की महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है।गोरिया की इस कथा में जिया-मां कालिंक्या की कथा को मुख्यता दी गई है।ऐसा प्रतीत होता है कि इस गढ़वाल की गोरिल कथा का स्रोत और कुमाऊं की गोरिल कथा के स्रोत भिन्न भिन्न हैं। इसमें काली नदी का उल्लेख नहीं बल्कि बयाली नदी का उल्लेख मिलता है। किंतु चंपावत का उल्लेख जरूर आया है।आशा है मित्रों के द्वारा इस गोरिल की कथा के बारे में अपने विचार और कोई नई जानकारी अवश्य शेयर की जाएगी। इसी संक्षिप्त भूमिका के साथ प्रस्तुत है कथा का शेषभाग -
गोरिल की दूसरे भाग की कथा
राजा झालूराय कालिंक्या की शर्त मान गए और शिव जी के पास चले गए। वे शिव जी के धाम जा कर ऊपर पैर और नीचे सिर करके कठोर तपस्या करने लगे।तपस्या करते करते बारह दिन हो गए किंतु शिव जी टस से मस नहीं हुए।तब शिव जी के गणों को दया आई और वे कहने लगे हे भगवान शिव!इस शरणागत जोगी का कुछ तो मान रखिए।शिव जी ने तब अपनी तपस्या से ध्यान हटा कर उस राजा की ओर देखा और उससे पूछा-"राजा तुझे क्या वरदान चाहिए?" तब झालूराय ने कहा- "हे आशुतोष! मुझे दान में कालिंक्या दे दीजिए!" तब राजा की कठोर तपस्या को देखते हुए शिव जी ने उसे कालिंक्या को देने का वचन दे दिया।
राजा झालूराय के साथ कालिंक्या के विवाह की तैयारियां होने लगीं।पंचदेवों ने वेदिका बना दी।भांवरे होने लगे मांगल गीत गाए जाने लगे। विदाई के लिए कालिंक्या का डोला सज गया। मगर उधर कालिंक्या के मन में कुछ और ही चल रहा था।वह बूढ़े झालूराय के साथ विवाह नहीं करना चाहती थी।इसलिए वह शिव जी के सामने रोने लगी और कहने लगी- "हे भाई! इस बूढ़े के साथ मैं कैसे उमर काटूंगी? अपनी बहिन को रोते देख और उसकी समस्या का हल निकालने के लिए शिव जी ने अक्षतों का एक ताड़ा राजा झालूराय पर मारा और उस को अमृत छकाया तो देखते देखते वह बूढ़ा राजा सुंदर और तरुण अवस्था में आ गया और साथ ही शिव जी ने राजा को पुत्र होने का वरदान भी दे दिया-
"पंचनाम देवतौंन वेदी रंचीले,
फेरा होण लेगीन,मांगळ गायेण लैग्या।
सजीगे कालिंक्या को ओंळा सरी डोला,
कालिंक्या रोण बैठीगे,हे भैजी,
ये बुड्या दगड़ी मैंन कनकै उमर लगौण ?
शिवजी न मारे एक ताडो,अमृत संचारे,
तब राजा झालूराय दैंगे सुघर तरुणो।
दिने वै तई ऊन पुत्र को वरदान।"
इस प्रकार शिव जी के वरदान से राजा झालूराय और कालिंक्या दोनों का मांगलिक विधि से विवाह संपन्न हुआ। विवाह के बाद कालिंक्या गर्भवती हुई तो तीसरे महीने उसे मांस खाने का दोहद उत्पन्न हुआ।जिया-मां कालिंक्या राजा से बोली-" महाराज! मुझे मांस खाने की इच्छा हो रही है।"
राजा ने रानी कालिंक्या से पूछा- "रानी! तेरे लिए किस का मांस लाऊं बकरी के मांस पर बकरगन्ध आती है,मृग के मांस पर मृग की गन्ध और बारह सिंगे के मांस पर बारह सिंगे की गंध आती है।रानी तुम किसका मांस खाओगी? रानी बोली- "महाराज! मुझे कस्तूरे (कस्तूरी मृग) का मांस लाकर दो।राजा झालूराय कस्तूरे की तलाश में हिमालय के कांठे (ग्लेशियरों ) की ओर चले गए।किंतु ऐसी त्रासदी हुई कि कस्तूरे मृग के शिकार में राजा स्वयं ग्लेशियर की बर्फ में डूब कर मर गए।रानी कालिंक्या विधवा हो गई। इस प्रकार राजा झालूराय की दर्दनाक मृत्यु होने से चंपावत में स्त्रियों का राज हो गया।
चंपावती के राज्य में राजा के न रहने से जो रानियां कालिंक्या से पहले ही ईर्ष्या रखती थीं,अब उससे बदला लेने के लिए षड्यंत्र रचने लगी। दसवें महीने जब कालिंक्या को प्रसव पीड़ा हुई तो वह अपनी सौत रानियों से प्रसव का स्थान पूछने लगी। रानियां साजिश के तहत कालिंक्या को बयाली के श्मशान घाट में ले गई। वहां पहले से ही कहीं चिताएं जलाई जा रही थी तो कहीं शवों के अन्त्येष्टि क्रिया के पिंड भरे जा रहे थे।रानियों ने कहा इसी घाट में तेरा प्रसव होगा।प्रसव वेदना से कालिंक्या बेहोश हो चुकी थी और उसे यह पता ही नहीं चल पाया कि उसने दो बच्चों को जन्म दिया है।रानियों ने उन दोनों नवजात शिशुओं को नदी में बहा दिया और उनके स्थान पर सिल और लोढा रख दिए। कालिंक्या को जब होश आया तो रानियों ने कहा बहिन! तुम्हारे गर्भ से ये जुड़वां सिल और लोढा (लोड़ो-सिलोटो) पैदा हुए हैं। उन्होंने उनका नाम भी रख दिया 'लोड़ी-कलुवा' और 'सिलवा-कलुवा'।इस कथा से सम्बंधित जागर के बोल इस प्रकार हैं-
"जै घाट पर कखी पिंड दियेणा छा,
कखी सेंळ रचेणा छया।
राणी बोदीन यखी होलू तेरो सुलकुड़ो
वेदना मा वी होश नी रै फरमोश
तों वीं को बाड़ा गाड़ बगै दिने,
अर वीं का खुंगला पर लोड़ो सिलोटो धर देने।
बोदी : हे भुली! तेरो कोखी लोड़ो सिलोटो होए,
एक होए लोड़ी-कलुवा दूजा सिलवा-कलुवा।"
तब वे दुष्ट सौतेली रानियां तो अपने राजमहल में लौट आईं किन्तु रोती-बिलखती कालिंक्या को उन्होंने दुत्कारते हुए वहीं बयाली के श्मशान घाट पर ही छोड़ दिया। उधर रानियों ने कालिंक्या के जिन दो बालकों को नदी में बहाया था वे बहते बहते फेंकी घाट पहुंच गए और वहां संयोग से भाना नामक मछुवारे के जाल में फंस गए। भाना मछुवारा उन नवजात बालकों से पूछता है-"हे बालको! तुम कौन हो?और यहां कहां से आए हो?" बालक बोले हम कलुवा गोरिया हैं,भाना धीवर ! हमको अपने जाल से बाहर निकाल। भाना धीवर जन्म से ही निस्संतान था। उसने खुशी खुशी उन दोनों बालकों को पाल पोस कर बड़ा बना दिया। तब एक दिन मछुवारे से गोरिया कलुवा बोलते हैं-"हे धीवर! हमें चंपावत भेज दे,हम दोनों चंपावत के राजकुमार हैं। इसके बाद चंदन के घोड़े में सवार होकर वे दोनों बालक चंपावत पहुंच जाते हैं। वहां जाकर क्या देखते हैं कि जिया-मां बयाली घाट में मसानों से घिरी है। वे अपनी मां के पास जाते हैं। उन्हें देखकर जिया-मां कालिंक्या आंसू बहाते हुए कहती है "बालको! तुम मेरे पुत्र जैसे लगते हो।कालिंक्या अपने स्तनों से दूध की धाराएं फेंकती है तो दूध की धाराएं उनके मुंह में जा पड़ती है। कालिंक्या उन दोनों गोरिया कलुवा को गले लगाती है। बालक पूछते हैं-"हे जिया-मां हमारे पिता कहां हैं।कालिंक्या कहती है तुम्हारे पिता हिमालय की कांठियों की बर्फ में दब कर मर गए हैं।जिया-मां के कहने पर दोनों बालक हिमालय की कांठियों में जाकर सबसे पहले अपने पिता का वार्षिक श्राद्ध करते हैं।
उधर चंपावत में गोरिया कलुवा के आने के समाचार को सुनकर सारे राजमहल में खुशियां मनाई जाती हैं।उनका राजतिलक किया जाता है।गोरिया राजा के रूप में पदभार ग्रहण करते हैं तो उनका दूसरा भाई उनकी भुजा (मंत्री) बन कर रहता है।तब चंपावत में गोरिल के राजा बनने और कलुवा के मंत्री बनने पर जिया-मां कालिंक्या ने अपने दोनों बेटों को राजधर्म की शिक्षा देते हुए ये नौ बातें खास तौर पर कही हैं -
जिया-मां कालिंक्या के द्वारा अपने दो पुत्रों
गोरिल और कलुवा को दिए गए नौ उपदेश💧
1.किसी को बैरी न समझना।
2.प्रजा के लोगों के साथ सदा न्याय करना।
3.किसी से छलकपट नहीं करना।
4.सत्य कभी नहीं छिपता है।
5.कहा हुआ कभी नहीं मिटता।
6.मेरी सौतों ने मेरी जैसी दुर्गति की
वैसी किसी की न हो।
7.उन सौतों ने मेरे बारे में कहा था कि मैंने सिल
बट्टा जना है। मुझे अपशकुनी,अवगुणी बताया
और दुत्कारा कि इस अपशकुनी को चीर कर
चार दिशाओं में फेंक दो।
8.मगर मेरे पुत्रो! तुम मेरे लिए सत्य बन कर
आए हो और दूध और पानी (नीर-क्षीर न्याय )
की तरह मुझे न्याय मिल पाया है।
9.मगर पुत्रो! तुम किसी का बुरा नहीं
करना,सबके साथ न्याय करना।
तब से प्रजा के मध्य न्यायदेवता के रूप में पूज्य राजा गोरिया अपनी जिया-मां कालिंक्या की आज्ञा से न्याय के मार्ग पर चलता है।उनके राज्य में प्रजा खुश थी और उसी ने गोरिया को सदा अमर रहने का आशीर्वाद दिया है।हे न्याय देवता गोरिल! हम तुम्हारे नाम का दिया जलाते हैं, तुम्हारी जय जयकार करते हैं। गोरिल देवता की जय हो-
"तुम कैको नखरौ नी कर् या,
तब गोरिया मां को बोल्यूं ठाणद्;
खुशी रैन्द राजा परजा,आशीषा देंदी-
तुम रया अमर, हम जगोंदा,तुमारा नौं को दीवो,
हम जय जय कार करदां,तेरी जय हो गोरिल देवता।"
गोरिल देवता की जय जय कार!जै ईष्टा भल करिया
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