कत्युरियों की प्रशासनिक व्यवस्था
सम्भवतः कत्यूरी वंश की प्रारम्भिक राजधानी जोशीमठ थी और राज्य का विस्तार हो जाने के पश्चात् कालान्तर में इसे कत्यूर घाटी में स्थापित किया गया होगा। जनश्रुति के आधार पर प्रारम्भिक कत्यूर राज्य पश्चिम में सतलज नदी तट से लेकर दक्षिण के मैदान तक विस्तृत था। कत्यूरी राजतंत्र में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपने राज्य में मौर्यों द्वारा स्थापित प्रशासनिक व्यवस्था को ही लागू किया। इस वंश के नरेशों ने अपने क्षेत्र से बाहर के योग्य व्यक्तियों को अपने दरबार में स्थान दिया।
प्रशासन की धुरी मौर्यों की भाँति राजा था। अभिलेखों में हम कत्यूरीनरेशों के निम्नांकित पदाधिकारियों के नाम पाते हैं -
(1) राजात्मय- सम्भवतः यह इस काल का सर्वोच्च पद था जो राजा को समय-समय पर अपनी सलाह दिया करता था।(2) महासामन्त - यह पदाधिकारी सेना का प्रधान था।(3) महाकरतृतिका - निरीक्षण सम्बन्धी कार्यों की देखभाल का मुख्य अधिकारी था। इसे मुख्य ओवरसियर भी कह सकते है।(4) उदाधिला - आधुनिक सुपरिटेन्डेण्ट जैसा पदाधिकारी था।(5) सौदाभंगाधिकृत-यह राज्य का मुख्य-आर्किटेक्चर था जो राजकीय निर्माणों की रूपरेखा तैयार करता था।(6) करिका- राज्य के मुख्य राजमिस्त्री को करिका कहा जाता है।(7) प्रान्तपाल - सीमाओं की सुरक्षा को नियुक्त पदाधिकारी था।(8) वर्मपाल सीमावर्ती क्षेत्रों में अवागमन पर कड़ी नजर रखने वाला अधिकारी था। सम्भवतः इसकी नियुक्ति प्रान्तपाल की सहायता के लिए की गई होगी।(9) घट्पाल गिरी अथवा पर्वतीय प्रवेशद्वार की रक्षा के लिए नियुक्त पदाधिकारी था।(10) नरपति - नदी के तटों अथवा घाटों पर आवागमन को सुगम बनाने के लिए नियुक्त पदाधिकारी था। ये चुंगी इत्यादि कि वसूली भी करता था एवं इन क्षेत्रों में संदिग्ध व्यक्तियों की गतिविधियों की जाँच भी उसका ही कार्य था।
सैन्य प्रशासन
कत्यूरी वीरवाहिनी अपने शौर्य के लिए जग-प्रसिद्ध है। इस के बल पर कत्यूरी नरेशों ने उत्तर एवं दक्षिण से आने वाले आक्रान्ताओं को पराजित किया और लम्बे समय तक उत्तराखण्ड पर अपना शासन बनाए रखा। वीरवाहिनी कत्यूरी सेना को चार भागों में विभाजित किया गया था।
(1) पदातिक
(2) अश्वारोही
(3) गजारोही
(4) ऊष्ट्रारोही
पदातिक सेना का नायक "गौलिमक" होता था। इसी प्रकार अश्वारोही सेना का 'अश्वबलाधिकृत" गजारोही सेना का नायक 'हस्तिबलाधिकृत' तथा "ऊष्ट्ररोही" सेना का नायक "ऊष्ट्राबलाधिकृत" कहलाता था। तीनों आरोही सेनाओं का नायक 'हस्तयासवोष्ट्र बलाधिकृत' कहलाता था। जबकि सेना के चारों अंगो का प्रधान महासामन्त कहलाता था। सैन्य संचालन राजा के द्वारा हाता था।
आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था कत्यूरी वीरवाहिनी का शौर्य जग-प्रसिद्ध है लेकिन कत्यूरी नरेशों के द्वारा प्रजा के जीवन, संपति की सुरक्षा, आंतरिक शांति एवं व्यवस्था के लिए पुलिस व्यवस्था के होने के भी साक्ष्य मिलते है। अनेक कत्यूरी ताम्रपत्र अभिलेख में कई पुलिस अधिकारियों के नाम मिलते हैं।
(1) दाण्डिक सम्भवतः ये दण्ड एवं तलवार से सुसज्जित सिपाही थे जो राज्य एवं जनता की सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी थे।
(2) दोषापराधिक - अपराधियों को पकड़ने वाल विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी था।
(3) दुःसाध्यसाधनिक- गुप्तचर विभाग का सर्वोच्च पदाधिकारी था जिसका कार्य आन्तरिक षडयंत्रों पर अंकुश रखना था।
(4) दण्डपाशिक, दण्डनायक, महाण्डनायक- पुलिस विभाग के पदाधिकारी थे।
(5) चोरोद्वरिणिक- चोर तथा डाकुओं से समाज एवं राज्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी के लिए यह विभाग था।
कत्यूरी ताम्रलेखों से यह स्पष्ट होता है कि कत्यूरी नरेशों द्वारा प्रजा उत्पीड़को का कठोरता से दमन होता था। जागेश्वर तथा गोपेश्वर शिलालेख से स्पष्ट है कि कत्यूरीनरेश प्रजा की सम्पति, सम्मान एवं जीवन की सुरक्षा अपना महत्वपूर्ण कर्तव्य मानते थे। कत्यूरी नरेशों की इस सुदृढ आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था की पुष्टि हमें समकालीन तीर्थयात्रियों के आगमन से हो जाती है जिनकी उत्तराखण्ड यात्राएँ निष्कंटक एवं निर्विघ्न पूरी हो जाती थी।
राजस्व व्यवस्था
प्राचीन भारत की भाँति ही कत्युरीकाल में राजस्व का मुख्य स्त्रोत भूराजस्व ही था। इसके अतिरिक्त इस पर्वतीय राज्य में वनों एवं खनिज सम्पदा से भी अच्छी आय होती थी। राज्य की ओर से 'क्षेत्रफल' नामक पदाधिकारी कृषि उन्नति का प्रयास करता था, 'प्रभात्तर' नाम के अधिकारी का कार्य भूमि की विधिवत् नाप-जोख करना था। भू-अभिलेख रखने के लिए पृथक से 'उपचारिक' अथवा 'पट्टकोषचरिक' नाम का पदाधिकारी होता था। भूमि का मापन भूमि में बोये जाने वाले बीज के आधार पर होती थी। कत्यूरीकाल में द्रोणबामाप के अतिरिक्त नालीबामाप बीज वाली भूमि का वर्णन प्राप्त होता है। उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी हमें 'द्रोण' अथवा 'दूण' और 'नाली' अथवा 'पाथा' का प्रयोग मिलता है। वनों और खनिज सम्पदा पर इस काल में राज्य का एकाधिकार होता था। इनकी रक्षा एवं इनसे सम्बन्धित उद्योगों की व्यवस्था के लिए 'खण्डपति' व 'खण्ड रक्षा स्थानाधिपति' नाम के पदाधिकारी की नियुक्ति होती थी। सम्भवतः इस काल में यहाँ के लौह, ताम्र, स्वर्णचूर्ण, भोजपत्र, रिगांल एवं बाँस की मैदानी क्षेत्रों में भारी माँग होती थी। इसके अलावा ऊन एवं ऊनी वस्त्र, पालतू पशु-पक्षी, मधु एवं वन-औषाधियों के व्यापार से राज्य की जनता एवं राज्य को लाभ प्राप्त होता था।
इस काल में कत्यूरी राजाओं द्वारा लगाये गये विभिन्न करों का उल्लेख हैं। कृषि तथा पशुओं से प्राप्त पदार्थों पर एक नियत अंश कर के रूप में लिया जाता था। भोगपति व शौल्किक नाम के अधिकारी 'योग तथा शुल्क' आदि करों का संग्रहण करते थे। भट्ट और 'चार-प्रचार' नामक पदाधिकारी जनता से बेगार (बिष्टि) लेते थे। मन्दिर को दान में प्राप्त भूमि पर बसे लोगो से बेगार नहीं ली जाती थी।
राजस्व निर्धारण में प्रयुक्त होने वाले पैमानों का उल्लेख कत्यूरी ताम्रपत्रों में मिलता हैं। भूमिमापन की ईकाइयों में प्रमुख इस प्रकार थी
द्रोणवाप
प्राचीन भारतीय अभिलेखों में 'वाप' का प्रयोग बीज की मात्रा प्रकट करने के लिए हुआ है। एक द्रोण प्राय 32 सेर के बराबर होता है। यह आज भी 'दूण' के रूप में प्रयोग होता है। अतः एक द्रोणवाप भूमि से तात्पर्य उतने क्षेत्र से होता है जितने में 32 सेर बीज छिटक कर बोया जा सकता है। ब्रिटिश काल में एक नाली को 240 वर्गगज के बराबर मानक मान लिया गया। इस आधार पर एक द्रोणवाप 3840 वर्ग गज के बराबर क्षेत्र हुआ।
कुल्यवाप
गुप्तकाल में 'कुलय' शब्द का बहुत प्रयोग हुआ है। सम्भवतः एक कुलय (कुलि) 8 द्रोण के बराबर माना जाता है अर्थात् इतना क्षेत्र जिसमें 256 सेर बीज बोया जा सके। ब्रिटिश कालीन मानक के अनसार एक कुलयवाप 30720 वर्गगज के बराबर है।
खारिवाप
एक 'खारि' 20 द्रोण के बराबर मानी जाती है। अतः इसमें 640 सेर बीज बोया जा सकता है। ब्रिटिश काल में हुए मानकीकरण के आधार पर यह 76800 वर्ग गज क्षेत्र हुआ। महर्षि पाणिनि के विवरणानुसार भी 'खारिवाप' "द्रोणवाप" से बड़ी ईकाई हैं।'
प्रान्तीय शासन
सम्पूर्ण कत्यूरी राज्य कतिपय प्रान्तों में विभक्त था जिनका शासन 'उपरिक' के द्वारा होता था। इसके नीचे 'आयुक्तक' नाम के अधिकारी प्रान्त के भिन्न-भिन्न हिस्सों का शासन चलाते थे। प्रान्तों का आगे विभाजन 'विषयो' (जिलों) में किया गया था जिसका शासक 'विषयपति' कहलाता था। कत्यूरी साक्ष्यों से चार विषयों और लोकगाथाओं से एक अन्य विषय का ज्ञान होता है। इस प्रकार कुल पाँच विषय इस प्रकार थे -
1. कार्तिकेयपुर विषय- सम्भवतः जोशीमठ से लेकर गोमती नदी तक का क्षेत्र इसमें शामिल था। सम्भवतः यह प्राचीन कत्युर क्षेत्र था।2. टंकणपुर विषय- अलकनन्दा भागीरथी संगम से लेकर अलकनन्दा उपत्यका तक क्षेत्र इसमें शामिल था।3. अन्तराग विषय - भागीरथी तथा अलकनन्दा के मध्य की उपत्यका ।4. एशाल विषय - भागीरथी एवं यमुना नदी के मध्य का क्षेत्र।5. मायपुरहाट- हरिद्वार के निकटवर्ती का तराई-भावर क्षेत्र इसमें शामिल था।इसके अतिरिक्त राज्य के अर्न्तगत कई शक्तिशाली ठकुराईयाँ भी थी जिनका शासन सामन्तों के द्वारा होता था।
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