गाँव के पुराने दिन: यादों की एक सजीव तस्वीर - The Old Days of the Village: A Living Picture of Memories
पुराने जमाने की खुशबू: गाँव की सरल ज़िंदगी का एक झरोखा
पुराने दिनों की यादें: गाँव की ज़िंदगी का सजीव चित्रण
एक जमाना वह था जब हम ,आग मॉग कर लाते थे।
उसी आग को फूँक-फूँक कर घर की आग जलाते थे।
पढ़ने के लिए लंफू था सहारा, कभी लालटेन जलाते थे।
उसकी बत्ती घुमा-घुमा कर, मुश्किल से काम चलाते थे।
गेहूँ की रोटी बड़ी चीज़ थी, बड़े बुजुर्ग ही खाते थे।
दाल भात मेहमान नवाजी, बाकी सब छछिया ही खाते थे।
मडुवा, कौणी और झूंगरा, यही तो गाँव में होता था।
रांजण, डूबुक और छछिया, हर घर में तब बनता था।
गौहथ के डुबुक, मास की दाव, बड़े दिनों में बनती थी।
झूंगरे का भात, दही की झोली, उसका स्वाद गजब था।
पुदिन की चटणी लूंण मसाला, माँ सिलोटे में पिसती थी।
जखिए और मिर्च की छोकाॅण, पास-पड़ोस तक जाती थी।
स्कूल से आकर पाणी लाते, फिर गाय बैल चराते थे।
साँझ को माँ के पिछे जाकर, घास काट कर लाते थे।
जाॅनरे से मडुवे की पिसाई, आमा की याद कराती है।
उखल में धान कुटाई, माँ की याद दिलाती है।
बेडू, हिसालू, किलमोड़ा, काफल थैला भर-भर लाते थे।
व्रत त्योहारों में बण से, तरुण (तौड़) खोद कर लाते थे।
भिमुआ रांख, लिसा और छिलुका जलाकर दिवाली जलाते थे।
जो पटाखे रात को जलाते समय डर से गिर जाते थे,
उन्हें सुबह फिर ढूंढते थे।
लगड़, प्रसाद और खजूर बनाकर, चावल का कसार बनाते थे।
जब बेटी या बहू, ससुराल या मायका जाती थी, यही मिठाई होती थी।
पटाल बिछाई गुठयार, कानस में रखे भूजिलो की याद आती है।
बुबू की फरसी, नैरू और चिलम की गुड़-गुड़, कानों में आज भी बजती है।
कितनी खुशी रहती थी हमको, कौतिक में जाने की।
पकौड़ी, आलू के गुटके और जलेबी खाकर, झूलों पर चढ़ने की।
दूर बसें हैं गाँव से अपने, अब जा भी नहीं सकते हैं।
घर गुठयार की यादों से बस, अब केवल आँख भिगो सकते हैं।
निष्कर्ष:
यह कविता हमें हमारे पुराने दिनों की याद दिलाती है, जब ज़िंदगी सरल और सुखद थी। हर छोटे पल में खुशी थी, और हर मुश्किल काम में भी एक विशेषता थी। गाँव की इस सजीव तस्वीर को पढ़कर दिल में पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें