गाँव की मिट्टी
नदी के पार पहाड़ का वो पुस्तैनी मकान
जिसमें कमेट से पुती दीवारों का चाख मेरा
गोबर मिट्टी से लीपी घिसी पाल का अपनापन
लालमाटी-बिस्वार के संयोग से सजी हुई देहरी
इन्हीं मिट्टीयों में लिपटा- चिपटा था मेरा बचपन
उनका रंग गन्ध और स्वाद कहीं मौजूद है मेरे भीतर
वो चीड़ की दादर- फंटियां-वो देवदार के बांसे के ऊपर
भूरी-नीली पाथरौं से ढका हुवा सपनों का सुन्दर घर
वही चाख जहाँ दादी सुनती थी किस्से कहानियाँ
तापते हुवे अगेठी के कोयले बड़े से छाजे के पास
जहाँ याद होते थे पहाड़े-गिनती चीखते चिल्लाते हुवे
पढी जाती थी शब्दों को सम्बोधित करती हुई वर्णमाला
रात में आती -जाती रहती थी छिलुके की मशाल
लेम्प की मध्यम रोशनी खत्म करती थी अधेरे का राज
कैरोसीन की वो गन्ध समायी है दिलो-दिमाग पर कहीं
इसी कारण सुलग उठता हूँ कभी में इस तरह
मुखर होते अनसुलझे सवालों के लिये
एशियन पेंट की रंग रंगीन दीवारों के साथ
है चमचमाता कजारिया टाइल्स का सपाट फर्श
सिस्का की दूधिया रोशनी से जगमग आभिजात्य शहर
परिपक्व होती है मुलुक की मिट्टी भी समय के सापेक्ष
स्वाद रंग और गन्ध बनने लगती है आवाज
संदेश भेजती है अपने अंदाज में मुझे
बाटुली के साथ संवेदित होते है ह्रदय के तार
आंखों में भर आता है मेरा पहाड़ मेरा घर
ये मुलुक की लाल-सफेद-भूरी मिट्टीयां
समायी होती है चेतना के मूर्त-अमूर्त विम्बों में
अक्सर मुखातिब होती हैं मुझसे तन्हा लम्हों में
पूछती है कब लोगे मेरी खबरपात- मुलाकात
देखना कभी ये तुमसे भी मुखातिब होगी
दोहराएगी उन्हीं प्रश्नों को फिर एक बार
डाल में बैठी उदास सुवा की तरह
@ भगवती प्रसाद जोशी
नैनीताल /उत्तराखंड
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