कविता - अपने पहाड़ से मैं कहां अलग हो पाया हूं

 अपने पहाड़ से मैं  कहां अलग हो पाया हूं


जिन पहाड़ों, झरनों, धारों के पानी से मैं दूर आया हूं,

उनकी छावों से आज भी कहां ,

 अलग हो पाया हूं।।

अपने पहाड़ से मैं कहां अलग हो पाया हूं।।

मेरे पहाड़ की जिस सोंधी मिट्टी में ,

मेरा बचपन बीता,

मैं उसकी हर मिठास 

अपने साथ लाया हूं।।

अपने पहाड़ से मैं कहां अलग हो पाया हूं।।


खेतों में लगे वो हरे भरे खीरे,

रात के अंधेरे में दोस्तों के जखीरे,

जखीरे संग मिलकर खीरे चुराने की यादें,

यादें ये प्यारी आज तक नहीं भूल पाया हूं।।

अपने पहाड़ से मैं कहां अलग हो पाया हूं।।



वो दोपहर की धूप ,मां बाप की डांठ,

जंगल के काफल, हिशालु की मिठास,

मंडली से मिलकर इनके लिए सांठ-गांठ,

इनकी हर खूसबू अपने साथ लाया हूं।।

अपने पहाड़ से मैं कहां अलग हो पाया हूं।।

हिसोल/हिसोला
हिशालु

कफ़ल 

किल्मोडा 


जंगल में मवेशी चराने जाना,

पेड़ों की छावं तले रहना, सो जाना,

तभी मावेशियों का जंगल से खेतों में आना,

किसी की भी खेती को अपना चारा बनाना,

हमें मार खिलवाना और खुद घर चले जाना,

उन मवेशियों को खुद से कहां अलग कर पाया हूं।।

अपने पहाड़ से मैं कहां अलग हो पाया हूं।।


घर की बनी सब्जी को पड़ोस से बदलना,

मां को सुनाना कि तु भी ऐसी सब्जी बनाना,

फिर मां का वो गुस्सा,बापू जी का दुलार,

आशीर्वाद है उनका जिसको पिरो के लाया हूं।

उनकी आंखों के सपने अपने साथ ही लाया हूं,

उनकी छावों से खुद को कहां अलग रख पाया हूं।।

अपने पहाड़ से मैं कहां अलग हो पाया हूं ।।


             *दीपक करगेती*

             *🙏🏻🌱🙏🏻*

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