काले कावा काले: उत्तराखंड का एक पारंपरिक लोकगीत
काले कावा काले: उत्तराखंड का एक पारंपरिक लोकगीत
उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर में लोकगीतों का विशेष स्थान है। ये गीत न केवल पर्वतीय जीवन की झलक दिखाते हैं, बल्कि वहां की परंपराओं, भावनाओं और प्रकृति के प्रति प्रेम को भी प्रकट करते हैं। ऐसा ही एक प्रसिद्ध लोकगीत है "काले कावा काले", जो उत्तराखंड के पारंपरिक लोकसंगीत का एक अनमोल रत्न है। आइए, इस गीत के अर्थ, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, और इसके महत्व को समझें।
गीत के बोल:
[Chorus]
काले कावा काले
घुघुती माला खा ले
लै कावा लगड़
मीके दे भे बाणों दगड़
काले कावा काले
पूस की रोटी माघ ले खाले
[Chorus]
लै कावा भात
मीके दे सुनो थात
लै कावा बौड़
मीके दे सुनु घोड़
[Verse 2]
लै कावा ढाल
मीके दे सुनु थाल
लै कावा पुरि
मीके दे सुनु छुरी
[Chorus]
काले कावा काले
घुघुती माला खा ले
लै कावा डमरू
मीके दे सुनु घुंघरू
[Bridge]
लै कावा पूवा
मीके दीजे भल भल भुला
काले कावा काले
पूस की रोटी माघ खा ले
[Outro]
काले कावा काले
घुघती माला खा ले
गीत का अर्थ और संदेश
"काले कावा काले" गीत में पहाड़ी जीवन और उसकी सरलता को दर्शाया गया है। इसमें प्राकृतिक प्रतीकों और घरेलू चीजों का उपयोग करके प्रेम, रिश्तों और सामुदायिक जीवन की झलक दी गई है। गीत में "काले कावा" यानी काले कौवे का जिक्र है, जो संदेशवाहक और शुभता का प्रतीक माना जाता है।
घुघुती माला: यह पक्षियों के प्रति प्रेम और पहाड़ों की प्राकृतिक सुंदरता को दर्शाता है।
पूस की रोटी: यह पर्वतीय जीवन की सादगी और भोजन की महत्ता को उजागर करता है।
यह गीत लोगों को एकजुट करता है और उनके जीवन में खुशी और सरलता के संदेश को फैलाता है।
गीत की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
उत्तराखंड में लोकगीत हर अवसर और त्यौहार का अभिन्न हिस्सा हैं। "काले कावा काले" विशेष रूप से ग्रामीण परिवेश के त्योहारों, मेलों, और सामुदायिक आयोजनों में गाया जाता है। यह गीत बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सभी को प्रिय है और पीढ़ियों से विरासत में मिला है।
गीत का महत्व
सांस्कृतिक धरोहर: यह गीत उत्तराखंड की संस्कृति और परंपराओं का अद्वितीय उदाहरण है।
प्रकृति से जुड़ाव: गीत में प्रकृति और पक्षियों के प्रति प्रेम झलकता है।
लोकसंस्कृति का संरक्षण: ऐसे लोकगीत पहाड़ी जीवन की सादगी और उसकी गहरी जड़ों को संजोकर रखते हैं।
लोकगीतों के संरक्षण की आवश्यकता
आज जब आधुनिकता ने पारंपरिक संगीत और लोकगीतों को प्रभावित किया है, तो ऐसे गीतों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है। ये गीत न केवल मनोरंजन का माध्यम हैं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक पहचान और धरोहर भी हैं।
उत्तराखंड के अन्य प्रसिद्ध लोकगीत
बेडु पाको बारो मासा
चैत की चैत्वाल
घुघुती बासुती
फुलारी गीत
निष्कर्ष
"काले कावा काले" जैसे लोकगीत उत्तराखंड की आत्मा हैं। ये न केवल हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखते हैं, बल्कि हमारी संस्कृति को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने का भी कार्य करते हैं। ऐसे गीतों को सुनना और उन्हें संरक्षित करना हमारी जिम्मेदारी है।
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