फतेशाह
पृथ्वीपतशाह की मृत्यु के बाद फतेशाह गढ़राज्य के शासक बने यद्यपि उनके सिहांसन पर बैठने की तिथि को लेकर मतैक्य नहीं है। हरिकृष्ण रतुड़ी और डॉ० डबराल का मानना है कि वह 7 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठा एवं उसके व्यस्क होने तक उसकी माता ने संरक्षिका के रूप में सिहांसन किया। परन्तु पृथ्वीपतशाह के द्वारा अपने जीवनकाल में ही सत्ता सौंप देने का साक्ष्य इस तथ्य की सत्यता पर संदेह पैदा करता है क्योंकि कोई भी राजा जीवित रहते हुए अल्पव्यस्क को गद्दी नहीं सौंप सकता ।
इसके अतिरिक्त फतेहशाह का शिवाजी की भाँति घोड़े पर बैठा एक चित्र जिसके नीचे फतेशाह की आयु 33 वर्ष लिखी है। सम्भवतः फतेशाह ने अपने गद्दीनशीन के उपलक्ष्य में बनवाया होगा।
राजा फतेशाह के शासन काल के सम्वत् 1757, 1767 के दो ताम्रपत्र शूरवीर सिंह के संग्रह में प्राप्य है। इसके अतिरिक्त उसका एक सिक्का भी मिला है। इस सिक्के के दोनो भाग पर चित्र अंकित होने के साथ-साथ अपनी भाषा में लेख अंकित है जो उसके काल में गढराज्य की स्वंतत्र सत्ता का प्रमाण भी है।
फतेशाह का राज्य विस्तार
फतेशाह गढ़राज्य के इतिहास में अपने वीरत्व एवं विजय अभियानों के लिए जाना जाता है। राहुल सांकृत्यायन के वर्णन के अनुसार उसकी विजय पताका तिब्बत तक फैली थी। उसके वीरत्व के सम्मान में उसकी तलवार एवं हथियार कई वर्षों तक 'दाबा' के विहार में रखे गये थे। सन् 1662 ई० में फतेशाह ने सिरमौर रियासत पर आक्रमण किया एवं पॉवटासाहिब ओर जौनसार- भावर क्षेत्र को गढ़राज्य में सम्मिलित कर लिया था। देशराज की पुस्तक 'सिख इतिहास' के अनुसार सिरमौर का राजा गढराजा की शक्ति से इतना भयभीत हो गया था कि उसने सिक्ख गुरू गोविन्द सिंह से मदद की गुहार लगाई। सम्भवतः फतेशाह के गुरू गोविन्द सिंह से अच्छी मित्रता थी फलतः उसने गुरूजी के कहने पर सिरमौर राज्य की मित्रता की याचना को स्वीकार कर लिया और उसकी उसके विजित क्षेत्रों को लौटाना स्वीकार कर लिया। यद्यपि कालान्तर में फतेहशाह और गुरू गोविन्द सिंह के सम्बन्ध कटु हो गये थे। सम्भवतः इसका कारण विलासपुर के शासक के पुत्र के साथ में फतेशाह की पुत्री का विवाह होना रहा होगा। विलासपुर के शासक की गुरूजी से शत्रुता थी फलतः भीमचन्द ने गढ़राज्य के फतेहशाह का गुरूजी से मित्रवत सम्बन्ध न रखने की चेतावनी दी हो और फतेशाह की पुत्री को त्याग देने की बात कही हो।
गुरू गाविन्द सिंह की आत्मकथा विचित्रनाटक में वर्णित है कि पाँवटा से 6 मील की दूरी पर स्थित भैगणी नामक स्थल पर गढ़नरेश ओर सिक्ख केसरी के मध्य युद्ध हुआ था। हरिकृष्ण रतुड़ी के अनुसार इस युद्ध का अन्त शान्ति समझौते के रूप में हुआ था। जबकि विचित्र नाटक अनुसार फतेशाह को झुकना पड़ा। यद्यपि अपनी आत्मकथा में गुरूजी ने कही भी भीमचन्द का नाम उल्लेख नहीं किया है जिससे भैगणी युद्ध का कारण भीमचन्द तो नहीं लगता है।
अतः प्रतीत होता है कि गुरूजी फतेहशाह के काल में कुछ समय के लिए पाँवटा पधारे सम्भवतः यह उनकी निजी यात्रा रही हो अथवा सिरमौर नरेश मेदिनीप्रकाश के आग्रह पर वे यहाँ पधारे हों। पाँवटा विश्राम के दौरान गुरूजी शेरों का शिकार कर जब स्थानीय लोगो में प्रसिद्धि पाने लगे तो गढराज्य नरेश के लिए चिन्ता का विषय बनना स्वाभाविक था। फलतः दोनो के मध्य शत्रुता पनपने लगी और इसका ही परिणाम दोनों के मध्य युद्ध था।
फतेशाह ने सिरमौर राज्य को आंतकित ही नहीं किया बल्कि राज्य के कुछ हिस्से को अधिकृत भी कर लिया था। राजा फतेशाह की वीरता से कुर्माचल क्षेत्र भी प्रभावित हुआ था। भक्तदर्शन के अनुसार फतेहशाह ने कुमाऊँ पर आकमण किया। मैमायर्स ऑफ देहरादून में वर्णन है कि फतेशाह ने सहारनपुर पर भी आक्रमण किया और विजित क्षेत्र के इरौरा परगने में 'फतेहपुर' नामक नगर बसाया।
अतः फतेहशाह पंवार वंश के वीर शासकों में से एक था। जिसकी वीरता की दुदंभी से आस-पास के राज्य आकांत थे। उसने गढ़राज्य की सीमाओं को विस्तृत किया।
फतेशाह केवल वीरता के लिए ही नहीं अपितु अपनी कलात्मक दृष्टि के लिए भी प्रसिद्ध था। माना जाता है कि चन्द्रगुत विक्रमादित्तय और मुगल सम्राट अकबर की भाँति फतेशाह का दरबार भी नवरत्नों से सुशोभित था। इन नवरत्नों में शामिल थे सुरेशानन्द बर्थवाल, खेतराम धस्माना, रूद्रीदत्त किमोठी, हरिदत्त नौटियाल, वासवानन्द बहुगुणा, शशिधर डगवाल, सहदेव चन्दोला, कीर्तिराम कनठौला, हरिदत्त थपलियाल । इस काल के कवियों, लेखकों ने फतेशाह की वीरता एवं विद्वता पर अनेक रचनाएँ लिखी है। जयशंकर द्वारा रचित 'फतेहशाह कर्ण ग्रन्थ' आज भी देवप्रयाग के पंडित चक्रधर शास्त्री की पुस्तकालय में रखा है। रतन कवि का हस्तलिखित ग्रन्थ 'फतेहशाह' शूरवीर सिंह के संग्रहालय में उपलब्ध है जिसका उन्होंने प्रकाशन भी करवाया है। तत्कालीन सुप्रसिद्ध विद्वान कविराज सुखदेव के ग्रन्थ 'वृत विचार'' में भी फतेशाह का यशोगान है। हिन्दी जगत के कवि मतिराम की रचना 'वृत कौमुदी' में फतेहशाह की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है और उसकी तुलना छत्रपति शिवाजी से की है।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि फतेशाह ने अपनी योग्यता युद्धभूमि में ही नहीं बल्कि विद्धता के क्षेत्र में भी प्रदर्शित की है। अतः फतेशाह में वीरता एवं कलात्मकता का एक अनूठा सांमजस्य था।
राजा फतेहशाह अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। नाथपंथ में उसकी अटूट श्रद्धा थी जिसका प्रमाण हमें 1668 ई0 के लिखे ताम्रपत्र से होता है जिसमें नाथपंथी संत बालकनाथ का वर्णन है जिसने हिमालयी क्षेत्र में प्रसिद्धि पाई।
'नाथपंथ' के अनुयायी होने पर भी फतेहशाह धार्मिक रूप से सहिष्णु था। उसने सिक्खों के गुरूराम राय को अपने राज्य में आमंत्रित किया एवं देहरादून में गुरूद्वारे के निर्माण का न केवल स्वागत किया अपितु इसकी आय हेतु खुडबुड़ा, बाजपुर एवं चमासारी ग्राम दान में दिये। कालान्तर में फतेशाह के पौत्र प्रदीपशाह ने छायावाला, भजनवाला, पंडितवारी, तथा घाटावाला ग्राम गुरू रामराय जी को प्रदान किए। विलियम्स महोदय ने उपरोक्त वर्णन अपनी रचना में दिया है।
यद्यपि फतेशाह की मृत्यु की तिथि पर विद्वानो में मतैक्य नहीं है परन्तु शूरवीर सिंह के संग्रह में रखे ताम्रपत्र से 1715 ई0 तक फतेहशाह के शासन करने का निश्चित प्रमाण मिलता है। दूसरा ताम्रपत्र 1716 ई0 का राजा प्रदीप शाह के काल का है। दोनों ताम्रपत्रों की तिथि के मध्य की 1 वर्ष 1 माह की अवधि पर मतभेद है। भक्तदर्शन एवं वॉल्टन महोदय फतेहशाह के पश्चात् दिलीपशाह को गढ़नरेश मानते हैं जबकि मौलाराम के अनुसार उपेन्द्रशाह राजा फतेहशाह के उत्तराधिकारी थे। उनके द्वारा बनाया गया उपेन्द्रशाह का चित्र भी शूरवीर सिंह के संग्रहालय में उपलब्ध है। इन्हीं के संग्रह में उपलब्ध 'बिन्दाकोर्ट' का ताम्रपत्र भी इस बात की पुष्टि करता है कि ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते उपेन्द्रशाह ही फतेहशाह के बाद गद्दी पर बैठे।
अतः उपलब्ध साक्ष्यों से यही स्पष्ट होता है कि 1715 ई0 किसी माह में फतेहशाह की मृत्यु हुई और उपेन्द्रशाह गद्दी पर बैठे। उपेन्द्रशाह अधिक दिन तक राजपाठ का सुख नहीं भोग पाये और उनके बाद प्रदीपशाह गद्दी पर बैठे।
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