आंग्ल-गोरखा संघर्ष

आंग्ल-गोरखा संघर्ष


ईस्ट इंडिया कम्पनी अपनी विस्तारवादी नीति के साथ हिमालय की तलहटी तक पहुँच गई थी तो दूसरी ओर गोरखे भी विस्तार करते हुए तराई क्षेत्र तक आ पहुँचे थे। जहाँ एक ओर अंग्रेज अपने संरक्षित क्षेत्र पुर्णिया, तिरहुत, गोरखपुर एवं यमुना सतलज के मध्य के क्षेत्र में गोरखों का अनुचित विस्तार बता रहे थे तो वहीं अमर सिंह थापा का कथन था कि "समस्त तराई पर नेपाल का अधिकार है"। वस्तुतः दो शक्तियाँ इतनी निकट आ चुकी थी कि अब संघर्ष सुनिश्चित था। राहुल महोदय ने अपनी पुस्तक हिमालय परिचय में उचित ही लिखा है कि "उधर दक्षिण से बढ़ते-बढ़ते अंग्रेज हिमालय की जड़ तक पहुँच चुके थे और उनकी भूख तृप्त होने वाली नहीं थी, ऐसी स्थिति में अग्रेजो को बहाना चाहिए था। वैसे ब्रिटिश सरकार की एक घोषणा में आंग्ल-गोरखा संघर्ष का तत्कालीन कारण बुटवल एवं शिवराजपुर पर गोरखों के बलात् अधिकार को बताया गया है।

यद्यपि गोरखों की घुसपैठ अंग्रेजी सीमा में 1787 ई0 से शुरू थी। भीमसेन थापा ने जब गोरखपुर के करीब 200 से अधिक गावों का अधिग्रहण किया तो ईस्ट इंडिया कम्पनी की चुपी टूट गई। 1804 ई0 में गोरखों ने पाल्या के राजा को परास्त कर बंदी बनाकर नेपाल भेज दिया और उसके अधीन बुटवल पर जबरन अधिकार कर लिया। जबकि उस समय बुटवल अंग्रेजी नियत्रंण में था। 1812 ई० तक ब्रिटिश गोरखों की घुसपैठ और लूटपाट को सहन करते रहे। अप्रैल 1814 ई0 को गर्वनर जनरल लार्ड हेस्टिग्स ने अपनी सेना को गोरखों द्वारा अधिग्रहीत ब्रिटिश क्षेत्र को वापस लेने के अनौपचारिक आदेश दे दिया। मेजर ब्रेदशों को विवादित इलाकों में गोरखों से समझौता करने हेतु नियुक्त किया गया किन्तु गोरखा सेनापतियों की हठधर्मिता के कारण कोई समाधान नहीं निकला। अन्ततः कम्पनी ने नेपाली सरकार को चेतावनी भेजी कि वे सारन क्षेत्र के 22 ग्रामों को पुनः पूर्ण अधिकार में लेने के बाद बुटवल को भी कम्पनी राज्य में मिला लेगें। तत्कालीन नेपाली सेनापति भीमसेन थापा ने इसका प्रति-उतर देने की भी आवश्यकता नहीं समझी। फलतः अप्रैल 1814 में कम्पनी ने बुटवल को कम्पनी राज्य में मिला लिया।

जैसे ही बुटवल पर अधिकार की खबर अमर सिंह थापा तक पहुँची, उसने फौजदार मनराज के नेतृत्व में गोरखा सैनिकों की एक टुकड़ी बुटवल पर आकमण के लिए भेज दी। इस टुकड़ी ने कई लोगों की हत्या की एवं साथ ही 18 पुलिस अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। बुटवल के विवादित क्षेत्र पर अब एक बार फिर गोरखा नियत्रंण हो गया। बंगाल की कम्पनी सरकार ने गोरखों को शीघ्र क्षेत्र खाली करने की अपील की किन्तु गोरखों ने साफ इन्कार कर दिया। अतः तत्कालीन गर्वनर लार्ड मायरा ने दृढ निश्चय करते हुए नवम्बर 1814 को नेपाल के विरूद्ध युद्ध की औपचारिक घोषणा कर दी। कम्पनी ने 22 हजार सैनिकों को चार टुकड़ियो में बॉट चार जाबांज अफसरों के अधीन कर दिया। मेजर जनरल मार्ले को एक हजार सैनिकों के साथ राजधानी काठमाण्डू पर, मेजर जनरल जे०एस०वुड को चार हजार सैनिको के साथ गोरखपुर, मेजर जनरल जिलेस्पी साढ़े तीन हजार सैनिकों के साथ देहरादून एवं मेजर जनरल ऑक्टरलोनी को साढे छः हजार सैनिकों के कमान के साथ गोरखा साम्राज्य के एकदम पश्चिमी भाग में तैनात कर दिया गया।

इधर गढ़वाल राज्य का निष्कासित युवराज सुदर्शनशाह अपने राज्य की पुनःप्राप्ति के लिए कम्पनी सरकार से याचना कर रहा था। दिल्ली के अंग्रेज रेजीडेण्ट को सुदर्शनशाह से बातचीत के लिए अधिकृत किया गया। रेजीडेण्ट ने अपने सहायक फ्रेजर' को सुदर्शनशाह से बातचीत के लिए हरिद्वार भेजा। इसके फलस्वरूप एक समझौता कम्पनी और सुदर्शनशाह के मध्य तय हो गया।

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