उतराखंड की मांग के लिये शक्तिरूपी दुर्गा मंदिर खैट अनशन पहाड़ों पर

खैट अनशन

उतराखंड की मांग के लिये शक्तिरूपी दुर्गा मंदिर खैट अनशन पहाड़ों पर 


जिला टिहरी में भागीरथी व भिलंगना नदी के उत्तर में स्थित पौराणिक पर्वत "खैट" लगभग दस हजार फीट की ऊँचाई वाला पर्वत है। आच्छरियों (परियों) की किवदंती के लिए मशहूर इस चोटी पर शक्तिरूपी दुर्गा मंदिर है। उत्तराखण्ड क्रांति दल के फील्ड मार्शल दिवाकर ने इतना दुर्गम स्थल सोच समझकर चुना। इसी पर्वत पर हुए अनशन के परिणामस्वरूप उत्तराखण्ड राज्य निर्माण आंदोलन के मुद्दे पर सकारात्मक सरकारी पहल की शुरूआत हुई।

पौड़ी श्रीयंत्र टापू के अनशनों का परिणाम देखकर दिवाकर ने ऐसे स्थान की तलाश की जहाँ प्रशासन जल्दबाजी न कर सकारात्मक पहल के जरिए पृथक् राज्य मुद्दे पर गम्भीरता से पेस आयेगा। इस दुर्गम पर्वत पर सड़कमार्ग के खत्म होने के बाद कम से कम 6 किमी की खड़ी चढ़ाई तय करके ही पहुँचा जा सकता है। अतः अनशन की सूचना सार्वजनिक होने से पूर्व ही दिवाकर व सुन्दर सिंह चौहान अपने विश्वशनीय साथियों के साथ पहले ही खैट पहुँच गए। यहां पूर्व घटनाओं को देखते हुए पूरी चौकसी बरती गई। आगन्तुकों को भी सुरक्षा में तैनात लोगों को पूर्ण तसल्ली होने के बाद ही मिलने दिया जाता था। फील्ड मार्शल के स्वयं अनशन पर बैठने से उनके समर्थक अपने निजी हथियारों के साथ सुरक्षा में तैनात हो गए।
अनशन स्थल की दुर्गमता का अन्दाजा इस बात से हो जाता है कि कई किलोमीटर दूर तक यहाँ पीने का पानी नहीं मिलता। अतः पीने के पानी का भण्डारण आंन्दोलनकारियों ने पहले से ही टंकियों में किया था। आवागमन का मार्ग इतना सकरा है कि जरा सी असावधानी और सीधे स्वर्ग लोक की यात्रा। व्यापक जन सर्मथन के कारण चिन्ताजनक हो रही कानून व्यवस्था को संभालने के लिए कई क्षेत्रों के उपजिलाधिकारी अनशनकारियों को मनाने आए, जिलाधिकारी टिहरी ने वस्तुस्थिति की जानकारी देकर समस्या का हल निकालने के लिए दिसम्बर में राज्यपाल से वार्ता की। प्रतिकूल मौसम की वजह से 80 वर्षीय सुन्दर सिंह और 49 वर्षीय दिवाकर भट्ट का क्रमशः 13 व 12 किग्रा0 वजन कम हो गया, लगातार गिरती-बिगड़ती स्थिति के बाद भी दिवाकर भट्ट का एलान कि "आन्दोलन में हम पहले इसलिए पिटते रहें, क्योंकि हमने अपना बचाव नहीं किया लेकिन अब पुलिस ने बल प्रयोग किया तो हम बचाव में डटकर मुकाबला करेगें। अगर में शहीद हो गया तो मेरी लाश पर मेरे परिजनों का अधिकार नहीं होगा और मेरा अन्तिम संस्कार उक्रांद करेगा। प्रशासन बल प्रयोग की बात न सोचे, अगर ऐसा हुआ तो मेरा एक-एक साथी तब तक मुकाबला करेगा जब तक वह अपने पैरों पर जिंदा खड़ा है।"

प्रदेश स्तर पर सरकार के पास अनशनकारियों को मनाने का कोई हल न था। अतः राज्यपाल ने केन्द्र सरकार को स्पष्ट संकेत दिया कि अब समस्या का हल केवल केन्द्र के पास ही है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए गृहमंत्री एम०कामसन ने फैक्स भेजकर गृह मंत्रालय की ओर से उत्तराखण्ड राज्य के संबध में औपचारिक वार्ता का निमंत्रण दिया। कार्यकर्ताओं के दबाव में अनशनकारी 4 जनवरी, 1996 को टिहरी तो गए किन्तु वार्ता से पूर्व अनशन समाप्त न करने पर डटे रहे। दिल्ली पहुँचकर सरकार से अनुकूल समय न मिल पाने एवं अस्पष्ट नीति के चलते दोनों अनशनकारी जंतर-मंतर पर इस चेतावनी के साथ बैठे गए कि अगर हमारे साथ धोखा हुआ तो वे पुनः खैट पर्वत पर लौट जाएगें। अतः 15 जनवरी 1996 को केन्द्रीय गृहमंत्री कामसन ओर विदेश राज्य मंत्री सलमान खुर्शीद ने स्वयं जंतर-मंतर पहुँचकर, 16 एवं 20 जनवरी को मुद्दे पर गृह मंत्रालय से औपचारिक वार्ता का आशवासन देकर 32 दिनों से चला आ रहा अनशन समाप्त करवाया। यद्यपि इन दोनों वार्ताओं में कोई सकारात्मक हल नहीं निकला और पुनः वार्ता के सरकारी आश्वासनों के बीच वार्ता समाप्त हो गई। किन्तु खैट अनशन की मुख्य उपलब्धि यह थी कि अब सरकार ने गंभीरता से पृथक राज्य मुद्दे को लिया और सकारात्मक औपचारिक पहल की शुरूआत केन्द्र सरकार ने की।

इसके पश्चात् पृथक् राज्य निर्माण तक बड़े आंदोलन की आवश्यकता नहीं हुई। इतना जरूर है कि आंदोलनकारी चुपचाप नहीं बैठे रहे। 26 जनवरी, 1996 को पृथक मांग पर ध्यान आकृषित करने के लिए उक्रांद की श्रीमती सरोजनी, भूपाल सिंह इत्यादि 12 लोगो ने गणतंत्र दिवस समारोह में ध्वजारोहण के तुरन्त बाद नारेबाजी की। इसी वर्ष मार्च में लोगों ने " राज्य नही तो चुनाव नहीं" के नारे चुनाव आयोग के सम्मुख लगाए। वर्ष 1997 में कांग्रेस के सतपाल महाराज, हरीश रावत ने भी पृथक् राज्य के गठन में पहल के लिए केन्द्र सरकार से आग्रह किया। 29 मार्च, 1997 को उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने पुनः पृथक उत्तराखण्ड राज्य का प्रस्ताव केन्द्र को भेजने की घोषणा की। इसी वर्ष माह जून में प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल ने पन्तनगर में कहा कि केन्द्र ने उत्तराखण्ड राज्य के गठन की कार्यवाही शुरू कर दी है। माह जुलाई में उकांद के नेतृत्व ने सरकार को चेतावनी दी कि यदि 15 अगस्त तक पृथक राज्य विषय पर आवश्यक कार्यवाही न हुई तो 16 अगस्त, 1997 से पुनः आंदोलन तेज किया जाएगा। भारतीय जनता मोर्चा ने भी राज्य गठन की घोषणा न करने पर उत्तराखण्ड के केन्द्रीय मंत्रियों के बायकॉट की घोषणा की। वर्ष 1998 में पृथक राज्य निर्माण के मुद्दे के साथ उधमसिंह नगर, हरिद्वार इत्यादि के क्षेत्रों को उत्तराखण्ड में शामिल किये जाने पर गतिरोध उजागर हुआ। इसी वर्ष 21 अगस्त को केन्द्र सरकार ने तीन राज्यों के निर्माण सम्बन्धी विधेयक सम्बंधित राज्य विधान सभाओं को मंजूरी के लिए भेजे। हरिद्वार एवं उधमसिंह नगर पर जारी गतिरोध के बावजूद अन्ततः 21 सितम्बर, को उत्तर प्रदेश पुर्नगठन विधायक, 1988 विधान सभा पटल पर रखा गया। लगभग 36 संशोधनों के साथ हरिद्वार को प्रस्तावित राज्य में शामिल न करने व उधमसिंह नगर को शामिल करने के आग्रह के साथ विधेयक को पारित कर केन्द्र को भेज दिया गया।

वर्ष 1999 में भी राज्य गठन की शीघ्र मांग की कवायद जारी रही। दिसम्बर माह में उक्रांद ने 13 जिला मुख्यालयों पर सांकेतिक धरना देकर प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजा। दिसम्बर माह में केन्द्रीय मन्त्रिमंडल ने संशोधन के साथ उत्तराखण्ड राज्य गठन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। इस वर्ष पुनः उत्तराखण्ड संयुक्त संघर्ष समिति को जीवित कर जंतर-मंतर पर धरना दिया गया। जिसमें काग्रेंस के हरीश रावत ने भी भाग लिया। वर्ष 2000 के प्रारम्भ में देहरादून में विशाल रैली आयोजित की गई। 2फरवरी को रेल गाड़ियों को रोक कर राज्य निर्माण की ढिलाई पर रोष व्यक्त किया गया। अन्ततः बाजपेयी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने उत्तरान्चल राज्य निर्माण विधेयक, 2000 उत्तर प्रदेश विधानसभा को भेजा। इस बार राज्य सरकार ने सहमति व्यक्त करते हुए प्रस्ताव केन्द्र को भेज दिया। इस प्रकार 27 जुलाई 2000 को यह विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत हुआ। 1 अगस्त को लोकसभा और 10 अगस्त को राज्य सभा से पारित यह विधियेक 28 अगस्त, 2000 को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से अधिनियमित हुआ। इस प्रकार लगभग साठ दशकों से चली आ रही पृथक् पर्वतीय राज्य की मांग का स्वप्न साकार हुआ।

संक्षेप में, पृथक राज्य के लिए संघर्षरत् विभिन्न संगठनों के आंदोलन को उत्तराखंण्ड क्रान्ति दल की पहल पर उत्तराखण्ड संयुक्त समिति के 26 अगस्त, 1994 में गठन से एकरूपता प्राप्त हुई। किन्तु नेतृत्व की छीना-झपटी, महत्वाकांक्षी लोगों की आंदोलन को कब्जाने की होड़, एक के बाद एक घटित होती दुर्घटनाएं एवं बेकसूर लोगों की शहादत और दिशाहीन नेतृत्व के कारण अपने चरम पर पहुँचने के बावजूद पृथक् राज्य का आंदोलन बिखर गया। पहाड़वासियों का दुर्भाग्य था कि क्षेत्र की बड़ी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस, भाजपा ने भी आंदोलन का सर्मथन तो किया किन्तु कभी एक साथ मिलकर नेतृत्व नहीं संभाला। अतः नेतृत्व की अदूरदर्शिता और नेताओं में महानायक बनने की महत्वकांक्षा के कारण ही असंख्य जान जाने और महिलाओं से दुर्व्यवहार होने के बाद ही 6 वर्ष लगातार संघर्ष के बाद 9 नवम्बर 2000 को पृथक पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड अस्तित्व में आया।

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