देघाट की कुछ बाते देघाट दो नदियों के मध्य बसा
एक छोटा कस्बा है वेसे ये 3 जिलों का केंद्र भी है पौड़ी, चमोली, अल्मोड़ा यहां की बात ही कुछ और है यहाँ हर वर्ष चैत्रा अष्टमी का मेला होता है बड़ी धूम _धाम से होता है कुछ वर्षो से मेले की रौनक कम है लेकिन वो मेले (कोतिक) की यादें हृदय से जुड़ी है,
#कुछ_खट्टी_मीठी_यादे _ रात को पहले गाँव मै कोतिक (मेला) होना देवी देवताओं का जागरण होना एक अलग़ ही याद है फिर पूरी रात को सोचना कि कल कोतिक(मेला)है सुबह उठना नहाना फिर तैयार होना नये कपड़ों के साथ लेकिन हम तो गरीबी के साथ थे तो वो स्कूल ड्रेस ही पहनते थे (ये स्कूल ड्रेस लिखते वक़्त मेरे आँखे नम है) मम्मी _पापा (ईजा _बाजु) से पैसे लेना ताकि कोतिक (मेला) मै लुफ्त उठाया जाए (मेरा जन्म एक छोटा परिवार से था तो मैं 10 रुपये ले गया हू) अब गाँव से सभी लोग एक साथ जाते है निशाण, ढोल, दमाऊ, रणसिंघ साज_बाज के साथ और कुछ युवाओं ने रस्सी से ......... (ये खाली स्थान है आप समझ गए होगे क्यूकि ये लिखने की इजाज़त नहीं है मुझे खेद है) पकडा रहता था भगवती मां के नारे के साथ चलते थे जय जय कार होती थी फिर पूरे बाजार मै घूमना गाँव के विभिन्न लोगों के साथ फिर मंदिर के प्रांगण के सामने एक स्थान ले लेते थे गाँव वाले और वही पर बैठे रहते थे फिर क्या अब घूमते थे पूरे मेले का आनंद लेते थे वो #जलेबीयां_आइसक्रीम_चरखा_झुला_खेलना फिर दोस्तों के साथ घूमना-फिरना वो #छोले_आलू_के_गुट्टके_और_रायता आहा मज़ा ही कुछ और होता था फिर खिलौने सबसे पहले #चश्मा_घड़ी लेना बाकी जेब बजट के हिसाब से सब अपने पसन्दीदा खिलौना लेना, फिर मकोट(ननिहाल) के रिश्तेदार मिलना थोड़ा समय उनके साथ रहना और हमारे कुछ द्दा (बड़े भाई) जिनकी शादी की बाते हुयी रहती थी भोजी (भाभी) को मिलने जाना चुप _चुप के कोई देख ना ले, फिर अब थक जाते तो नदी मै मुह हाथ धोने चले जाते कुछ देर रहते फिर घूमते फिर अब शाम होती तो गाँव वाले घर वाले बोलते चलो गाँव घर फिर आँखो पे चश्मा हाथ पर घड़ी मुह मै वो बजाने वाला पीई_पीई फिर सब अपने घरों को जलेबी, पेठा आदि समान लेके जाते थे उस वक़्त की बात ही कुछ और है वो समय शायद कभी नहीं लौट आयेगा सच्ची बात है आज 2 हजार का नोट है पर वो खुशी तो जनाब 20 के नोट ने दी है..
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