टिहरी रियासत टिहरी रियासत सुदर्शनशाह, भवानी सिंह, प्रतापशाह, कीर्तिशाह

टिहरी रियासत

गढ़वाल नरेश प्रद्युम्नशाह खुडबुड़ा के युद्ध में गोरखों से अन्तिम रूप से पराजित हुए और वीरगति को प्राप्त हुए। राजकुमार प्रीतमशाह बन्दी बनाकर नेपाल भेज दिए गए। कुवंर पराकमशाह ने कांगड़ा राज्य में शरण ली। युवराज सुदर्शनशाह एवं कुवंर देवीसिंह को ज्वालापुर के ब्रिटिश क्षेत्र में पहुँचाया गया। सुदर्शनशाह ने अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी सहायता की याचना की। 1811 ई0 सुदर्शनशाह और मेजर हेरसी के मध्य तय हुआ कि अंग्रेज गढ़वाल को गोरखों से मुक्त कराने में मदद करेंगे और बदले में उन्हें देहरादून व चंडी क्षेत्र दे दिया जायेगा। सिंगौली के संधि से सम्पूर्ण उत्तराखण्ड पर अंग्रेजी आधिपत्य हो गया। अतः सुदर्शन शाह से समझौते के अनुरूप उन्हें गढ़राज्य पर पुर्नस्थापित किया गया। सुदर्शनशाह द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित रकम लगभग न दे पाने के कारण गढ़वाल राज्य का विभाजन दो भागों में कर दिया गया। इसके अलकनन्दा के पूर्व भाग को ब्रिटिश गढ़वाल के नाम से कुमाऊँ जनपद में शामिल कर दिया गया एवं देहरादून, चंडी क्षेत्रों को सहारनपुर में मिला लिया गया। इस प्रकार प्रद्युम्नशाह के समय के गढ़वाल राज्य का एक हिस्सा उनके पुत्र सुदर्शनशाह को प्राप्त हुआ। सुदर्शनशाह ने इस नए राज्य की राजधानी "त्रिहरी" टिहरी में स्थापित की यह राज्य टिहरी रियासत के नाम से जाना जाता है। 
टिहरी रियासत टिहरी रियासत सुदर्शनशाह, भवानी सिंह, प्रतापशाह, कीर्तिशाह 


सुदर्शनशाह एवं उनके वंशजों का टिहरी गढ़वाल पर अधिकार मार्च, 1820 ई0 की सन्धि के अनुसार स्वीकृत हुआ। इसकी एवज में सुदर्शनशाह ने आवश्यकता पड़ने पर हर संभव मदद का वचन दिया। अपने राज्य में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार किया और राज्य के अन्दर अंग्रेजो को व्यापार की अनुमति दी गई। वर्ष 1824 में रवांई क्षेत्र टिहरी रियासत को दे दिया गया। वर्ष 1942, से कुमाऊँ कमिश्नर को ही टिहरी रियासत में राजनैतिक प्रतिनिधित्व सौंप दिया गया। इस प्रकार से उत्तराखण्ड राज्य का गढ़वाल क्षेत्र का हिस्सा अंग्रेजो के पूर्ण नियंत्रण में एवं द्वितीय भाग अप्रत्यक्ष नियंत्रण में 'टिहरी रियासत' के नाम से स्थापित हो गया। इस रियासत के शासकों का संक्षिप्त विवरण निम्नांकित शीर्षकों को अधीन वर्णित है।

सुदर्शनशाह (1815-1859 ई0)

प्रद्युम्नशाह गढ़वाल राज्य के अन्तिम पंवार शासक थे। खुड़बुड़ा के युद्ध में वे मारे गए। उनके उत्तराधिकारी युवराज सुदर्शनशाह ने बड़ी आर्थिक तंगी में ज्वालापुर क्षेत्र में निष्काषित दिन व्यतीत किए। अंग्रेजी हस्तक्षेप के बाद उन्हें शाही बैभव की पुर्नप्राप्ति तो हुई किन्तु उनको पुश्तैनी साम्राज्य के केवल एक हिस्से पर ही अधिकार मिला। सुदर्शनशाह ने भागीरथी एवं भिलंगना नदी के संगम स्थल पर गणेश प्रयाग (त्रिहरि) नामक स्थल पर अपनी राजधानी की स्थापना करवाई। इससे पूर्व इस स्थल पर मछुआरों की कुछ झोपड़ी पड़ी थी और इसे टिपरी नाम से पुकारा जाता था। उन्होंने इस निर्जन स्थान पर छोटे-छोटे घर बनाकर आबाद किया। टिहरी को राजधानी बनाने का मुख्य कारण इस स्थल का सामरिक दृष्टि से अत्यधिक सुरक्षित होना था। अपने निवास के लिए उन्होंने एक राजप्रासाद बनवाया जो पुराना दरबार नाम से प्रसिद्ध था। 1848 ई० में निर्मित यह राजप्रसाद भवानीशाह एवं प्रदीपशाह के काल तक परमार राजाओं का आवास रहा। सुदर्शनशाह अपने काल के उच्चकोटि के विद्वान रहे हैं। उनके द्वारा रचित 'सभासार' नामक ग्रन्थ के सभी सात खण्ड प्राप्त हैं। 1857 ई0 के देशव्यापी विद्रोह के दौरान सुदर्शनशाह ने अंग्रेजो की हर संभव मदद की। मसूरी क्षेत्र की अंग्रेजी जनता की सुरक्षा के लिए सैन्य टुकड़ी भेजी और साथ ही अपने राज्य से उन्हें सुरक्षित निकासी का मार्ग भी प्रदान किया। अपने इस कार्य के लिए अंग्रेजो ने सशस्त्र विद्रोह दबाने के पश्चात् सुदर्शनशाह को बिजनौर जिला देने का प्रस्ताव दिया। सम्भवतः सुदर्शनशाह इसकी बजाय अपने पूर्वजों के साम्राज्य का हिस्सा रहे देहरादून व ब्रिटिश गढ़वाल को वापस लेना चाहते थे। अतः इस दिशा में वार्तालाप आगे बढ़ा किन्तु यह किसी नजीजे पर पहुँचता उससे पूर्व ही सुदर्शनशाह की आकस्मिक मृत्यु हो गई।

सुदर्शनशाह का विवाह कांगड़ा के कटौच राजा अनिरूद्ध चंद की दो बहनों से हुआ था किन्तु 1859 ई0 में वे वगैर उत्तराधिकारी के स्वर्ग सिधार गए। अतः गद्दी के लिए संभावित दावेदारों के मध्य संघर्ष प्रारम्भ हो गया।

भवानी सिंह (1859-1871 ई0)

सुदर्शनशाह के पश्चात् टिहरी की गद्दी पर उनके दो नजदीकी रिश्तेदारों ने दावेदारी प्रस्तुत की। भवानीशाह को गद्दी पर बिठाया गया किन्तु सुदर्शनशाह के एक अन्य नजदीकी शेरशाह ने इसका विरोध किया। माना जाता है कि वह कुछ समय के लिए भवानीशाह को अपदस्थ करने में भी सफल रहा। अन्ततः तत्कालीन अंग्रेज राजनीतिक एजेण्ट रामजे, जो उस समय कुमाऊँ के कमिश्नर भी थे, के हस्तक्षेप के पश्चात् ही विवाद थम पाया। शेरशाह को देश निकाला देकर देहरादून में नजरबंद कर दिया गया। भवानीशाह साधारण प्रकृति के व्यक्ति थे। अपने 12 वर्ष के कार्यकाल को उन्होंने शांतिपूर्वक निकाला एवं वर्ष 1881, माह दिसम्बर में उनका स्वर्गवास हो गया।

प्रतापशाह (1871-1886)

भवानी शाह के पश्चात उनका पुत्र प्रतापशाह टिहरी रियासत के नए राजा बने। उन्होंने 1871 से 1888 ई० शासन किया। प्रतापशाह ने राजधानी टिहरी को अत्यधिक गर्मी के कारण ग्रीष्मकाल के लिए उपयुक्त नहीं पाया। इसलिए टिहरी से 14 किलोमीटर की दूरी पर 2440 मीटर की ऊँचाई पर नई राजधानी प्रतापनगर की स्थापना अपने नाम से की। इसके साथ ही अपने नाम से शहर स्थापित करने की प्रथा का शुभारम्भ करने का श्रेय भी प्रतापशाह को जाता है। परमार शासकों की इस वंश परम्परा में प्रतापशाह पहले थे जिन्होंने अपने राज्य में अंग्रेजी शिक्षा को प्रोत्साहन दिया।

प्रतापशाह ने वैवाहिक सम्बन्धों के द्वारा अपने शक्ति में वृद्धि करने का प्रयास किया। गुलर, सुकेत व मण्डी के राज-परिवार से उनका वैवाहिक सम्बन्ध रहा। जिसके कारण उन्हें उपहारस्वरूप नीचर चित्रकला का एक बड़ा खजाना प्राप्त हुआ। वर्ष 1886 ई० में अपनी आकस्मिक मृत्यु के समय उनके तीन अव्यस्क पुत्र थे- कीर्तिशाह, विचित्रशाह और सुरेन्द्रशाह।

कीर्तिशाह (1892-1913 ई0)

अपने पिता की मृत्यु के अवसर पर कीर्तिशाह अल्पायु थे। अतः उनके व्यस्क होने तक रानी गुलेरी के संरक्षण में मंत्रियों की एक समिति का गठन शासन चलाने के लिए किया गया। कीर्तिशाह ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा बरेली में एवं उसके उपरान्त मेयो कॉलेज जयपुर से ग्रहण की। 1892 ई0 में वे पूर्ण अधिकार प्राप्त शासक के रूप में गद्दी पर आसीन हुए। कीर्तिशाह सुशिक्षित एवं विद्धान शासक थे। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'कॅम्पेनियन ऑफ इण्डिया' एवं 'नॉइट कमाण्डर' जैसी उपधियों से विभुषित किया। वर्ष 1900 ई0 में इंग्लैण्ड की यात्रा पर गए जहाँ उन्हें ग्यारह तोपों की सलामी दी गई।

वे अपने छात्र जीवन में मेधावी छात्र रहे। मेयो कॉलेज में उन्हें कुल तीन स्वर्ण पदक एवं ग्यारह रजत पदक मिले। अतः आधुनिक शिक्षा की दिशा में अपने पिता की पहल को उन्होंने मजबूती से आगे बढ़ाया। टिहरी शहर में प्रताप हाईस्कूल एवं हीवेट संस्कृत पाठशाला की स्थापना की। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालय खुलवाए। उन्होंने राजकीय विद्यालय, श्रीनगर गढवाल के छात्रावास के निर्माण के लिए 1300 रूपये का दान दिया था।

कीर्तिशाह ने अपने शासन के हर क्षेत्र में सुधार लाने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी जनता के कल्याण हेतु कई कार्य किए। उदाहरणार्थ अपनी रियासत के लोगों का विद्युत से परिचय कराने का श्रेय उन्हें ही जाता है। इसके अतिरिक्त नगरपालिकाओं की स्थापना, जंगलात एवं कचहरी की कार्य प्रणाली में संशोधन इत्यादि का श्रेय भी कीर्तिशाह को जाता है। उनके प्रयासों से ही उत्तरकाशी में कोढ के रोगियों की चिकित्सार्थ 'कोढी खाना', रियासत के कृषकों की सहायता के लिए कृषि बैंक एवं एक आधुनिक छापाखाने की नींव भी पड़ी। वे स्वयं हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फ्रेंच एवं अंग्रेजी भाषाओं के विद्वान थे। उन्हे खगोल एवं ज्योषित विद्या का अच्छा ज्ञान था।

उन्होंने टिहरी शहर में एक आधुनिक वेधशाला का निर्माण कराया। इस वेधशाला के लिए बाहर कि मुल्कों से यंत्र खरीदे गए। तारामण्डल और सौर मण्डल का अध्ययन करने के लिए इस वेधशाला में बड़ी-बड़ी दूरबीनें भी लगवाई। ऐसे भी प्रमाण मिलते है कि शायद उन्होंने टाईपराईटर का अविष्कार भी किया किन्तु सम्भवतः इसका पैटेण्ट उन्होंने किसी कम्पनी को दे दिया था।

कीर्तिशाह न केवल विद्धान थे बल्कि बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति भी थे। उन्हें विभिन धर्मों के मर्म को समझने की जिज्ञासा थी। यद्यपि उन्होंने मुगल सम्राट अकबर महान के समान 'इबादतखाना' का निर्माण तो नहीं किया, न ही 'दीन-ए- इलाही' जैसा पंथ चलाने का प्रयास किया। तथापि उन्होंने विभिन्न धर्मों के सत्य का अन्वेषण करने के लिए भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बियों की एक सभा बुलाई थी। सम्भवतः कीर्तिशाह स्वामी रामतीर्थ के विचारों से प्रभावित थे। इसलिए उन्होंने रामतीर्थ के विचारों को प्रोत्साहन दिया एवं जापान में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय धर्म सम्मेलन में भाग लेने भी स्वामी जी को भेजा था। अपने द्वारा नए शहर की स्थापना की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए कीर्तिशाह ने अलकनन्दा नदी के दाएं तट पर 'कीर्तिनगर' की स्थापना की और इसे ही अपनी राजधानी बनाया। उनकी विलक्षण प्रतिभा एवं कार्यों से प्रभावित होकर 1892 के वायसराय दरबार में स्वयं वायसराय लार्ड लैन्सडाउन ने कहा कि भारतीय राज्यों के सभी नरेशों को कीर्तिशाह को अपना आदर्श बनाना चाहिए एवं उनके कृत्यों का अनकरण करना चाहिए।

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