उत्तराखंड भाषा एवं संस्क्रति
उत्तराखंड दो मंडलों में विभक्त है। गढ़वाल और कुमाऊँ इसलिए जब भी यहां
भाषा, बोली, संस्कृति इत्यादि की बातें होती है तब अमूमन गढ़वाली, कुमाऊँनी केवल दो ही बोली का जिक्र होता है, जबकि यहां 15 से अधिक लोकभाषाओं का आज भी प्रचलन है। कुछ समय के लिए गैरसैण मंडल भी भले ही अस्तित्व में आया हो लेकिन वह उतनी ही तेजी दरकिनार भी हो गया था और उसका महत्व भी अप्रासंगिक लगता है।
जिस प्रकार भारत को कश्मीर से कन्याकुमारी तक मापा जाता है, ठीक उसी प्रकार उत्तराखंड को आराकोट से अस्कोट तक जाना जाता है। आराकोट उत्तरकाशी जिले के मोरी तहसील का बंगाण क्षेत्र है। जो कि मेरा गृह क्षेत्र है और बंगाणी मेरी दूधाबोली है। 2011 की जनगणना के अनुसार यह बोली महज़ 21 हजार जनसंख्या द्वारा बोली जाती है, उसमें भी यह बोली लगभग विलुप्ति के कगार पर पहुंची चुकी है।
जिस प्रकार भारत को कश्मीर से कन्याकुमारी तक मापा जाता है, ठीक उसी प्रकार उत्तराखंड को आराकोट से अस्कोट तक जाना जाता है। आराकोट उत्तरकाशी जिले के मोरी तहसील का बंगाण क्षेत्र है। जो कि मेरा गृह क्षेत्र है और बंगाणी मेरी दूधाबोली है। 2011 की जनगणना के अनुसार यह बोली महज़ 21 हजार जनसंख्या द्वारा बोली जाती है, उसमें भी यह बोली लगभग विलुप्ति के कगार पर पहुंची चुकी है।
भारत के राज्यों का पुनर्गठन भाषा व संस्कृति के आधार हुआ था, वैसे ही उत्तराखंड के मंडल तथा उनकी पट्टियां भी अधिकांशतः भाषा व संस्कृति के आधार पर विभक्त हैं। उत्तराखंड में गढ़वाली, कुमाऊँनी के अलावा जौनसारी, जौनपुरी, रवांल्टा, बंगाणी, देवघारी, बावरी, जाड़, मार्छा, थारू, बोक्सा, जोहरी, रड़-ल्यूँ, बुक्साणा, राजी इत्यादि प्रमुख लोक बोलियां हैं जिनका इतिहासकार, साहित्यकार, राजनीतिज्ञ और पत्रकार कभी कोई जिक्र ही नहीं होता है।
मेरे क्षेत्र में तीन पट्टियां हैं। कोठिगाड़, पिंगल और मासमोर। बंगाणी बोली इन्हीं तीन पट्टियों के लोगों द्वारा बोली जाती है लेकिन यदि इसमें भी और गहनता से विश्लेषण करेंगे तब पाएंगे कि इन पट्टियों में भी कई शब्दों, वाक्यों, मुहावरों और उच्चारणों में अंदरूनी रूप से बड़ा अंतर है। बोलने का लहज़ा भी भिन्न है। साथ ही यहां नेवलाई, कण्डवाई बोली में भी अंतर है। मोरी क्षेत्र के नैटवाड़ वाली पर्वतीय बोली व संस्कृति का तो कभी ख्याल तक नहीं किया जाता है।
देवघार में भी जुब्बलिया बोली हिमाचली के करीब है जबकि अन्यत्र बावर के करीब की है। बावर में भरमिया बोली अलग है तो भरमिया और बावरी जौनसारी के करीब। जौनसार में खत (पट्टी) विशायल की थोड़ी भिन्न है तो खत शैली की भिन्न होगी। इसी प्रकार गढ़वाल में श्रीनगरिया, नागपुरिया, बधाणी, सलाणी, टिहरियाली, राठी, दसौल्या, मँझ कुमैया इत्यादि व कुमाऊँ में कुमैया, सोर्याली, अस्कोटी तथा सिराली, यह पूर्वी कुमाऊँ में बोली जाती हैं। खसपर्जिया,चौगर्खिया, गंगोली, दनपुरिया,पछाईं, और रोचोभैंसी यह पश्चिमी कुमाऊं में बोली जाती है।
उत्तराखंड में सबसे समृद्ध बोली कुमाऊनी मानी जाती है क्योंकि उनके पास एक ही शब्द को परिभाषित करने के लिए अनेक शब्दों का प्रचलन तथा संरक्षण दोनों है, शब्दकोश का भंडारण है। उसके बाद गढ़वाली आती है। इन दोनों भाषाओं पर असंख्य लोगों ने काम किया हुआ है। जौनसारी और रंवाल्टी पर श्री रतनसिंह जौनसारी जी व महाबीर सिंह रंवाल्टा जी का प्रयास काफ़ी प्रयासरत रहा। बंगाणी लगभग विलुप्त बोली है। श्री बलबीर सिंह रावत जी का प्रथम प्रयास जरूर रहा है लेकिन समृद्धि और संरक्षण की दृष्टि से वह अभी नाकाफ़ी है।
उत्तराखंड की भाषाओं के इतिहास पर बात करें तो इन पर सबसे पहले जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने काम किया। उन्होंने 1894 से लेकर 1927 के बीच राजस्व विभाग के कर्मचारियों की मदद से उत्तराखंड की भषाओं का वर्गीकरण किया। उनके संरक्षण को भी हम आगे नहीं बढ़ा सके तो अपने स्तर पर अध्धयन, चिंतन, मनन सबकुछ बहुत दूर है। बेहतर अध्ययन हेतु पूर्वाग्रहों का त्याग और निष्कर्षों को स्वीकार करना पड़ता है। जो स्थानीय शोधार्थियों में अक्सर नदारद पाया जाता है।
यूनेस्को ने स्वयं एक सारणी तैयार की जिसमें विश्व की उन सभी भाषाओं को शामिल किया था जो असुरक्षित हैं या जिन पर खतरा मंडरा रहा है। उत्तराखंड की दो प्रमुख भाषाओं "गढ़वाली" और "कुमाऊंनी" को इसमें असुरक्षित वर्ग में रखा गया था। "जौनसारी" और "जाड" जैसी भाषाएं संकटग्रस्त जबकि "बंगाणी" अत्यधिक संकटग्रस्त की श्रेणी में आ गई। अगर वर्तमान स्थिति नहीं बदली तो हो सकता है कि आने वाले 10 से 12 वर्षों में ही "बंगाणी" लोक भाषा खत्म हो जाएगी।
बकौल श्री बलबीर सिंह रावत जी "बंगाण: समाज, भाषा एवं लोक साहित्य" में लिखते हैं कि पीपुल लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (PLSI) 2013 के अनुसार देश में 780 भाषाएं हैं जिनमें से पिछले 50 वर्षों में 220 से अधिक भाषा, बोली विलुप्त हो चुकी है और 197 लुप्तप्राय होने कगार पर हैं। संयुक्तराष्ट्र के अनुसार सबसे अधिक खतरा उन भाषा और बोलियों को है जो छोटे समूहों द्वारा बोली जाती है जैसे कि "बंगाणी"।
तीन पीढ़ियों द्वारा बोली जाने वाली भाषा समृद्ध, दो पीढ़ियों द्वारा बोली जाने वाली भाषा संकटग्रस्त तथा केवल एक पीढ़ी द्वारा बोली जाने वाली भाषा अत्यधिक संकटग्रस्त समझी जाती है। यह लोकभाषाएँ केवल तभी जिंदा रह सकती हैं जब इन्हें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुचाया जाएगा। इसके अलावा एक सबसे उपयुक्त माध्यम है कि राज्य सरकार इन भाषाओं को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाये। यह भी इस दिशा में शायद एक मील का पत्थर साबित हो।
भले ही यह भाषाएँ हमारे संविधान की 8 वीं अनुसूची में शामिल नही है, लेकिन इन्हें सरकार पाठ्यक्रम का हिस्सा बना सकती है। इसकी इजाजत हमे संविधान का अनुच्छेद 345 देता है। इसमें कहा गया है कि किसी राज्य का विधान मण्डल उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिंदी को उस राज्य के सभी या किन्ही शासकीय प्रायोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा या भाषाओं के रूप में अंगीकार कर सकेगा।
यही नही अनुच्छेद 350 ए में प्राथमिक स्तर पर अपनी भाषा मे शिक्षा देने की बात भी करता है। एक प्रश्न जो इन भाषाओं को भाषा न होने के लिए पूछा जाता है कि इन भाषाओं की अपनी लिपि नही है। जिसकी लिपि नही उसे बोली कहा जाता है। तो अंग्रेजी की भी तो कोई लिपि नही है। इस तरह से तो अंग्रेजी भी भाषा नही लिपि है। यह प्रश्न अब शायद हो प्रासंगिक हो। इसलिए ऐसे प्रश्नों को निरर्थक समझते हुए, भाषा, संस्कृति को साझी विरासत मानते हुये, उसके मूल आवश्यकता पर विमर्श करना होग।
जब भाषाओं की बात आती है तो साहित्य का स्थान उसमें अहम होता है। दुर्भाग्य से दुनिया की अधिकतर लोकभाषाओं का लिखित साहित्य नही रहा। विश्व की केवल एक तिहाई भाषाओं का लिखित साहित्य है।उत्तराखंड की लोक भाषाओं विशेषकर गढ़वाली, कुमाऊनी, जौनसारी, रवांल्टी, जौनपुरी आदि में पिछले कुछ समय से साहित्य रचना के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन बहुत कम व्यक्ति इस तरह की मुहिम से जुड़े हैं।
जो भाषाएं छोटी हैं उनमें अलिखित साहित्य है जैसे वहां के लोग गत कथाएं, कहावतें, गीत, मुहावरे, लोकोक्तियां आदि। अच्छी खबर यह है कि इंटरनेट की दुनिया में इन भाषाओं के प्रति कुछ लोगों का लगाव देखने को मिल रहा है लेकिन इस संदर्भ में राजी, बुकस्याणी, बंगाणी, जाड़, मर्च्छा आदि भाषाओं के लोगों में जागरूकता का अभाव नजर आता है। कुछ लोकभाषाओं विशेषकर गढ़वाली में पिछले कुछ वर्षों से उपयोगी काव्य संग्रह जरूर आए हैं। साथ ही रुचिकर लोगों को उचित अवसर का अभाव भी दृष्टिगोचर है।
बंगाण में एक और बड़ी विडंबना यह है कि वहां की बोली में आज के समय में कोई गीत, हारुल, छोड़े, लामण, जंगू, बाजू कुछ नहीं लिख सकते क्योंकि उच्चारण और भाषा प्रयोग में हिमाचल, बावर, जौनसार का अक्स झलकता है। कोई भी लोक गायक बंगाणी बोली में गीत गाता हुआ नहीं मिलता है। कविताएं, कहानियां, नाटक इत्यादि पर जरूर विमर्श हो रहा पर उसके लिए भाषा, व्याकरण, शब्दकोश और ऐतिहासिक समझ को भी मजबूत करना पड़ेगा। इस दिशा में सभी लोग नये सिरे से, नये विचारों के साथ ध्यान देंगे तभी कुछ सम्भव हो सकेगा।
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