उत्तराखंड कुछ कहानी-अविश्वसनीय उत्तराखंड की कहानी
पुष्पा
देबू चचा गाँव में मेरी पड़ौस की बाखई में रहते थे , वैसे देबू चचा मेरे से ज्यादा बडे नही ठहरे , होंगें तो बामुश्किल कोई एक दो साल बडे , पर गाँव के रिश्ते में चचा लगने वाले ठहरे , ओर गाँवों में रिश्तों को बड़ा मानने वाले ठहरे तो , उनको मैं चचा ही कह कर बोलता था , हमउम्र होने के नाते वो मेरे दोस्त ज्यादा ओर चचा कम थे , पर थे चचा ही , बचपन में जब भी गाँव जाता देबू चचा के साथ बडी मस्ती किया करता था , इस वजह से संबंध कुछ ज्यादा ही प्रगाढ़ थे , यानी बहुत ज्यादा अपनापन था देबू चचा के परिवार से , देबू चचा अपने माँ बाप के लिये गाँव में ही रुक गये थे , बोलते थे , यार सब भाई भ्यार छन , इन बुडी बाडी कें पाणी दिनी कोई नहा , मैं ले लह जोण तो को इनर ध्यान को राखोल , बस इसी को सोच कर देबू चचा गाँव के ही होकर रह गये , इंटर तक पढ़ने के बाद गाँव में ही एक छोटी सी दुकान चलाकर गुजर बसर करने लग गये थे , जब उनकी शादी हुई थी तब भी न्यौता आया था , ओर स्पेशली मुझे बोला गया था की ब्या छ मेर जरूर आये , नाचण छ त्वै कें , ओर मैं गया भी था ओर खूब नाचा भी था , आज फिर फोन आया था देबू चचा का , ओर बोले सुन पुष्पा ब्या तय है गो अगील महण आ जाये टाईम पर , त्वेली देखण छ , पुष्पा यानी देबू चचा की बेटी , इतनी नटखट की पूछो ही मत , विशुद्ध पहाड़ी में जब बोलती थी तो बडी ही प्यारी लगती थी , जब भी मैं गाँव जाता उसके लिये खिलौने ओर फ्राक जरूर ले जाता था , देबू चचा बोलते थे , यार चार दिन बठी योई फ्रोक पहन बेर बैठ रे , खोलने क नाम न लीने , पुष्पा को बचपन से ही फ्राकों का बड़ा शौक था , गोल मटोल पुष्पा उसमें लगती भी अच्छी थी , जब उसे पता लगता था की मैं गाँव आया हूँ तो सुबह सुबह आ जाती थी , ओर आते ही बोलती थी , मेर फ्रौक काँ , बचपन के दिन ही ऐसे होते हैं , जो अपनापन दिखाये वो ही बच्चों कों अपना लगता है , ठीक यही पुष्पा के साथ भी था , आज देबू चचा का फोन आने से पुष्पा की यादें ताजा हो गई थी , मैं जाने की तैयारी में जुट गया , पुष्पा के लिये जयपुरी लहंगा ले जाना था इस बार फ्राक की जगह , पुष्पा सबसे अलग लगे ओर खूबसूरत लगे इसलिये पत्नी को हिदायत दी की पुष्पा पर फबने वाले कलर वाला लहंगा लेना , पैरों के लिये जयपुरी जुतियाँ भी मिलती जुलती रंग की लेना , हाथों में पहनने के लिये लाख के चूडे भी मैचिंग के ही होने चाहिये , एक जयपुरी रजाई भी डबल बेड वाली ओर मेकअप का सामान भी लेना है , क्योंकि पुष्पा कों सजने सँवरने का बड़ा शौक था , मैं अपनी तरफ से पुष्पा के लिये कोई कमी नही रखना चाहता था , सब सामान लेकर दस दिन पहले गाँव पहुँच गया सपत्नीक , पुष्पा कों बुलाया ओर उसे सब सामान दिखाया की ये लाये हैं तेरे लिये ,पर हमेशा चहकने वाली पुष्पा उदास सी थी , मैंनें उससे पूछा , क्या बात है पुष्पा , क्या शादी से खुश नही हो , पुष्पा बोली...ना ददा ऐसी बात नही है , बस ये सोच कर दिल उदास है की मेरे जाने के बाद ईजा बोज्यू का ध्यान कौन रखेगा , कौन उनको टाईम पर खाना पका कर देगा , भाई भी तो अभी छोटे ही हुये , उनका ख्याल कौन रखेगा , पुष्पा की बात सुनकर मैं ये सोचने लगा की बिल्कुल देबू चचा पर गई है , देबू चचा ने अपने ईजा बोज्यू के लिये घर नही छोड़ा , ओर पुष्पा अपने ईजा बोज्यू के लिये घर छोड़ने पर उदास व दुखी है , वो दिन भी आ गया जब पुष्पा दुल्हन बनी , लहंगे में हमारी पुष्पा बेहद खुबसूरत परी जैसी लग रही थी , पर चुलबुली पुष्पा अब गंभीर दुल्हन में तब्दील हो चुकी थी , विदाई के वक़्त वो सबको रुला गई , खासतौर पर देबू चचा ओर मुझको , लग रहा था गले लग कर , फूट फूट कर रोने वाली पुष्पा , आज अपने आँसुओं के सैलाब में बहा कर ले जायेगी !ईजा ( मां )
ईजा को कभी थकते नही देखा ठहरा , रात को सबसे लेट सोती ओर सुबह जब उठते तो जगी हुई मिलती , पता नही सोती भी थी के नही , रात में खट की आवाज भी हो जाये तो , तुरंत जग जाने वाली ठहरी।
ईजा सिर्फ हमारी ही नही ठहरी , बकरी के पाठ ( बकरी का बच्चा ) भी ईजा को देखते ही दौड़ लगा के चले आते ,बाखई का भुर्री कुकुर ( भूरा कुत्ता ) भी लाड जताने चला आता , भैंस ओर उसका थोर देखते ही अड़ाने लग जाते।
हम ईजा से कहते भी थे , तेर (तेरे ) कज्यो ( बहुत ) नानतीन ( बच्चे ) है गी याँ ( हो गये यहाँ )।
ईजा ये सुन कर हँसने लगती ओर कहती , होय ( हाँ ) सब नानतीन (बच्चे ) तो छन (हैं ) म्यार (मेरे ) , इनोकें ( इनको जो दी दुलार , यो करनी उनुके ( उन्हें ) प्यार , ईजा सबकी दुलारी थी।
सुबह उठ कर चाय रखना , एक चूल्हे में नहाने का पानी रखना , नाश्ते के लिये पिसु ( आटा ) ओल (गूंथ ) कर रोट (रोटी ) बनाना , इतने काम एक साथ ईजा पता नही कैसे कर लेती थी।
पूरे दिन काम में उलझी रहने वाली ईजा के चेहरे पर कभी उलझन नही देखी ठहरी हमने , हमेशा चेहरे पर मुस्कान तैरती रहती थी उनके।
बडे दा ( बडे भाई ) की छुटकी तो दूसरी ईजा बनी फिरती थी , दिन भर ईजा के साथ ही रहती , ओर उनके जैसे ही काम करने की कोशिश करती रहती।ईजा एक थी पर हर किसी को उसकी डिमांड थी , अक्सर मुझे ईजा कंप्यूटर सी लगती थी , क्योंकि यंत्रवत सी होकर वो हर काम निभाती थी।
ईजा के हाथ की बनाई रोटी का स्वाद गजब होता था , चूल्हे पर हाथ पर थापी हुई रोटियाँ , तवे पर पकने के बाद जब घोव ( चूल्हे ) में सेकने डालती तो पम फूल जाती।ईजा ओर चूल्हे का रिश्ता भी अनोखा ठहरा , ईजा रोज चूल्हे की लिपाई तल्लीनता से करती ओर बदले में चूल्हा स्वादिष्ट भोजन पका देता , ऐसा लगता जैसे दोनों एक दूसरे के संगी हों , हों क्या थे ही क्योंकि दोनों दिनभर एक दूसरे के साथ दिख ही जाते।
घर की रौनक थी ईजा , मधुर धुन की झंकार थी ईजा , घर को संतुलित करने का आधार थी ईजा!
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