बाजबहादुर के पश्चात् उसका ज्येष्ठ एवं योग्य पुत्र उद्योत चंद राजा

बाजबहादुर के पश्चात् उसका ज्येष्ठ एवं योग्य पुत्र उद्योत चंद राजा 
उद्योत चंद

बाजबहादुर के पश्चात् उसका ज्येष्ठ एवं योग्य पुत्र उद्योत चंद राजा बना। उद्योत चंद के अब तक कई ताम्रपत्र प्राप्त हो चुके हैं। बरम (भुवानी-पिथौरागढ़) ताम्रपत्र में उसकी धाय माँ की बीमारी एवं राजवैध द्वारा ठीक किए जाने के बाद राजा द्वारा वरद जोशी (राजवैध) को भूमि दान देने का उल्लेख है। यह ताम्रपत्र 1679 ई0 का निर्गत है।

इस काल में समुचे नेपाल को 'डोटी' कहा जाता था एवं सीरा क्षेत्र में स्थापित मल्ल राज्य को 'वल्ली डोटी' कहा जाता था। इस समय गढ़वाल नरेश एवं डोटी नरेश ने एक सन्धि कर रखी थी जिसके तहत वे पूर्व एवं पश्चिमी से एक साथ कुमाऊँ पर आक्रमण करने वाले थे। उसके समकालीन डोटी नरेश ने चंदो की पुरानी राजधानी पर अधिकार भी कर लिया था। सम्भवतः यह उसके राज्यभिषेक एक-दो वर्ष के ही अन्दर हुआ और उसे दोतरफा आक्रमण का सामना करना पड़ा। उद्योतचंद ने दोनो आक्रमणों का एक-साथ सामना करते हुए शत्रुओं को वापस खदेड़ने में सफल की। तत्पश्चात चौकसी के लिए उसने द्वाराहाट, चंपावत, सोर, ब्रह्मदेव मंडी में सैनिक छावनियाँ स्थापित की। भारतीचंद के बाद वह पहला शासक है जिसने डोटी नरेशों की ग्रीष्मकालीन राजधानी अजमेरगढ़ पर अधिपत्य स्थापित किया।

अपनी सफलता के लिए ईश्वर की कृपा मानकर उद्योतचंद प्रयागराज की यात्रा को निकल पड़ा। 1682 ई० में उसने रघुनाथपुर घाट पर स्नान किया किन्तु उसकी अनुपस्थित का लाभ उठाकर डोटी के रैका राजा देवपाल ने पुनः काली कुमाऊँ पर अधिकार कर लिया। सूचना मिलते ही उद्योतचंद राजधानी लौट गया और एक विशाल सेना के साथ चंपावत की ओर निकल पड़ा। रैका राजा उसके आने की खबर सुनकर ही काली पार अजमेरगढ़ चला गया। उद्योतचंद ने काली पार कर अजमेरगढ़ पर चढाई कर दी। रैका राजा वहाँ से भी भागकर अपनी शीतकालीन राजधानी जुराइल-दिपाइल कोट चला गया। उद्योतचंद ने अजमेरगढ़ को लूटा और वापस चला आया। डोटी का संघर्ष चंद राज्य से इसलिए था कि उन्होंने सीरा व सोर क्षेत्र को उनके अधिपत्य से मुक्त करअपने राज्य में मिला लिया था। इस अभियान में चंद सेनापति हिरू देउबा मारा गया। अतः राजा ने उसके वंशजो को आठ ग्राम 'रौत' में दिये। सम्भवतः अजमेरगढ़ की यह विजय वर्ष 1683 ई0 की है।

उद्योत चंद के वापस लौटते ही डोटी नरेश ने उसकी सीमाओं पर उत्पात मचाना आरम्भ कर दिया। अतः उद्योत ने पुनः डोटी पर आक्रमण कर दिया। इस बार उसने ग्रीष्मकालीन व शीतकालीन दोनो राजधानियों से डोटी नरेश को खैरागढ़ किले में शरण लेने पर मजबूर कर दिया। अतः डोटी नरेश ने सन्धि याचना की और चंद नरेश को कर देना स्वीकार किया। उद्योत ने राजधानी वापस लौट कर अपनी इस विजय के उपलक्ष में एक महल का निर्माण आरम्भ कराया। साथ ही उसने त्रिपुरा, सुन्दरी, पार्वतीश्वर एवं चंद्रेश्वर नामक मंदिरों का निर्माण भी करवाया।

किन्तु शीघ्र ही डोटी नरेश ने कर देना बंद कर दिया। अतः उद्योतचंद ने तीसरी बार डोटी पर आकमण कर दिया। किन्तु इस बार उसकी सेना को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में शिरोमणि जोशी मारा गया। उद्योत युद्ध भूमि से भागकर अल्मोड़ा पहुँचा। डोटी सेना ने भंयकर मारकाट मचाई। कुछ ही कुमाऊँनी सैनिक जिंदा वापस पहुँचे। इस असफलता से निराश हो उद्योत ने अपना जीवन शांति की खोज में लगा दिया। अपने दरबार में विभिन्न विद्याओं के विद्वानों को आमंत्रित किया। कोटा-भाबर क्षेत्र में आम्र वाटिकाएँ लगवाई। राज्य में फलदार वृक्ष वृक्ष रोपे गए। सर्वत्र पूजा-पाठ एवं मंत्र-तंत्रों की ही गूंज सुनाई देने लगी। अपने अन्तकाल को निकट जान उसने 1698 ई0 में राजकार्य को अपने पुत्र को सौंप दिया।

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