वन आन्दोलन, कुली बेगार और कुली बरदायष का विरोध, कंकोड़ाखाल आन्दोलन, दुगड्डा सम्मेलन
वन आन्दोलन
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में जब सम्पूर्ण देश में असहयोग आन्दोलन चल रहा था, उस समय ब्रिटिश तथा टिहरी गढ़वाल में वनों की समस्या के कारण जनता आन्दोलित हो रही थी। चमोली तथा पौड़ी तहसीलों की जनता ने जंगलात विभाग के अफसरों व अंग्रेज अधिकारियों के साथ असहयोग किया था। ब्रिटिश गढ़वाल में तारादत्त गैरोला, जोध सिंह नेगी एवं अनुसूया प्रसाद बहुगुणा आदि वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने, टिहरी गढ़वाल में गोपाल सिंह राणा के नेतृत्व में असहयोग वन आन्दोलन का नेतृत्व किया था। गोपाल सिंह राणा को टिहरी गढ़वाल में "आधुनिक किसान आन्दोलन का जन्मदाता" कहा जाता है। कुमाऊँ क्षेत्र में भी वन कानूनों का जनता ने पुरजोर विरोध किया। जनता ने जंगलों में आग लगा एवं तार बाड़ तोड़कर अपना असंतोष व्यक्त किया।
• कुली बेगार और कुली बरदायष का विरोध
कुली-बेगार में ब्रिटिश अधिकारियों की निःशुल्क सेवा करनी पड़ती थी एवं कुली-बरदायष में खाद्य सामग्री निःशुल्क देनी पड़ती थी। सुधारवादी नेताओं ने इन कुप्रथाओं को दूर करने के लिये कई सभायें आयोजित की। 1917 में मदन मोहन मालवीय गढ़वाल आये उन्होंने भी इस कुप्रथा के विरूद्ध एकजुट होकर कार्य करने की सलाह दी। उस समय स्थानीय जनता अधिकारियों के सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए कुली का काम करती थी। गाँव के मालगुजार के पास रजिस्टर में सभी ग्रामवासियों के नाम लिखे होते थे। मालगुजार ही ग्रामीणों को इन कुप्रथाओं के लिए भेजा करता था। विरोध करने वाले व्यक्ति के सिर पर अंग्रेज अधिकारी कमोड या अन्य निकृष्ट सामग्री रख देते थे तथा उल्लंघन करने पर पाँच रूपये से लेकर पन्द्रह रूपये तक दण्ड निर्धारित था। इन कुलियों पर ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा अमानवीय अत्याचार किया जाता था। उनका मेहनताना भी भारतीय कर्मचारियों द्वारा हड़प लिया जाता था जिससे कुलियों में असंतोष व्याप्त हो गया था। गढ़वाल में कुली बेगार आन्दोलन के तीन नेता थे-चमोली में अनुसूयां प्रसाद बहुगुणा, पौड़ी में मथुरा प्रसाद नैथानी तथा लैन्सडौन में बैरिस्टर मुकुन्दी लाल। 1 जनवरी 1921 को बैरिस्टर मुकुन्दी लाल की अध्यक्षता में चमेठाखाल में एक सार्वजनिक सभा के प्रस्तावों पर विचार-विमर्श करने के बाद सभा के अन्त में यह निर्णय लिया गया कि जनता ब्रिटिश प्रशासन को बेगार नहीं देगी और जब तक सरकार जनता की मांगों को स्वीकार कर इस कुप्रथा को बन्द नहीं करती तब तक जनता सरकार से असहयोग करती रहेगी। कुमाऊँ में भी इस प्रथा का पुरजोर विरोध किया गया। बी०डी० पाण्डे, हरगोविन्द, मोहन सिंह एवं चिरंजीलाल जैसे नेताओं ने इस आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान किया। हेनरी रामजे जैसे लोकप्रिय कमिश्नर ने भी सोमेश्वर पट्टी के लोगो पर कुली बर्दायष में असमर्थता व्यक्त करने पर दण्ड लगाया था। बद्रीदत्त पांडे ने गांधी जी को इस कुप्रथा से अवगत कराया था। नागपुर कांग्रेस से लौटने के पश्चात् जनवरी, 1921 को चिरंजीलाल, बद्रीदत्त पाण्डे एवं कुमाऊँ परिषद् के सदस्य बागेश्वर पहुचे। 13 फरवरी को मकर संक्राति के अवसर पर सरयू नदी पट पर एक आमसभा का आयोजन हुआ। तत्पश्चात् सरयू को साक्षी मानकर जबरन कुली न बनने की शपथ ली गई। इस अवसर पर कुछ मालगुजारों ने कुली रजिस्टरों को सरयू में प्रवाहित किया। इस घटना को असहयोग की पहली ईंट और रक्तहीन क्रांति की संज्ञा दी गई। इसके पश्चात् यह आन्दोलन सम्पूर्ण प्रदेश में तीव्र हो गया। कमिश्नर ट्रेल ने इस समस्या का हल निकालने के लिए वर्ष 1922 ई0 से खच्चर सेना के विकास का प्रयास आरम्भ किया। •
दुगड्डा सम्मेलन
बेगार आन्दोलन के कार्यकर्ताओं ने आन्दोलन की रणनीति बनाने के लिए दुगड्डा में एक सभा का आयोजन किया। कार्यकर्ताओं की टोलियां बेगार प्रथा उन्मूलन के लिये गढ़वाल के विभिन्न भागों में भेजी गई। गढ़वाल के पूर्वी भाग बीरौंखाल, साबली, गुजडू की ओर पहला दल भेजा गया जिसमें ईश्वरीदत्त ध्यानी, हरिदत्त बौड़ाई, मंगतराम खन्तवाल, जीवानन्द बड़ोला, योगेश्वर प्रसाद खण्डूरी आदि कार्यकर्ता थे। दूसरे दल में भैरवदत्त धूलिया, भोलादत्त डबराल, मथुरा प्रसाद नैथानी आदि कार्यकर्ता पौड़ी के नौगांवखाल क्षेत्र में जनमत तैयार करने हेतु प्रयत्नशील थे। इन्होंने यहीं पर स्वदेशी के प्रचार-प्रसार के लिये कताई-बुनाई के केन्द्र की स्थापना की। इसका उद्देश्य जनता को बेगार न देने के लिए उद्वेलित करना था। इन कार्यकर्ताओं ने गाँव-गाँव में घुमकर गांधी जी के विचारों से प्रभावित होकर पंचायतों का निर्माण किया और ग्रामीण जनता को बेगार के विरूद्ध संगठित किया। इस अवसर पर ग्रामीणों ने लूण-लोट्या लेकर (नमक वाला पानी) बेगार न देने का संकल्प कार्यकर्ताओं के सम्मुख दोहराया। प्रारम्भ में बेगार विरोधी आन्दोलन में नव शिक्षित वर्ग का ही हाथ था किन्तु धीरे-धीरे थोकदार, प्रधान, छात्र एवं ग्रामीण जनता भी इस कुप्रथा को समाप्त करने एवं प्रशासन की विसंगतियों को दूर करने के लिये खुलकर विरोध प्रकट करने लगी थी।
• कंकोड़ाखाल आन्दोलन
चमोली तहसील में आन्दोलन की बागडोर अनुसूया सूया प्रसाद बहुगुणा को सौपीं गयी थी। 1921 में नवयुवकों का एक सम्मेलन श्रीनगर गढवाल में आयोजित किया गया। दशजूला पटट्टी के कंकोड़ाखाल स्थान पर बेगार विरोधी समितियों की स्थापना की तथा जनता से किसी भी अधिकारी को बेगार न देने के लिए कहा। सबसे बड़ी जनसभा का आयोजन बैरासकुंड में किया गया जिसमें लगभग 4,000 ग्रामीण जनता सम्मिलित हुई थी। इसी समय दिसम्बर 1921 में गढ़वाल कांग्रेस कमेटी के कार्यकर्ताओं की दुगड्डा (गढ़वाल) में एक बैठक आयोजित की गई। इसकी अध्यक्षता पुरूषोत्तम दास टण्डन ने की थी। इस बार भी अन्य बैठकों की भांति कुली बेगार न देने की मांग की गई तथा सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव को पारित किया गया। साथ ही असहयोग के अन्तर्गत विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का निर्णय लिया गया और दुगड्डा में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई।
डिप्टी कमिश्नर ने ग्रामीणों से अधिक से अधिक सुविधा प्राप्त करने के लिए 12 जनवरी 1921 को कंकोड़ाखाल में कैम्प लगाया। दूसरी तरफ अनुसूया प्रसाद बहुगुणा 3-4 दिन पहले से ही बेगार विरोधी आन्दोलन को जन-जन तक पहुँचाने के लिए गाँव-गाँव में घूम रहे थे। जब उन्हें डिप्टी कमिश्नर के कैम्प की सूचना मिली तो बेसौड़ से आलम सिंह प्रधान को साथ लेकर कंकोड़ाखाल के लिये चल दिये। "कुली-बरदायष बन्द करो-बन्द करो" आदि के नारे लगाते हुये जुलूस कंकोड़ाखाल की तरफ चल दिया, रास्ते में गाँव के अन्य लोग भी साथ हो लिये जिससे वहाँ पहुँचते-2 जुलूस की संख्या हजारों में पहुँच गयी। कंकोड़ाखाल में पहुँचकर जुलूस सभा में परिवर्तित हो गया। चार-चार स्वयंसेवक के दल चार मार्गों पर कुली बरदायष रोकने के लिए तैनात किये गये। प्रधानों, थोकदारों व पटवारियों के डर से कुछ लोग बरदायष ला रहे थे, उन्हें रोकने के लिये अनसूया प्रसाद बहुगुणा रास्ते पर लेट गये और उन्होंने बरदायरा (खान पीने का मुफ्त सामान) ले जाने वाले को अपने सीने पर पांव रखकर आगे बढ़ने को कहा। उनको लांघकर जाने का साहस कोई भी न कर सका और उन लोगों को बरदायष का सामान नहीं पहुँचाने दिया गया। डिप्टी कमिश्नर मेषन सुलझे व्यक्ति थे, उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय दिया और आन्दोलनकारियों से बातचीत की। अन्ततः 1923 में इस बेगार प्रथा को बंद कर दिया गया। जिससे एक बड़ी घटना होने से बच गयी। गांधीजी ने इसे रक्तहीन कांति की संज्ञा दी। स्वामी सत्यदेव ने इस आंदोलन को असहयोग की प्रथम ईंट कह कर पुकारा था।
• स्वराज पार्टी
सन् 1923 में स्वराज पार्टी की स्थापना हुई जिसमें उत्तराखण्ड से हरगोविन्द पंत, गोविन्दबल्लभ पंत चुने गए। सयुक्त प्रांत में गोविन्दबल्लभ को स्वराज दल का नेता चुना गया। उनके प्रयासों से कुमाऊँ को नॉन-रेगुलेशन व्यवस्था से हटाया गया। 1929 में साईमन कमीशन के विरोध का नेतृत्व कुमाऊँ में हरगोविन्द ही कर रहे थे।
• सल्ट कांति
अल्मोड़ा का सल्ट क्षेत्र उस समय बहुत ही पिछड़ा था। इस क्षेत्र में पटवारी अफसरों को घूस देकर तबादला करवाते थे। गाँव में पहली बार पहुँचने पर पटवारी टीका का पैसा भी वसुलते थे। फसल कटान पर एक पसेरी अनाज और खाने-पीने का सामान जबरन वसुला जाता था। सन् 1921 को सरयु नदी तट पर कुली-बेगार न करने का संकल्प लिया गया तो अफसरों ने पौड़ी के गुजुडु पट्टी और कुमाऊँ के सल्ट में बेगार लेने का फैसला किया। इसकी सूचना मिलने पर हरगोविन्द सल्ट पहुँच गए। विभिन्न स्थानो पर सभाएं हुई और जनता ने कुली और बेगार न देने का संकल्प दोहराया। खुमाड़ को केन्द्र बनाकर क्षेत्र में आंदोलन को संचालित किया गया। यहीं के प्राईमरी स्कूल के हेडमास्टर पुरुषोत्तम उपाध्याय ने इसको नेतृत्व प्रदान किया। उनके द्वारा रचनात्मक कार्यों स्वच्छत्ता, सफाई, अछूत्तोद्धार का अभियान छेड़ा गया। इस क्षेत्र की चारों पट्टियों में पंचायतें गठित हुई, जिसने सभी मामलों पर निर्णय दिए। स्वयं सेवकों की भर्ती की जाने लगी। पुरुषोत्तम के साथ उनके सहायक लक्ष्मण सिंह ने भी इस्तीफा दिया। उस इलाके के समृद्ध ठेकेदार पान सिंह ने भी आंदोलन में भाग लिया। 1927 को प्रेम विद्यालय ताडीखेत में गांधीजी के आगमन पर सल्टवासी भी उनका स्वागत करने पहुँचे थे। 1917 के लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में पुरुषोत्तम के नेतृत्व में सल्ट के कार्यकर्ताओं ने भी भाग लिया।
• नायक सुधार अधिनियम
नायक जाति की अव्यस्क लड़कियों के द्वारा वेश्यावृत्ति की कुप्रथा थी। आर्य समाज के द्वारा इसके विरुद्ध एक आंदोलन शुरु किया गया। अतः 1928 में नायक सुधार अधिनियम पारित हुआ जिसके द्वारा नाबालिग लड़कियों से इस घृणित कार्य को करवाने पर प्रतिबन्ध लगा।
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