श्रीयंत्र टापू कांड
उतराखंड श्रीयंत्र टापू कांड
श्रीनगर गढ़वाल एक पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व का नगर है। यह शहर अलकनंदा नदी के बांए तट पर अवस्थित है। शहर से दो किमी० की दूरी पर अलंकनंदा नदी के मध्य में एक छोटा सा टापू है। श्रीयंत्र होने के कारण इस टापू को श्रीयंत्र टापू नाम से जाना जाता है। पृथक् राज्य आंदोलन को नए तरीके से हवा देने के लिए अपनी उग्र छवि लिए प्रसिद्ध उत्तराखण्ड क्रांन्ति दल के फील्ड मार्शल दिवाकर भट्ट ने मुजफ्फरनगर कांड के बाद शिथिल हुए आंदोलन को गति देने के लिए इस मानवरहित श्रीयंत्र टापू को चुना। आवश्यक सामग्री एकत्रित करने के पश्चात् 8 अक्टूबर, 1995 को प्रातः तिरंगा व उक्रांद ध्वज लहराकर इस टापू पर क्रमिक अनशन प्रारम्भ किया। आरम्भ में शासन ने इसे हल्के में लिया। अतः पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार उक्रांद ने 11 अक्टूबर से क्रमिक अनशन को आमरण अनशन में, बिशनपाल परमार एवं दौलतराम पोखरियाल की इस स्वैच्छिक घोषणा के साथ शुरू किया कि "या तो उत्तराखण्ड राज्य बनेगा या हमारी अर्थी उठेगी" जैसे-जैसे आमरण अनशन के दिन बढ़ते गए वैसे-वैसे इसे भारी जनसर्मथन मिलने लगा। मुजफ्फरनगर कांड के बाद पुनः सभी संगठनों ने अपनी एकता का प्रदर्शन किया। नदी के मध्य होने पर कई दिन यह तय न हो सका कि आंदोलन स्थल किस जनपद है। अन्ततः पुराने अभिलेखों के आधार पर इसे पौड़ी जनपद में माना गया। 25वें दिन तक अनशनकारियों के स्वास्थ्य में काफी गिरावट आ गई थी। 4 नवम्बर, को प्रशासन ने दोनों अनशनकारियों को बलपूर्वक उठाने के उद्देश्य से घेराबन्दी की और डाक्टरों एवं पत्रकारों को ढाल बनाकर पुलिस फोर्स ने श्रीयंत्र टापू की ओर बढ़ना शुरू कर दिया। पुलिस लाख मना करने के बावजूद जब नहीं रूकी तो आंदोलनकारियों ने पथराव शुरू किया जिससे नाविक नियत्रण खो बैठा जिसे स्वयं आदोलनकारियों ने सुरक्षित किनारे लगाया। अतः हारकर प्रशासनिक अमला लौट गया।![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWQXjWfgtQ5LM4JgU0S6rQr-s3LBogXqvyFrPx5XgYhagMw5iiPhqzEvRDtW1wkIzevRAChFkTON83MankGqKssq-hzKw1xa5pAqRZ8AS_iQ3IINvxEyA_t_HUZKsUY8a6HnkuPW-eSKTrWY-wh9A0wKEJ9n2vtjOuuexizwRegJJM7lHHBJR3ANzRhKU/s320-rw/jaidevbhumi2034.png)
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इस मध्य भिन्न-भिन्न अंचलो से लोगो ने श्रीनगर पहुँच कर अपना समर्थन व्यक्त किया। मुजफ्फरनगर कांड से सीख लेते हुए आंदोलनकारियों ने सचेतता का परिचय देते हुए सूर्यास्त के बाद महिलाओं को टापू पर नहीं रूकने दिया। 9 नवम्बर, को दिवाकर भट्ट एवं अन्यों को उनकी इच्छा के विरूद्ध टापू से हटा लिया गया। श्रीयंत्र टापू पर अब केवल 55 आंदोलनकारी थे जो बेहद सतर्क थे। 9 नवम्बर, सांय होते ही क्षेत्र छावनी में तब्दील हो गया। तीन नावों से टापू पर उतरे सशस्त्र पुलिसकर्मियों ने शान्तिपूर्ण एवं अहिंसक आंदोलन को रक्तरंजित कर दिया। आंदोलनकारियों को बड़ी बेशर्मी से पीटा गया और दो युवकों की जान लेने के बाद भी पुलिस का कहर जारी रहा। इसे देखते हुए सड़कों पर उग्र जनसैलाब उमड़ पड़ा जिसको खदेड़ने के लिए पुलिस को भारी मशक्कत करनी पड़ी।![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjrFf1MVxmhUa_18Mag7q1h3YCohNUuhaT4RmQkPNtoLe7ryXTaqmrx8zlWOvxKkfSL_Xtrg7mWLJMvZEM8lrTrFdAUqXcCTA3A0VjuIf_8ghgc1KpFc_e2senalMQh9v3h3wuHZzqaGR_FygKidLDxF1FVTRjPUlECmpJJJiJvegms74WfDuZx_MJnIkE/s320-rw/jaidevbhumi2034.png)
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श्रीनगर एवं आस-पास के क्षेत्र में तो उसी दिन किन्तु 11 नवम्बर, से पूरा पहाड़ फिर जल उठा। पुलिस एवं प्रशासन के विरूद्ध उग्र प्रदर्शन शुरू हुआ। उत्तरकाशी में राज्यपाल द्वारा उद्घाटित गढ़वाल महोत्सव के पंडाल को जला दिया गया। अतः इस घटना ने फिर एक बार शांत देवभूमि को अशांत किया, फिर से धरना प्रदर्शनो का एक लम्बा सिलसिला प्रारम्भ हुआ।
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