मुगलों से राजनैतिक सम्बन्ध

मुगलों से राजनैतिक सम्बन्ध


1526 ई० पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर की इब्राहीम लोदी पर विजय के साथ ही भारत पर 'मुगल' शासन स्थापित होता है। वास्तव में मुगल शब्द मंगोल शब्द का फॉरसी रूपांतरण है। इस मंगोल शब्द की उत्पति चीनी शब्द 'मोग' या 'मंगकू' से होती है जिसका अर्थ है 'वीर' । प्रारम्भिक मंगोल गडरिये थे जिनका समाज 'उलूसौ' में विभक्त था। तेमूची ने मंगोलो के इन उलूसों को संगठित कर उन्हें केन्द्रीय सत्ता द्वारा शासित किया। तेमूची को प्रारम्भिक विजयों के कारण 1203 ई0 में उसे 'खान' चुना गया और चंगेजखाँ की उपाधि दी गई। चंगेजखाँ का अर्थ होता है अत्यंत शक्तिशाली। इसी चंगेजखां के नेतृत्व में मंगोल मध्य एशिया के पश्चिमी क्षेत्रों में आए। यहाँ उनका तुर्क व ईरानी मुस्लमानों से सम्पर्क हुआ। तुर्क इन्हे मोगोल तथा ईरानी मुगल पुकारते थे। कालान्तर में तुर्क-ईरानी इतिहासकारों ने इनके लिए 'मुगल' शब्द प्रयुक्त किया। बाबर की माता कुतलुग निगार, खानिक युनुसखाँ की पुत्री थी जो चंगेज खां के पुत्र चगताई का वंशज था। अतः माता पक्ष से बाबर का सम्बन्ध मुगलो से था। अतः उनके लिए मुगलवंश का नाम प्रचलन में आया।
Political relations with Uttarakhand Mughals

बाबर ने उत्तर की पहाड़ियों के काफी निकट से दिल्ली की ओर बढना शुरू किया था। उसने यह जान लिया था कि उत्तर के पर्वतों पर बसे छोटे-छोटे राज्य देश की मुख्य राजनैतिक धारा से पृथक रहते हैं। सामरिक दृष्टि से इनकी उपेक्षा करता हुआ वह दिल्ली विजित करने बढ़ा लेकिन वह इन क्षेत्रों की भौगोलिक एवं राजनैतिक स्थिति का जायजा लेता गया। इसका परिचय वह अपनी आत्मकथा में इस प्रकार देता है, "काबुल में हिन्दुकुश के नाम से जानी जाने वाली ये पर्वत श्रेणी पूर्व की ओर बढ़ते हुए दक्षिण में कुछ झुक जाती है। इसके दक्षिण में हिन्दुस्तान है तथा कस (खस) कहे जाने वाले अज्ञात समूह के उत्तर में तिब्बत है।" सम्भवत् इस समय अजयपाल बावन गढियों को विजित कर एक राज्य के रूप में संगठित करने का प्रयास कर रहा था। उत्तर के इन पर्वतों से उसका प्रत्यक्ष परिचय तब हुआ जब दौलत खां के पुत्र गाजीखां ने इन पहाड़ियों में शरण ली। उससे उसने धारणा बनाई कि ये पर्वत एवं पहाड़ियां सुरक्षित राजनैतिक शरणस्थली है जहाँ पराजित या भगेडु राजा भाग जाते है। यद्यपि अपने अल्पकालीन शासन में उसे इस क्षेत्र विशेष के लिए किसी नीति को बनाने या प्रयोग करने का मौका नहीं मिला।


बाबर ने इस क्षेत्र की महत्व को समझा और इसी कारण उत्तराखण्ड की सीमा पर स्थित संभल की जागीर हुमाँयु को सौंपी। हुमॉयु के शासन काल में बाबर के मौसेरे भाई हैदर दोलगत का ल्हासा अभियान पर जाना एवं उसके वर्णन में चम्पा जाति का वर्णन जोकि वास्तव में भ्रमणकारी है, गढ़वाल में भोटिया जनजाति की ओर संकेत करता है। मिर्जा हैदर ने कारडून एवं दुर्ग बारमांग नामक स्थनों का वर्णन किया है। इनकी पहचान अभी तक नहीं हो पाई है। किन्तु कारडुन दुर्ग के मानसरोवर झील के दस दिन पश्चिम की यात्रा पर स्थित होने से इतना स्पष्ट है कि यह गढ़वाल का ही कोई गढ़ था।
हुमायूँ के अल्पकाल में भी मुगलों का कोई प्रभुत्व उत्तराखण्ड राज्य क्षेत्र में नहीं मिलता है। हुमॉयू के बाद दिल्ली की गद्दी पर बैठे शेरशाह की एक दुघर्टना में मृत्यु के बाद हुए राज्य संघर्ष में असफल होकर आदिलखां तो बुंदेलखण्ड की ओर भाग गया किन्तु उसके प्रमुख पक्षधर ख्वासखां ने उत्तराखण्ड की पहाड़ियों में शरण ली। कुतुबखां का नायक उसका पीछा करता हुआ आया किन्तु वह उत्तराखण्ड राज्य की पहाड़ियों में नहीं घुसा। इस्लामशाह के काल में इस क्षेत्र में किए गए उसके दीर्घकालीन अभियानों के पश्चात् हिमाचल प्रदेश के नीची पहाड़ियों के जमीदारों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। इन पहाड़ियों में उसने मानकोट, शेरगढ़, इस्लामगढ़ और फीरोजगढ़ नामक दुर्ग निर्मित करवाए। ख्वासखां ने कुमाऊँ राज्य में शरण ले रखी थी। अहमद यादगार ने अपनी कृति मखजन-ए-अफगानी में ख्वासखां के कुमाऊँ में शरणागत होने और उसके बाद इस्लामाशाह की चाल में फंसकर जान गंवा देने का विस्तृत वर्णन है। यद्यपि इसकी पुष्टि गढ़वाल कुमाऊँ के उपलब्ध साक्ष्यों से नहीं होती है।

अतः बाबर, हुमायूं और सूरवंश के काल में उत्तराखण्ड राज्य से सम्बन्ध आंशिक ही बने रहे क्योंकि दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले इस काल के किसी भी शासक को अपने को स्थापित करने भर का ही समय मिल पाया। इस कारण उत्तराखण्ड क्षेत्र की राजनैतिक शक्तियां दिल्ली से पृथक ही बनी रही।

अकबर के शासनारम्भ तक श्रीनगर से सचालित गढवाल राज्य ने भी एक राज्य का स्वरूप ग्रहण कर लिया था। अकबर से क्षुब्ध विद्रोही भी इन पर्वतों पर शरण लिए हुए थे। सिकन्दर सूर ने भी शिवालिक की इन्हीं पहाड़ियों में शरण ली हुई थी। अकबरकालीन इतिहासविदो ने व्यास नदी से लेकर नेपाल तक विस्तृत पर्वत श्रेणियों के लिए शिवालिक नाम का प्रयोग किया है। उपलब्ध पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों से हमें सहजपाल, मानशाह, बलभद्रशाह आदि को अकबर का समकालीन मान सकते है। सम्भवतः इनमें प्रथम दो गढ़वाल नरेश एवं अन्तिम दो शक्तिशाली गढ़वाली दुर्गपति (गढ़पति) थे। अकबर के काल से उत्तराखण्ड राज्य क्षेत्र का मुगल साम्राज्य से राजनैतिक सम्पर्क होने का उल्लेख मिलने लगता है। सिकन्दर सूर की तलाश में अकबर की सेनाएं इस क्षेत्र में लगभग छः माह तक व्यस्त रही। इस अवधि में इस क्षेत्र के कई जमीदारों ने अकबर के प्रति अपनी अधीनता प्रकट की। बैरमखां ने भी व्यास नदी तट पर स्थित तलवाड़ा के राजा गोविन्दचन्द्र के यहाँ शरण ली थी। इस कम में पर्वतीय राजाओं ने अकबर की सेनाओं से कई युद्ध किए। उत्तराखण्ड के पर्वतीय राज्य गढ़वाल में अकबर ने विशेष रूचि दिखाई। उसने एक सर्वेक्षण दल इस क्षेत्र में गंगा के स्त्रोत की खोज के लिए भी भेजा था। इस क्रम में निश्चित ही उसका सम्पर्क उत्तराखण्ड के गढ़वाल राज्य से हुआ होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि अकबर ने अपने प्रारम्भिक पहाड़ी अभियानों की कठिनता को देखते हुए गढ़वाल क्षेत्र में सामरिक प्रयास आरम्भ करने से पहले भौगोलिक सर्वेक्षण करना उपयुक्त समझा।

अकबरकाल में ही द्वितीय चरण में हम मुगल जागीदार हुसैनखां को उत्तराखण्ड राज्य क्षेत्र में आकमण करते पाते है। हुसैन खां ने यहां की अतुल सम्पदा की लालसा में आकमण किया था जिसका बदायुनी ने विस्तृत वर्णन किया है। बदायुनी ने इस पर्वतीय राजा की राजधानी का नाम अजमेर दिया है जिसको अजमेरगढ़ी से समीकृत किया जा सकता है। अपनी असफलता के बाद हुसैनखां जब अकबर के दरबार में उपस्थित हुआ तो अकबर ने उसे पर्वतीय सीमा पर स्थित काठ व गोला की जागीर से उपकृत किया। इसका अर्थ है कि उसके अभियानों को सम्राट की स्वीकृति प्राप्त थी। 1875 ई0 में उसने पुनः उत्तराखण्ड के पर्वतीय राज्य पर आक्रमण किया। बदायुनी और अबुल फजल के वर्णन से लगता है कि इस बार हुसैनखां ने बसन्तपुर पर आक्रमण किया था। अबुल फजल इस स्थान को कुमाऊँ में जबकि बदायुनी गढ़वाल में अवस्थित बताता है। सम्भवतः हुसैनखां के इन आक्रमणों को अकबर की मौन स्वीकृति प्राप्त थी ताकि वह इन क्षेत्रों की भौगोलिक राजनैतिक स्थिति को ठीक से समझ सके।

अकबरनामा में उत्तराखण्ड राज्य क्षेत्र के वर्णन एवं आइन-ए-अकबरी में कुमाऊँ सरकार के 21 परगनों की सूची से स्पष्ट होता है कि अब दिल्ली व उत्तराखण्ड स्थित राज्य के मध्य परस्पर सम्बन्ध स्थापित नहीं बल्कि अच्छे एवं सुदृढ हो चुके थे। इतना अवश्य है कि अकबर के प्रारम्भिक अभियान कठिन रहे और कोई स्थायी प्रभाव न छोड़ सके। सभी पर्वतीय राज्यों के साथ गढ़वाल राज्य को भी लगा कि मुगल सेनाएं इस दुर्गम क्षेत्रो में प्रवेश नहीं कर पायेगीं। परन्तु इन राज्यों का भ्रम 1586 ई0 में भीषण हिमपात के बाद भी मुगल सेनाओं द्वारा कश्मीर विजय से अवश्य टूट गया होगा। क्योंकि इसके आस-पास ही हम कुमाऊँ नरेश रूद्रचंद को अकबर की अधीनता प्रकट करता हुआ पाते है। उसके लाहौर के दरबार में उपस्थित होने का प्रत्यक्षदर्शी स्वयं बदायुनी था। अकबर की सेवा में उपस्थित होने वाला वह उत्तराखण्ड का प्रथम नरेश था। यद्यपि 1796 प्रद्युम्न शाह के काल में श्रीनगर यात्रा पर पहुँचे हार्डविक के विवरणानुसार अकबर के काल में गढवाल राज्य किसी भी प्रकार का कर नहीं देता था। इस तथ्य का संकेत आइन-ए-अकबरी में मिलता है। अतः स्पष्ट है कि अकबर के काल में मुगल अधीनता प्रकट करने के बाद भी उत्तराखण्ड राज्य की स्वतंत्र स्थिति बरकरार रही।

जहांगीर के समकालीन गढ़वाल के शासकों का नाम राजा मानशाह और श्याम शाह मिलता है। तुजुक-ए-जहांगिरी में जहांगीर के शासन के 16वें वर्ष वह आगरा में कुछ भेंटे प्रदान करने का उल्लेख करता है, वहीं अंत में श्यामशाह को भी एक घोड़ा और हाथी प्रदान करने का उल्लेख है। अब्दुल हमीद लाहौरी के विवरणानुसार श्रीनगर ने सिरमौर राज्य से उसकी राजधानी कालसी व बैराट दुर्ग जीत लिए थे। अपनी राजधानी प्राप्त करने के लिए सिरमौर नरेश कर्मप्रकाश ने निकटस्थ मुगल फौजदार से मदद मांगी। सम्भवतः सहारनपुर के फौजदार मीरमुगल ने कर्मप्रकाश की याचना पर गढ़वाल पर असफल आक्रमण किया। इस कारण दिल्ली से गढराज्य सम्बन्धों में तनाव आया होगा। इसी तनाव को दूर करने के उद्देश्य से श्यामशाह मुगल दरबार गया होगा। अपना पक्ष प्रस्तुत करने के बाद ही जहाँगीर की कृपा प्राप्त करने में वह सफल रहा।

जहांगीर भी अपने पिता की भांति गंगाजल का ही सेवन करता था। उसने स्वयं गढ़वाल राज्य की सीमा पर स्थित हरिद्वार की यात्रा की और हिमालय के तलहटी क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। किन्तु श्रीनगर के राजा का उसके स्वागतार्थ न आने से स्पष्ट होता है गढ़राज्य की मुगल अधीनता नाममात्र की ही थी। सम्भवतः यही से मुगल-गढ़वाल सम्बन्ध तनावपूर्ण होने लगे थे।

शाहजहाँ के काल में इन तनावपूर्ण सम्बन्धों की परिणति संघर्ष एवं युद्ध के रूप में हुई। इनायतखां शाहजहाँ के दरबार में श्रीनगर के जमींदार के प्रतिनिधि के रूप में माधो नामक व्यक्ति का उल्लेख करता है। शाहजहाँनामा से ज्ञात होता है कि श्रीनगर राज्य अब भी मुगल सम्राट को कोई कर नहीं देता था। एक साम्राज्यवादी शासक इस प्रकार की स्थिति को अधिक सहन नहीं कर सकता था। इसी कारण हमें मुगल इतिहासकारों के वर्णन में इस पहाड़ी राज्य को अधीन बनाने हेतु हुए तीन सैन्य अभियानों का वर्णन मिलता है। प्रथम 1635 ई0 में नवाजत खां के नेतृत्व में हुआ। गढ़वाल से प्राप्त साक्ष्यों में यद्यपि इसका कोई प्रसंग नहीं मिला है। किन्तु निकोलो मनुस्सी लिखता है कि इस विफलता के कारण शाहजहाँ ने श्रीनगर की रानी को नाककाटा रानी कहे जाने के आदेश दिए थे। मुस्लिम साक्ष्यों में यहाँ के राजा के नामोउल्लेख न मिलना भी इस ओर संकेत करते है कि इस समय गढराज्य की बागडोर रानी कर्णावती के हाथों में थी। रानी के पश्चात् गढ़राज्य की गद्दी पर बैठने वाले पृथ्वीपतशाह को अहसास था कि मुगल सम्राट इस पराजय को सहज स्वीकार नहीं करेगा। अतः उसने मैत्री सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया। यही कारण था कि जेसुइट पुरोहित के प्रति अब उदार रवैया अपनाया गया। उन्हें श्रीनगर में चर्च खोलने की अनुमति दी गई। इन जेसुइट पुरोहितों में मुगल राजकुमार दारा शिकोह का मित्र स्टैनिसलास मालपिका भी 1637 में यहाँ पहुंचा। ज्ञात हो कि सॉपरंग में बंदी बनाए गए जेसुइट को छुड़ाने में भी पृथ्वीपतशाह ने योगदान किया। इस कड़ी में पृथ्वीपतशाह को मुगल शासक की अधीनता प्रकट करने वाले पत्र भी दारा शिकोह को भेजते हुए पाते हैं।

उपरोक्त सभी तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि रानी कर्णावती के समय की घटना से गढ़राज्य को बचाने के लिए पृथ्वीपतशाह निरन्तर मुगलों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाने के प्रयास करता रहा। सम्भवतः उसने मुगल दरबार को कर देना भी प्रारम्भ कर दिया था। किन्तु शाहजहाँ गढ़राज्य को पूर्णतया अधीन करना चाहता था। इस क्रम में खल्लीलुल्लाहखां के नेतृत्व में 1654 में श्रीनगर अभियान आरम्भ हुआ। सिरमौर राज्य इस आक्रमण में मुगल सेना को सहयोग कर रहा था। इस अभियान में खल्लीलुल्लाह दून, बसंतपुर, साहिज्यपुर पर अधिकार स्थापित करता हुआ गंगा तट पर पहुँचा। वर्षा ऋतु आगमन के कारण अभियान रोक दिया गया। किन्तु 1956 में शाहजहाँ ने पुनः कासिमखान और मीर आतिश के नेतृत्व में श्रीनगर के विरूद्ध सेना भेजा।

इससे स्पष्ट है कि सिरमौर एवं कुमाऊँ राज्यों के अधीनता में आने के बाद मुगल सम्राट गढ़वाल राज्य की स्वतन्त्र स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। वह उसके मैत्री प्रकटीकरण और दौत्य सम्बन्धों से संतुष्ट न थे। अतः निरन्तर अभियान हुए। यद्यपि मुगल सेनाएं श्रीनगर तक तो नहीं पहुँच सकी लेकिन दून एवं उसके आस-पास के क्षेत्र पर नियन्त्रण कर उन्होंने श्रीनगर का सम्पर्क मैदानी क्षेत्र से काट दिया। अतः विवश होकर श्रीनगर के राजा को अधीनता का अनुग्रह करना पड़ा। मौलाराम के गढ राजवंश काव्य में राजकुमार मेदिनीशाह द्वारा स्वयं मुगल सम्राट की सेवा में उपस्थित होने और झुककर सलाम करने का वर्णन है।

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