नालापानी का युद्ध आंग्ल-गोरखा सर्धि

नालापानी का युद्ध

गिलेस्पी के नेतृत्व में ले-कर्नल कारपेण्टर और कर्नल मौबी शिवालिक श्रेणी की तिमली और मोहन घाटी को पार कर अपनी सेना सहित 24 अक्तूबर 1814 ई0 को दून घाटी पहुँचे। दून घाटी में गोरखों ने अपना शिविर शहर में साढ़े तीन मील उत्तर-पूर्व में अवस्थित कर रखा था। स्थानीय लोग इस क्षेत्र को नालागढ़ी अथवा नालापानी कहकर पुकारते थे। यह स्थल अब 'खंलगा' नाम से प्रसिद्ध है। यही पर अंग्रेजो ने गोरखों की वीरता एवं शौर्य के स्मारक को 'खलंगा' नाम से स्थापित किया था। यद्यपि गोरखाली भाषा में 'खलंगा' को शाब्दिक अर्थ सैन्य शिविर से होता है। कैप्टन बलभद्र सिंह ने संभावित खतरे को देखते हुए जल्दी-जल्दी में इस क्षेत्र में शाल के वृक्षों से घिरे एक टीले पर पत्थर व लकड़ी से निर्मित एक किला तैयार करवा लिया था। उसने लगभग 500 सैनिको के साथ यहाँ पर अपना मोर्चा जमा लिया था। कर्नल मौबी के आत्मसर्मपण प्रस्ताव को उसने फाड़ दिया। 26 अक्टूबर से 31 अक्टूबर तक जिलेस्पी ने दुर्ग को जीतने का विफल प्रयास किया किन्तु गोरखों की खुकरियों ने अंग्रेजी सेना में भगदड़ मचा दी। गोरखा सैनिको की स्त्रियों ने दुर्ग मार्ग की रक्षिकाओं के रूप में अपना योगदान किया। 31 अक्तूबर 1814 के जिलेस्पी ने पूर्ण तैयारी के साथ हमला किया किन्तु इसमें वह स्वयं ही मारा गया।

जनरल जिलेस्पी की मृत्यु ने अंग्रेज सेनापतियों को सोचने पर मजबूर किया। खलंगा के चार-पाँच सौ सैनिकों के शौर्य एवं वीरता देखने लायक थी। 31 अक्तूबर और 27 नवम्बर के युद्ध के पश्चात् 30 नवम्बर को किले पर भारी बमबारी की गई किन्तु अंग्रेजो को किला जीतने में सफलता तब ही मिल पाई जब किले के पीने के पानी की सप्लाई रोक दी गई और गोरखा स्त्री-बच्चे बिलखने लगे। अंग्रेजो की विजय होने के बाद भी बलभद्र सिंह अपने 70 सैनिको के साथ विजित सेना को चीरता हआ निकल गया। कर्नल लुडलो ने उसका पीछा किया किन्तु बलभद्र थापा सुरक्षित जॉटगढ़ पहुँचा। उसके पश्चात् वह जैतक में गोरखा सेना से मिल गया। जैतक के किले को हारने के पश्चात् उसने सिक्ख सेना की सेवा स्वीकार की और अन्ततः महाराजा रणजीत सिंह के लिए अफगानो के विरूद्ध लड़ता हुआ मारा गया।

अंग्रेजो ने खलंगा-विजय के पश्ताच् सम्पूर्ण नालापानी दुर्ग को नष्ट कर दिया। इतना अवश्य है कि गोरखों की इस युद्ध में शौर्य एवं वीरता की सम्मान करते हुए अंग्रेजों ने खंलगा ( नालापानी क्षेत्र) में रिस्पना नदी के बांई ओर दो स्मारक स्थापित किए। इनमें से एक जनरल रोलो गिलेस्पी और उसके मृत सैनिको की स्मृति में तथा द्वितीय बलभद्र सिंह थापा एवं उसके वीर सैनिकों के सम्मान में स्थापित किया। अंग्रेज लेखको ने भी गोरखों की वीरता की प्रशंसा की है। प्रत्यक्षदर्शी फ्रेजर महोदय ने स्वयं लिखा है-"जिस दृढ़ संकल्प के साथ एक छोटी सी टुकड़ी ने इस छोटी-सी चोटी को अपेक्षाकृत इतनी बड़ी सेना के हाथ में एक माह तक जाने से रोका, इसकी प्रशंसा किए बगैर कोई भी नहीं रहेगा...... ...घेराबन्दी के समय खंलगा के गोरखा सैनिकों ने उच्च चरित्र को प्रकट किया।"

दूसरी ओर जनरल जे0एस0वुड०, जिन्हें 4000 सैनिको के साथ कुमाऊँ के पूर्व की तरफ से गोरखपुर क्षेत्र से गोरखों को खदेड़ने की जिम्मेदारी सौपी गई थी, वे भी अपने कार्य में विफल रहे। थोड़े से ही गोरखा सैनिको से वे भी इस क्षेत्र को छीनने में असफल रहे।

मेजर जनरल मार्ले को नेपाल की राजधानी काठमांडु पर आक्रमण के लिए अधिगृहीत किया गया था जिनके अधीन 8000 से अधिक सैनिक एवं गोरखा सेना से उत्तम हथियार थे। अपने अभियान में न केवल उसने एक हजार से अधिक सैनिको को खोया बल्कि स्वयं ही 10 फरवरी 1815 को अपने पद को त्याग दिया एवं अपने सैनिको को असंमझस में छोड़ वापस चल दिया।

गोरखों के विरूद्ध चार कोनो से छेड़े इस अंग्रेजी अभियान में केवल जनरल ऑक्टरलोनी ही सफल सेनापति सिद्ध हुए। उन्होंने अक्टूबर 1814 ई0 के अन्त में सतलज एवं यमुना के मध्य गोरखा अधिग्रहण के विरुद्ध 6000 सैनिको के साथ अपना अभियान प्रारम्भ किया। हिन्दूर (नालागढ़) के किले में गोरखे सामरिक दृष्टि से मजबूत स्थिति में थे। इसके अतिरिक्त रामगढ़ एवं मलाऊँ के मजबूत दुर्ग भी गोरखों के योग्यतम सेनापति अमरसिंह थापा के नियत्रंण में थे। अतः सीधे युद्ध में ऑक्टरलोनी को पीछे हटना पड़ा। अतः उसने गोरखों के विरूद्ध कपटपूर्ण एवं छलनीति का लगभग तीन माह तक प्रयोग कुशलता पूर्वक किया। फलतः अमरसिंह थापा को अपने अधिकांश ठिकानो को छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा और उसने सारी ताकत मलाऊं के किले में एकत्रित की। इस किले पर अंग्रेज विजय ने हिमालय की तलहटी में गोरखा अधिग्रहण की समाप्ति का संकेत दे दिया था। मलाऊं किले की विजय अंग्रेजो के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थी इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जनरल ऑक्टरलोनी ने यही पर पहली गोरखा रैजीमैण्ट की स्थापना की। गोरखों की यह बटालियन आज भी भारतीय सेना में मलाऊं राईफल्स के नाम से प्रसिद्ध है। इस किले को विजित करने के लिए प्रयुक्त बन्दूकों को भी मलाऊं बन्दूकों का नाम दिया गया जो कि आज भी शिमला के निकट स्थित सबाथु के सैन्य प्रशिक्षण केन्द्र के संग्रहालय में सुरक्षित रखी गई हैं।

किन्तु इस सफलता के बावजूद भी ईस्ट इंडिया कम्पनी का वास्तविक उद्देश्य पूर्ण नहीं हुआ क्योंकि अभी भी कुमाऊँ पर उनका अधिकार नहीं हो पाया था। कुमाऊँ प्रदेश उनके लिए सामरिक एवं व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। वे जानते थे इस क्षेत्र पर पूर्ण नियत्रंण के बिना गोरखों के आतंक से पूर्णतया मुक्ति संभव नहीं थी। द्वितीय एवं सबसे महत्वपूर्ण इस क्षेत्र का तिब्बत, चीन एवं एशिया के साथ व्यापार के लिए महत्वपूर्ण होना था।

जब इतनी लड़ाईयाँ भिन्न-भिन्न स्थानों पर करने के बाद भी ब्रिटिशों के हाथ कुछ नहीं लगा तो उन्होंने सुब्बा बमशाह को अपनी ओर मिलाने की कोशिश प्रारम्भ की। इस समय सुब्बा बमशाह थापा दल से असंतुष्ट चल रहा था। इस हेतु ई० गार्डनर को नवंबर 1814 में दिल्ली से मुरादाबाद शांतिपूर्ण बातचीत के लिए भेजा गया। कुमाऊँ के सुब्बा बमशाह और उसके भाई हस्तिदल का अधिक ध्यान चिलकिया एवं ब्रह्मदेव के मध्य क्षेत्र पर था क्योंकि इस क्षेत्र में उन्हें पूर्ण व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त था। काशीपुर स्थिति ईस्ट इंडिया कम्पनी की भांग की फैक्ट्री को भी यहाँ से माल सप्लाई होता था। बमशाह से बातचीत जारी थी और दिसंबर 1814 तक अंगेजो ने कुमाऊँ को हस्तगत करने के लिए पूर्ण प्रयास करने का निश्चय कर लिया था। कर्नल गार्डनर एवं हेरसी को इस कार्य के लिए नियुक्त कर दिया गया। अंग्रेजो ने रोहिल्लों की भर्ती आरम्भ की। ई० गार्डनर व कर्नल गार्डनर ने काशीपुर में अपना डेरा डाला तो कैप्टन हेरसी बरेली व पीलीभीत से संचालन कर रहा था। आक्रमण की भनक लगने पर गोरखों ने भी अपनी सैन्य संख्या में वृद्धि करना आरम्भ कर दिया।

अंग्रेजों ने गोरखों को कमजोर करने के लिए 14 दिसम्बर 1814 को एक घोषणा निकाली कि गोरखों को बाहर निकालने में स्थानीय लोगों को अंग्रेजो की मदद करनी चाहिए। इसका अच्छा नतीजा निकला और गोरखों ने जो पठान भर्ती किए थे वे अंग्रेजी सेना में मिल गए। लालसिंह ने भी गोरखों के विरूद्ध लड़ने के लिए अंग्रेजो को पत्र भेजा। हर्षदेव जोशी भी सजग हो गए यद्यपि उन्होने राजनीति से सन्यास ले लिया था। जनरल मारटिन डेल के राजनीतिज्ञ सलाहक फेजर महोदय से हर्षदेव का पत्र व्यवहार आरम्भ हो गया। फ्रेजर के प्रयासो से हर्षदेव की मुलाकाल काशीपुर में कैप्टन हेरसी से हुई। हर्षदेव को अपनी ओर मिलाने से अंग्रेजो को लाभ हुआ और महारा, फर्त्याल, तड़ागी इत्यादि वर्ग के लोग अंग्रेजी सेना में शामिल हुए। हर्षदेव की मदद से खुश हो अंग्रेजो ने उन्हें 'कुमाऊँ का अर्ल-वारविक" कहा। हर्षदेव ने गोरखा सेना में शामिल कुमाऊनियों को भी अंग्रेजी पक्ष में लाने में सफलता प्राप्त की।

जनवरी अन्त तक कुमाऊँ पर आक्रमण की तैयारी हो गई। अंग्रेजी सेना का एक हिस्सा कर्नल गार्डनर के नेतृत्व में चिलकिया एवं कोशी के रास्ते अल्मोड़ा के लिए बढ़ा तो द्वितीय भाग कैप्टन हेरसी के नेतृत्व में तामली दर्रे से होता हुआ आगे बढ़ा। 500 सैनिको की टुकड़ी रूद्रपुर में तैनात की जिसे सारी अंग्रेज सेना के पहाड पर चढने के बाद बाराखोडा के किले पर कब्जा करना था और गोरखों को हराकर रामगढ़ व प्यूड़े होते हुए कर्नल गार्डनर की टुकड़ी से मिलना था। कन्यासी, चिलकिया और आमसोत पर कब्जा करते हुए 16 फरवरी को अंग्रेजी सेना ने चूकम में पड़ाव डाला। चूकम से पन्द्रह मील की दूरी पर गोरखों का कोटागढ़ी किला था। 18 फरवरी तक कोटागढ़ी पर अंग्रेजी अधिकार हो गया। टंगुड़ा वा लोगंलिया दर्रे पर अधिकार करते हुए अंग्रेजी सेनापति को ज्ञात हुआ कि गोरखा सेनापति अंगद 800 की सेना के साथ भुजाण नामक स्थल पर पडाव डाले है। अतः गार्डनर ने अपने रास्ते में परिवर्तन किया और चौमुखिया नामक ऊँचाई वाली जगह पर कब्जा करने बढ़े। गोरखा सेनापति को जब इस तथ्य की जानकारी हुई तो वह चौमुखिया की ओर बढ़ा किन्तु उसके पहुँचाने से पूर्व अंग्रेजी सेना यहाँ कब्जा कर चुकी थी।

गोरखों ने अंग्रेजी सेना को रोकने के लिए रानीखेत के निकट कुम्पुर की पहाड़ी पर डेरा डाला। यह स्थल सामारिक दृष्टि से अति उत्तम था। अंग्रेज सेना कठाललेख की पहाड़ी पर थी और दोनों सेनाओं के मध्य ताड़ीखेत की घाटी थी। गार्डनर ने युद्ध कौशल का परिचय देते हुए अपनी सेना की एक छोटी टुकड़ी स्याहीदेवी जैसे ऊँचाई वाले स्थल पर अधिकार के लिए भेजी व बड़ी टुकड़ी के साथ कुम्पुर के किले पर आक्रमण किया। गोरखों ने स्याही देवी की ओर सेना जाते देखा तो अपने को घिरते पाया। अतः कुम्पुर के किले को गोरखों स्वयं आग लगाकर भाग गए। 24 मार्च 1914 तक अंग्रेजी सेना कट्टारमल होती अल्मोड़ा से 7 मील दूर सिटोली पहुँच गई।

काली कुमाऊँ की ओर से हेरसी ने कैलाघाटी के दो किलों पर कब्जा कर लिया। महारा नेता बहादुर सिंह के अधीन भेजी सेना की टुकड़ी कुमाऊँ की प्राचीन राजधानी चंपावत पहुँच गई। हेरसी ने 500 सैनिकों की टुकड़ी बिलारी में हस्तिदल चौतरिया को शारदा नदी पार करने से रोकने के लिए छोड़ी। चंपावत पहुँचकर हेरसी ने अमानखाँ के सेनापतित्व में डोटी के पदच्यूत राजा पृथ्वी पतशाह के साथ डोटी आक्रमण के लिए भेजा। गोरखों ने ब्रह्मदेव मंडी के पास हेरसी की सेना पर आक्रमण किया किन्तु उन्हें पीछे हटना पड़ा। इस युद्ध में पृथ्वीशाह घायल हुए और उन्हें पीलीभीत भेज दिया गया। 31 मार्च को हस्तिदल ने चंपावत से 20 मील पहले कुसुमगाढ की घाटी से अपनी सेना सहित काली नदी पार कर ली। दिगाली चोड़ नामक स्थान पर कैप्टन हेरसी की पराजय हुई और वह बंदी बना लिया गया। हेरसी की पराजय एवं बन्दी बनाए जाने की सूचना से अंग्रेज सकते में आ गए किन्तु गोरखों ने गार्डनर की सेना पर आक्रमण में तत्परता नहीं दिखाई। लार्ड हेस्टिंग्स ने 2025 सैनिकों की प्रशिक्षित सेना गार्डनर की सहायता को भेजी। कर्नल निकोलस ' जो उस समय अंग्रेजी सेना के क्वार्टर मास्टर जनरल थे। उन्होने अल्मोड़ा पहुँचकर सारी सेना का संचालन संभाला। गोरखे हस्तिदल की विजय का लाभ उठाने में असफल रहे। अंग्रेजो ने बमशाह से लिखापढ़ी के साथ-साथ अपनी स्थिति मजबूत की। बमशाह को कहीं से कोई मदद न आते दिख रही थी अतः उन्होंने हस्तिदल को गणनाथ की ओर भेजा। गोरखा इस पहाड़ी पर कब्जा जमा भी न पाये थे कि अंग्रेजी सेना पहुँच गई। मेजर पैटन ने गोरखों पर हमला कर दिया। 23 अप्रैल को गणनाथ की पहाड़ी पर हुए इस भयंकर युद्ध में गोरखों का एक मोती हस्तिदल चौतरिया हमेशा के लिए विलुप्त हो गया। बारूद के एक हेण्डग्रेनेट के सिर पर लगने से हस्तिदल की मृत्यु हो गई। उनके स्थान पर जयरखों ने कमान संभाली किन्तु शीघ्र ही वह भी मारा गया। नेतृत्वविहीन हुई सेना तितर-बितर हो गई। पैटन ने एक टुकड़ी गणनाथ में रखी एवं शेष सेना को लेकर कटारमल लौट आया।

हस्तिदल एक होशियार, फुर्तीला तथा समझदार गोरखा सेनापति होने के साथ-साथ तत्कालीन नेपाल नरेश का चाचा भी था। उसकी बहादुरी के चर्चे कर्नल निकोलस ने अपने युद्ध कालीन पत्र व्यवहार में बहुत की थी। हस्तिदल की मृत्यु का लाभ लेने के विचार से निकोलस ने 25 अप्रैल 1815 को अल्मोड़ा पर चढ़ाई कर दी। गोरखा सेना का बड़ा हिस्सा सेनापति अंगद के अधीन सिटोलीधार में आधारित था। द्वितीय भाग चामू भण्डारी की कमान में दाहिने छोर से नगर की रक्षा के लिए स्थापित किया गया। सिटोलीधार पर अंग्रेजो ने दो तरफ से धावा बोला एवं गोरखों को भागने को विवश कर दिया। गोरखा सैनिक अल्मोड़ा की ओर भाग रहे थे और पीछे-पीछे अंग्रेजी सेना थी। उस रात्रि निकोलस ने हीराडुंगरी की पहाड़ी पर डेरा डाला। उसी रात्रि गोरखों ने एक जबरदस्त हमला किया और अपनी खुकरियों से अंग्रेजी सेना में हाहाकार मचा दिया। चामू भण्डारी ने अंग्रेजो को मात दे दी होती यदि निकोलस व गार्डनर स्वयं वहाँ नहीं होते। दोनों अंग्रेज सेनापतियों ने स्वयं बड़ी सेना ले जाकर हमला रोका। दोनों ओर से इस रात्रि अभियान में बड़ी संख्या में जाने गई। कर्नल निकोलस ने रात को ही लन्डोरी सेना को लालमंडी के किले से 70 गज की दूरी पर तोपों के साथ खड़ा कर दिया।

प्रातःकाल होते ही अंग्रेजी सेना ने किले पर गोलीबारी आरम्भ कर दी। किले की दीवारें ढहने लगी। अन्ततः मदद की कोई उम्मीद न देख बमशाह ने सन्धि संदेश भेज दिया। कर्नल गार्डनर को बमशाह के साथ बातचीत के लिए भेजा गया। 26 अप्रैल को तय हुआ कि गोरखा सभी किलों पर अधिकार छोड़ कर कुमाऊँ से चले जायेगें। अंग्रेजो ने गोरखों को अपने अस्त्र-शस्त्र एवं निजी सम्पति के साथ काली नदी पार जाने की अनुमति दे दी। 27 अप्रैल 1815 को संधिपत्र पर गोरखों की ओर से बमशाह, चामू भंडारी तथा जसमर्दन थापा और अंग्रेजों की ओर से राजनैतिक एजेण्ट इ० गार्डनर ने हस्ताक्षर किये। उसी दिन लालमंडी का किला खाली करवा दिया गया और उसका नाम फोर्ट मोयरा रखा गया एवं राजसी ढंग से अंग्रेजो ने किले का प्रबन्ध संभाला।

28 अप्रैल को बमशाह ने कर्नल निकोलस से भेंट की। अंग्रेजो ने गोरखा वीरता का सम्मान करते हुए उन्हें तोपों की सलामी दी। बमशाह ने एक पत्र अमर सिंह थापा को लिखा जो इस समय पश्चिम में जनरल ऑक्टरलोनी से युद्धरत था। पत्र में उसने कुमाऊँ में गोरखा राज्य के अंत एवं उसे भी सर्मपण कर वापस नेपाल चलने का अनुरोध था। अतः 15 मई 1815 तक अमर सिंह थापा ने भी सर्मपण कर दिया। इस प्रकार शिमला से लेकर सिखम तक के गोरखा साम्राज्य का अवसान हो गया।

आंग्ल-गोरखा सर्धि

27 अप्रैल 1815 ई0 को गार्डनर एवं बमशाह, चामू भंडारी एवं जशमर्दन थापा की उपस्थिति में आंग्ल गोरखा सन्धि सम्पन्न हुई। इस सन्धि में गोरखों द्वारा कुमाऊँ के सभी किलों पर अधिकार छोड़कर सम्पूर्ण कुमाऊँ को अंग्रेजों के हाथ सुपुर्द करने का प्रस्ताव था और साथ ही गोरखों को अपने अस्त्र-शस्त्र, निजी सम्पति इत्यादि के साथ काली पार सुरक्षित जाने का मार्ग दिये जाने का प्रस्ताव शामिल था। तदनुसार 30 अप्रैल से गोरखों ने कुमांऊ छोड़ना प्रारम्भ कर दिया था। इस सन्धि की शर्तों की पुष्टि नेपाल सरकार को करनी थी। यद्यपि कुमाऊँ एवं सतलज-यमुना के मध्य का क्षेत्र अंग्रेजो को हस्तगत हो गया था। परन्तु 27 अप्रैल की इस सन्धि की पुष्टि 4 मार्च 1916 ई0 तक नहीं हो पाई। नेपाल पहुंचते ही थापा दल ने संधि की पुष्टि करने से इन्कार कर दिया।

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