उत्तराखण्ड में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् पत्रकारिता.

उत्तराखण्ड में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् पत्रकारिता

स्वतंत्रता पूर्व उत्तराखण्ड से प्रकाशित समाचार पत्रों में, 'शक्ति' तथा 'जागृत जनता' (अल्मोड़ा) 'कर्मभूमि' (गढ़वाल) 'गढवाली' (देहरादून), तथा द हेराल्ड वीकली व 'द मंसूरी टाइम्स' (मंसूरी) आदि कुछ ही ऐसे समाचार पत्र थे जिन्हें 15 अगस्त सन् 1947 की स्वतंत्र प्रभात बेला में सांस लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मंसूरी से प्रकाशित 'द हेराल्ड वीकली' व 'द मंसूरी टाइम्स' जश्न मनाने के पश्चात् शीघ्र ही बन्द होने वाले पत्रों में प्रमुख रहे। इसके अतिरिक्त कुछ समाचार पत्र ऐसे भी थे

जिन्होंने सन् 1947 को स्वतंत्रता का जश्न तो नहीं देखा पर उन्हें एक स्वतंत्र देश में पुनः प्रकाशित होने का अवसर प्राप्त हुआ, उनमें समता 'स्वाधीन प्रजा' (शीघ्र ही प्रकाशित हुए), 'दून समाचार' (देहरादून), 'द मंसूरी टाइम्स' व मेफिसलाइट' (मंसूरी) (लम्बे अन्तराल बाद पुनः प्रकाशित), प्रमुख रहे। वर्तमान में हमारे बीच औपनिवेशिक शासन में पत्रकारिता का एकमात्र जीवित साक्षी 'शक्ति' (अल्मोड़ा) नामक समाचार पत्र है जो अब जीवनकाल में वृद्धावस्था के समान शक्तिहीन तथा दीन अवस्था में किसी प्रकार चल रहा है।

15 अगस्त 1947 को अंग्रेज भारत देश छोड़कर चले गये, किन्तु उससे पहले कि देश आजादी का जश्न मना पाता, समूचा भारत साम्प्रदायिकता की आग में झुलसने लगा। पूरे विश्व को धर्म निरपेक्षता का ज्ञान देने वाले हमारे देश को अंग्रेज जाते-जाते दो धर्मों (हिन्दू व मुसलमान) में विभाजित कर गये। लगभग पांच महीनों तक देश इस साम्प्रदायिकता को झेलता रहा जिसमें लाखों हिन्दू व मुसलमानों को अपने गवाने पड़े। उस समय देश में चारों ओर बेचैनी असुरक्षा भय तथा अव्यवस्था की स्थिति थी। अतः ऐसे में पत्रकारिता का ध्यान किसे रहता। उत्तराखण्ड भी इस स्थिति से बचा न रहा। फिर भी 15 अगस्त को 'युगवाणी' का प्रथम अंक देहरादून से प्रकाशित हुआ। इसके कुछ समय पश्चात् रानीखेत से स्वतंत्रता सेनानी जयदत्त बैला ने 'प्रजाबन्धु' नामक एक साप्ताहिक का प्रकाशन किया। इसके अतिरिक्त इन 5 महीनों में देहरादून से मात्र एक अंग्रेजी साप्ताहिक 'वायस ऑफ द दून तथा धार्मिक मासिक पत्रिका 'सर्व हितकारी' का ही प्रकाशन हुआ।

स्वतंत्रता के पश्चात् प्रारम्भिक पांच वर्ष पत्रकारिता की दृष्टि से सामान्य ही रहे। अब देश स्वतंत्र था। इन प्रारम्भिक 5 वर्षों में देहरादून से 'हिमाचल' मंसूरी से 'फन्टियर मेंल' हिमाचल टाइम्स (अंग्रेजी), देश सेवक' (उर्दू), 'नन्ही दुनिया' (बाल पत्रिका) 'अँगारा' (गढ़वाली सांस्कृतिक मासिक पत्रिका), 'राम सन्देश (अध्यात्मिक धार्मिक मासिक पत्रिका) तथा 'चेतावनी' जैसे साप्ताहिक प्रकाशित हुए। उत्तराखण्ड में अपने समय के चोटी के पत्रकार रहे अमीरचन्द बम्बवाल, सतपाल पाँधी, खुशदिल, सत्यप्रसाद रतुड़ी तथा लेखराज 'उल्फत' आदि ने पत्रकारिता के क्षेत्र में इसी अवधि में पदार्पण किया।

अगले 5 वर्षों में देश की बदलती हुई परिस्थितियों तथा राजनैतिक परिवर्तनों का सर्वाधिक प्रभाव पत्रकारिता पर पड़ा। अब पत्रकारिता वाद की ओर चलने लगी तथा विवाद उसके पीछे । सन् 1952 से 57 के मध्य सर्वाधिक 25 समाचार पत्र देहरादून से प्रकाशित हुए जबकि गढ़वाल से 5, अल्मोड़ा से 2, टिहरी गढ़वाल, चमोली, काशीपुर व नैनीताल से 1-1 समाचार पत्र प्रकाशित हुए। स्वतंत्रता के पश्चात् पहला दशक पूरा होते-होते उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का स्वरूप स्पष्ट होने लगा था। अधिकांश पत्र कांग्रेसवादी थे, कुछ भाषाई व अन्य विषयों को छोड़ दे तो अब पत्रकारिता राजनीति केन्द्रित हो चली थी। इसी समय पहली बार नेत्रहीनों के लिए ब्रेल साहित्य छपना प्रारम्भ हुआ।
रचनात्मकता की दृष्टि से देखे तो सन् 1966-77ई0 के मध्य का कालखण्ड उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के उत्कर्ष का काल माना जा सकता है। क्योंकि यही वो कालखण्ड है जब उत्तराखण्ड में राजनीति से इतर सामाजिक सारोकार रखने वाले समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इस अवधि में प्रकाशित होने वाले पत्र वास्तव में उत्तराखण्ड के पत्र थे। वे उत्तराखण्ड की भौगालिक, सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों तथा उनसे जुड़ी हर छोटी से छोटी समस्या की जानकारी रखते थे। इन पत्रों ने देश-प्रदेश की राजनीति के स्थान पर स्थानीय सामाजिक मुददों को प्राथमिकता दी तथा इनका रचनात्मक दृष्टिकोण से विश्लेषण किया। इस अवधि में मसूरी से 'सीमान्त प्रहरी' 'दमामा' 'मंसूरी सन्देश' तथा कमेन्टेटर' देहरादून से 'जनलहर', 'हिमानी', 'देहरा क्रानिकल' तथा 'द नार्दन पोस्ट' आदि ऋषिकेश से-हिमालय की आवाज', टिहरी से टिहरी टाइम्स', 'तरूण हिन्दी', 'उत्तराखण्ड', उतरकाशी से 'पर्वतवाणी' 'गढ़ रैबार', चमोली से 'उत्तराखण्ड आब्जर्बर', 'अनिकेत', कोटद्वार (गढ़वाल) से 'मस्ताना मजदूर', 'गढ गौरव', पौड़ी से 'पौड़ी टाइम्स' तथा 'गढ़वालमण्डल', लैसडौन से 'अलकनन्दा' (मासिक) तथा दोगड्डा से राष्ट्रीय ज्वाला' (त्रैमासिक) श्रीनगर से 'मातृपद' आदि समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता के पश्चात् जिन आंचलिक क्षेत्रों से पत्र प्रकाशन बन्द हो गया था, उन क्षेत्रों से पुनः प्रकाशन इस काल में प्रारम्भ हो गया था जैसे-पिथोरागढ़ से 'पर्वत पियूष' बागेश्वर से 'बागनाथ' अल्मोड़ा से 'स्वाधीन प्रजा', द्वारहाट से 'द्रोणाचल प्रहरी', रानीखेत से कुँजराशन' तथा नैनीताल से 'सन्देश सागर', 'उत्तराखण्ड', 'खबर संसार' तथा 'लोकालय' आदि।

इस कालखण्ड में अपेक्षाकृत वामपंथी समाचार पत्रों का प्रकाशन अधिक संख्या में हुआ किन्तु इनमें अधिकांश स्वीकार्यता के अभाव में अल्पजीवी रहे। सन् 1955 में काशीपुर से प्रकाशित 'जन जागृति' नामक पत्र यहाँ से प्रकाशित होने वाला पहला तथा 'नया जमाना' (1957) दूसरा जनवादी पत्र था। सन् 1974 में गढ़वाल के एक युवा क्रान्तिकारी पत्रकार कृपालसिंह रावत 'सरोज' ने ऋषिकेश छिद्दरवाला से 'लपराल' ('छपराल' एक गढ़वाली शब्द जिसका शाब्दिक अर्थ 'लंपट' होता है) नामक एक पाक्षिक पत्र प्रकाशित किया। इसके माध्यम से उन्होंने क्षेत्रीय किसानों, मजदूरों तथा नवयुवकों की आवाज बुलन्द की।

धर्म व आध्यात्म आधारित प्रकाशन में साधू समाज का महम्वपूर्ण व आदरणीय योगदान रहा। इनमें राम सन्देश, गीता सन्देश, चरित्र निर्माण, परमार्थ मण्डल, गायत्री दर्शन, ज्ञानमाला, मानस सन्देश तथा यात्री पथ नामक पत्रिकाएँ प्रमुख थी। इनका प्रकाशन केवल देहरादून व ऋषिकेश से होता था।

पिछले सदी के आठवें दशक के बाद समाज का मार्गदर्शन करने वाली राजनीति तथा मार्गदर्शक की भूमिका निभाने वाले राजनेता दोनों के आदर्शों में पर्याप्त गिरावट आयी जिसका सीधा प्रभाव समाज के हर वर्ग पर पड़ा। भ्रष्टाचार ने देश में अपनी जड़ें इस प्रकार जमा ली कि आज देश का प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ अर्थोपार्जन में जुटा है फिर चाहे उसके लिए उसे कुछ भी क्यों न करना पड़े अथवा कितना ही नीचे क्यों न गिरना पड़े। अतः पत्रकारिता भी इन सब से अछूती कैसे रह सकती थी। स्वतंत्रता के कुछ समय पश्चात् पत्रकारिता राजनीति केन्द्रित तो हो ही गई थी  
और जब राजनीति का ही स्तर गिर गया तो पत्रकारिता के स्तर में गिरावट आना स्वाभाविक था। नये दौर की पत्रकारिता नई परिभाषाओं, नये अर्थों व नये मूल्यों को लेकर गढ़ी जाने लगी। नये दौर की पत्रकारिता नई सोच के अनुसार चल पड़ी। अब पत्रकारिता समाज सेवा तथा मिशनरी की भावना से दूर केवल व्यवसायोन्मुखी व अर्थोपार्जन का प्रमुख साधन बन गई। समाचार पत्रों में सामाजिक व रचनात्मक समाचारों का स्थान अब विज्ञापनों को मिलने लगा। संविधान द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में शिक्षित, अल्पशिक्षित, अप्रशिक्षित, बेरोजगार, महत्वकांक्षी तथा साधन सम्पन्न आदि जिसका मन आया पत्रकार व सम्पादक बन 4-6 पृष्ठों के साप्ताहिक, दैनिक मासिक व पाक्षिक पत्र छापने लगे तथा जब कभी अखबार सम्बन्धी नियम रोडा बना तो किसी राजनैतिक पार्टी से अथवा नेता की शरण लेकर बच गये। इस प्रकार इन नाममात्र के पत्रकारों का काम चलता रहा तथा समाचार पत्र व पत्रकारों की संख्या में दिनदूनी रात चौगुनी वृद्धि होती गई।

आठवें दशक के बाद, आम जनता की पहुँच रेडियो व टी० वी० तक होने के पश्चात् सूचनाओं व समाचार पत्र की दुनिया पर रेडियो, दूरदर्शन, अन्य दर्जनों समाचार चैनलों तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का अधिकार होने लगा। अब धीरे-धीरे देश का अधिकांश पत्रकारिता क्षेत्र बड़े व मंझोले पूँजिपतियों के हाथों में चला। चूंकि सरकार को चुनाव के समय इन्हीं पूजीपतियों का सहारा होता था। अतः सरकार बनने पर इन पूंजिपतियों को भी मनमानी करने की छूट मिल जाती। इसका सर्वाधिक प्रभाव आंचलिक व क्षेत्रीय समाचार पत्रों पर पड़ा। उत्तराखण्ड की आवाज कहे जाने वाले क्षेत्रीय व आंचलिक साप्ताहिक पत्र-पत्रिकाओं का स्थान अब समाचार चैनलों ने ले लिया है। वर्तमान में राज्य की राजधानी से प्रकाशित होने वाले अब नाम मात्र के पत्र रह गये है जो उत्तराखण्ड के मूल निवासियों द्वारा सम्पादित व प्रकाशित होते हैं। स्वतंत्रता पश्चात् देश में पत्रकारिता का व्यवसायीकरण होने लगा, अब यह अर्थोपार्जन का साधन मात्र बनकर रह गया है। उत्तराखण्ड में भी पत्रकारिता का लगभग यही हाल है, यहाँ पढ़े जाने वाले अधिकांश समाचार पत्र देश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों द्वारा सम्पादित व प्रकाशित होते है। अन्य शब्दों में कहे तो उत्तराखण्ड-वासी अब इन आयातित समाचार पत्रों के आदी हो गये है। चूंकि अब क्षेत्रीय व आंचलिक समाचार पत्रों का उत्तराखण्ड के समाज व संस्कृति से विशेष सरोकार नहीं रह गया। आंचलिक समाचार पत्र भी अब शेष आयातित पत्रो की राह पर चल पड़े हैं। अतः आम जन भी अब इन्ही पूंजीवादी समाचार पत्रो को पढ़ना पसन्द करता है।

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का आद्योपांत अध्ययन, सर्वेक्षण, विश्लेषण व मूल्यांकन के फलस्वरूप यह निष्कर्ष सामने आया कि 19वीं सदी के मध्याहन में जब उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का जन्म मात्र अंग्रेजी नीतियों के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से हुआ था तब कोई नहीं जानता था कि बीसवीं सदी के प्रारम्भ होते ही यह पत्रकारिता उत्तराखण्ड में स्वाधीनता की आग में घी के समान कार्य करेगी। उत्तराखण्ड में चलने वाले स्वतंत्रता आन्दोलन में पत्रकारिता का अतुलनीय योगदान रहा। स्वतंत्रता के पश्चात् इसकी आक्रामकता में कमी आयी तो आंचलिक बुद्धिजीवियों ने इसका रूख सामाजिक- सांस्कृतिक सृजन की ओर मोड़ दिया। धीरे-धीरे उत्तराखण्ड की पत्रकारिता का स्वरूप पूर्णतया रचनात्मक हो गया। किन्तु आठवें दशक के पश्चात् पृथक राज्य की मांग के साथ यहाँ की पत्रकारिता में एक उबाल-सा आया। अब उत्तराखण्ड की पत्रकारिता भी राष्ट्रीय पत्रकारिता की मुख्य धारा के पद चिन्हों पर चलने लगी। यदि अपवादों को छोड़ दे तो यहाँ की 87 प्रतिशत पत्रकारिता नेता और नौकरशाही से प्रभावित है। व्यावसायीकरण और राजनीति की चरण वंदना आज के समय की मांग हो गई है। यदि कोई पत्र, पत्रिका अथवा पत्रकार इनकी अवहेलना करता है तो उसका स्वयं का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। देश की धड़कनों का प्रतिनिधित्व करने वाली पत्रकारिता के समक्ष इसके अतिरिक्त कोई रास्ता अब शेष नहीं है। 

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