जगतचंद के पश्चात् चंद वंश की अवनति प्रारम्भ

जगतचंद के पश्चात् चंद वंश की अवनति प्रारम्भ
चंद वंश का पतन


जगतचंद के पश्चात् चंद वंश की अवनति प्रारम्भ हो जाती है। यद्यपि जगतचंद के पश्चात् उसका पुत्र देवी सिंह गद्दी पर बैठा। झिंझाड़ एवं बरम ताम्रपत्र में उसे महाराज कुमार कहा गया है अर्थात् उसे पिता के काल से ही प्रशासन का पर्याप्त अनुभव था। लेकिन राजा बनने के बाद सम्भवतः वह चाटुकारों से घिरा रहने लगा। उसे उत्तराधिकार में प्रभुत्त धन सम्पदा मिली थी। उसके चाटुकार सलाहकारों ने उसे कुमाऊँ का विक्रमादित्य बनने का सपना दिखाया। अपने चाटुकार सलाहकार मानिक बिष्ट और पूरनमल बिष्ट के कहने पर उसने सारा खजाना लूटा दिया। स्वयं को विक्रमादित्य तुल्य समझ उसने एक नया सम्वत् भी चलाना चाहा। कुछ विद्वानों ने उसे कुमाऊँ के मुहमद तुगलक की संज्ञा भी दी है।

इसके समय में गढ़राज्य ने पिण्डर घाटी पर पुनः आधिपत्य स्थापित किया। इतना ही नहीं बल्कि गढ़वाली सेना कत्यूर घाटी में बैजनाथ तक पहुँच गई थी। बैजनाथ मन्दिर के समीप रणचूल मैदान में हुए युद्ध में कुमाऊँनी सेना ने विजय प्राप्त की। सम्भवतः उसने इसके बाद श्रीनगर जीतने का असफल प्रयास किया। अपनी हार की झुंझलाहट छुपाने के लिए उसने एक पहाड़ी की चोटी को विजित दिखा उसका नाम फतेहपुर रख उत्सव मनाया।

अतः चंद वंश को अधंकार के बादलों ने देवीचंद के समय से ढकना शुरू किया। देवीचंद की मूर्खता के कारण उसके एक उत्तराधिकारी कल्याण चंद को मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला को भेंट देने के लिए जागेश्वर मन्दिर से ऋण लेना पड़ा था।

देवीचंद के ब्राह्मण सलाहकार उसे मूर्ख बनाते रहे और अपना खजाना भरते रहे। अपने मन की ईच्छापूर्ति के लिए उसने रूहेला सरदार दोउद खान को अपना सेनापति नियुक्त कर दिया। अपनी इस धुन में उसने मुगल बादशाह को भी अप्रसन्न किया। शाबिर शाह जो तैमूर का वंशज बताकर स्वयं को दिल्ली की गद्दी का वारिश कह रहा था। देवीचंद सैन्यबल के साथ शाबिर की सहायता करने निकल पड़ा, मुहम्मदशाह रंगीला ने अजमत-उल-अल्लाह को इस विद्रोह को दबाने के लिए भेजा। नगीना के आस-पास दोनों सेनाएँ आपने-सामने थी किन्तु युद्ध से पूर्व ही अजमत ने दोउद खां को अपनी ओर मिला लिया। कुमाऊँनी सेना को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा और देवीचंद जान बचाकर ठाकुरबाड़ा पहुँचा। दोउद खां भी उसके पीछे-पीछे हर्जाना वसूल करने ठाकुरबाड़ा पहुँच गया। अपनी प्रकृति के विरुद्ध देवीचंद ने ना समझ बनते हुए दोउद को बकाया लेने के लिए आमंत्रित किया और दोऊद और उसकी सेना को पकड़कर हत्या करवा दी।

राजधानी अल्मोड़ा पहुँचने पर उसने स्वयं को धोती और गढ़राज्य के आक्रमण से घिरा पाया। धोती के पूर्वी आक्रमण को उसने कुछ धन देकर रोका लेकिन गढ़राज्य की बढ़ती हुई सेनाओं की अनदेखी की कर वह देवीपुर मौज-मस्ती करने चला आया। उसके चाटुकार सलाहकार यहाँ पहले से मौजूद थे जिन्होंने एक षडयंत्र के तहत 1726 ई0 में उसकी हत्या करवा दी और खबर फैला दी कि साँप के काटने से देवीचंद मर गया चूँकि देवीचंद का कोई उत्तराधिकारी नहीं था इसलिए मानिक बिष्ट ने सत्ता अपने हाथों में ले ली।

अब इन सलाहकारों ने कठपुतली शासक गद्दी पर बिठाएँ ताकि वास्तविक सत्ता उनके हाथों में बनी रहे। सर्वप्रथम इन्हें कटेहर के राजा नरपत सिंह का बेटा अजीत सिंह जिसका मातुल पक्ष चंद वंश से सम्बन्धित था, को गद्दी के लिए उपर्युक्त लगा। 1726 ई0 में उसे कुमाऊँ की गद्दी पर बिठाया गया। षडयंत्रकारियों ने जनता पर अत्याचार करने प्रारम्भ किए। जब उन्हें प्रतीत हुआ कि अजीत सिंह को उनके काले कारनामों का आभास होने लगा है तो उसकी भी हत्या करवा दी गई। इसके पश्चात् ये कुटिल सलाहकार पुनः कटेहर के राजा से उसका दूसरा पुत्र भेजने का आग्रह करने गए तो उसने इन्कार कर दिया।

अब कुटिल सलाहकारों ने अजीत चंद की नौकरानी से उत्पन्न अवैध पुत्र बालोकल्याण चंद को गद्दी पर बिठाया। इन सलाहकारों के अत्याचार षडयंत्र जारी रहे। अन्ततः महारा और फर्त्यालों ने उन्हें चुनौती प्रस्तुत की और चंदो के वास्तविक उत्तराधिकारी की खोज शुरू की। उन्हें राजा नारायण चंद का एक वारिश मिला जो धोती राज्य के माल में गरीबी का जीवन व्यतीत कर रहा था। वे इस व्यक्ति कल्याण को राजधानी अल्मोड़ा लाए ओर उसे कल्याण चंद के नाम से गद्दी पर बिठाया।

कल्याणचंद मूलतः एक साधारण कृषक था जो दैवीकृपा से राजा बन गया था। अतः अपनी स्थिति सुरक्षित करने के लिए उसने नृशंस तरीके अपनाए। सभी षडयंत्रकारियों मानिक, पूरनमल और उनके परिवारों की हत्या करवा दी। बालो कल्याण को एक मुस्लिम को दास के रूप में बेच दिया। उसने इसके पश्चात् चंद वंश के सभी संभावित वंशज रोतैला इत्यादि के सम्पूर्ण नाश का आदेश दे दिया। उसने गुप्तचर संस्था की स्थापना की जिसका और भी बुरा प्रभाव प्रशासन व सामान्य जनता पर पड़ा। राजा के गुप्तचर आधिकांशतः ब्राह्मण थे। इन्होंने अपने विरोधियों को नष्ट करने के लिए उसका प्रयोग किया।

इसका एक उदाहरण है कि भवानीपति पांडे नाम के गुप्तचर ने राजा को सूचना दी कि कुछ ब्राह्मण राजा के खिलाफ षडयंत्र कर रहे है तो कल्याण चंद ने उन सभी को अन्धा करने का आदेश दे दिया एवं उनके खास संरक्षक को मारकर सुआत नदी में फिकवाँ दिया। संयोग से इनमें से एक कान्तु जोशी बचकर गढ़वाल भाग गया। अतः कल्याण चंद हमेशा गुप्तचरों के मध्य ही रहा। उसने कभी भी शासन एवं योग्य राज्यपालों की नियुक्ति की ओर ध्याान ही नहीं दिया। इसके द्वारा नियुक्त तराई के राज्यपाल शिवदेव जोशी ने अपनी योग्यता से क्षेत्र में अनुशासन स्थापित किया और सफदरजंग के तराई आक्रमण को भी निष्फल किया।

हिम्मत गोसाई नाम का रौतेला युवक जोकि कल्याण सिंह के प्रकोप से बच निकला था। उसने एक सेना एकत्रित कर कुमाऊँ पर आक्रमण किया। यद्यपि कल्याण चंद ने उसे काशीपुर के युद्ध में परास्त करने में सफल रहा। हिम्मत ने रूहेला सरदार अली मुहमदखाँ की शरण ली। यहाँ भी उसे कल्याण चंद के गुप्तचर मारने में सफल रहे। इस प्रकार अन्तिम चंद प्रतिद्वन्धी भी समाप्त हो गया।

रूहेला सरदार इससे बड़ा कोधित हुआ क्योंकि इससे पूर्व भी कुमाऊँ राजा ने उसके संरक्षण में दोऊद खान की नृशंसतापूर्वक हत्या की थी। उसने कुमाऊँ नरेश को दण्डित करने के लिए हाफिज रहमान खान, पांईदा खान और बक्शी सिरदरखान के नेतृत्व में 1743-44 ई0 में दस हजार की सेना के साथ कुमाऊँ आक्रमण के लिए भेजा। शिवदेव जोशी की सहायता की माँग को कल्याणचंद ने अनदेखा किया। फलतः रूद्रपुर के युद्ध में शिवदेव को मुँह की खानी पड़ी और वह जान बचाकर बाराखेड़ी चला गया। रूहेला कहर के सामने कुमाऊँ के गढ एक-एक कर ढहते चले गये। रूहेला सेना ने अन्ततः अल्मोडा पर कब्जा कर लिया। कल्याण चंद भागकर गैरसैंण पहुँचा और गढ़राज के शासक प्रदीपशाह से संरक्षण मांगा। गढ़नरेश ने अपनी पारम्परिक शत्रुता को भुलाकर न केवल कल्याण चंद को संरक्षण प्रदान किया बल्कि रूहेलों के विरूद्ध सैन्य मदद का भी आश्वासन दिया।

नृशंस रूहेलों ने यहाँ-वहाँ घूम-घूम कर सम्पूर्ण कुमाऊँ में तांडव किया। मन्दिरों की वेदियों को गाय के खून से भरकर, मूर्तियों की नाक नष्ट कर और सोने चांदी की मूर्तियां एवं आभूषण गलाकर चारों ओर दहशत पैदा कर दी थी। ऐसी मान्यता है कि लूटेरे तो जागेश्वर मन्दिर को भी तोड़ना चाहते थे किन्तु मधुमक्खियों के भय से वे ऐसा न कर पाये। उन्होंने अल्मोड़ा के आरकाईबस और मन्दिरों को जलाया।

इसके पश्चात् गढ़वाल तथा कुमाऊँ ने संयुक्त अभियान के पश्चात् दूनागिरि और द्वारहाट पर पुनः कब्जा करने में सफल हुए लेकिन इस संयुक्त अभियान में उन्हें कैराऊ के निकट रूहेलों ने करारी शिकस्त दी एवं गढनरेश को श्रीनगर आकमण की चेतावनी मिली। अतः प्रदीपशाह ने कल्याण चंद की ओर से तीन लाख रूपये युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में देकर समझौता करवा लिया। इस प्रकार सात माह इस दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में रहने के बाद रूहेला लौट गये।

कल्याणचंद इसके बाद रूहेलों की शिकायत लेकर दिल्ली दरबार पहुँचा। इस अवसर पर वह जागेश्वर मन्दिर से मोती ऋण रूप में लेकर गया। यह ऋण बाद में आठ ग्राम मन्दिर को दान देकर चुकाया गया। मुहमदशाह रंगीला ने न केवल कल्याण चंद का स्वागत किया बल्कि तराई क्षेत्र की सनद पुनः प्रदान की। दिल्ली जाते हुए मार्ग में काशीपुर में उसे मुगल वजीर कमरूद्दीन के द्वारा गार्ड ऑफ ऑनर भी दिया गया। कमरूद्दीन ने इस समय गढ़मुक्तेश्वर में अपना सैन्य कैम्प लगाया था।

अपनी वापसी में कल्याणचंद ने खेमें में पहुँचकर कमरूद्दीन से भेंट की किन्तु अपनी प्रकृति के अनुसार पुनः सफदरजंग से भेंट करना मुनासिब नहीं समझा जिसका कैम्प भी पास ही लगा था। इसे अपना अपमान मानकर सफदरगंज ने तराई क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया। तराई के राज्यपाल शिवदेव का यह तर्क की मुगल बादशाह ने तराई क्षेत्र पुनः कुमाऊँ राज्य को प्रदान किया है कुछ काम न आया। अवध के चकलादार तेजगौर के नेतृत्व में भेजी सफदरजंग की सेना से शिवदेव पराजित हुआ। शिवदेव को एक वर्ष बन्दी रखने के बाद मुगल बादशाह के हस्तक्षेप पर मुक्त किया गया।

शिवदेव ने पुनः स्थिति प्राप्त करने के बाद सर्वप्रथम काशीपुर एवं रूद्रपुर में किलों का निर्माण करवाया। उसने विन्सर ग्राम को ग्रीष्मकालीन पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया और 
यहाँ विन्सर महादेव का मन्दिर बनवाया। इसी स्थल पर 18वीं शताब्दी में यूरोपियों ने क्षय रोग चिकित्सालय बनवाया। अपने जीवन के अन्तिम समय में कल्याणचंद की आँखों की रोशनी जाती रही। उसने अपने पुत्र दीपकचंद को 1747 ई0 में गद्दी सौंप दी। शिवदेव को अल्मोड़ा वापस लाया गया और प्रशासन की बागडोर सौंपी गयी।

दीपचंद उदार प्रवृत्ति का व्यक्ति था। इस समय राज्य बुरे दौर से गुजर रहा था। अतः उसने शिवदेव पर अधिक भरोसा किया। सामान्य जनता की खुशहाली लौट रही थी। कृषकों पर भू-राजस्व की दर निम्नतम् उत्पादन का छठवाँ भाग कर दी गई। इसके समय में जागेश्वर मन्दिर का ऋण आठ ग्रामों की भूमि दान कर चुकाया गया। इसके काल में रिकॉर्ड संख्या में भूमि दान में दी गई। एटकिन्सन महोदय के अनुसार ऐसा राजा पर पुरोहित प्रभाव के कारण हुआ।

शिवदेव जोशी ने ईमानदारी और निष्पक्षता से प्रशासन चलाया। अयोग्यता के कारण उसने स्वयं अपने पुत्र जयकिशन और भतीजे हरिराम जोशी को उनके पदों से हटाया। अधिकतर भूमिदान मन्दिरों को दिए गए, केवल 11 ब्राह्मणों को भूमिदान मिला। इससे एटकिन्सन के मत को समर्थन मिलता है कि शिवदेव ईमानदार एवं निष्पक्ष था किन्तु धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने प्रशासन में सुधार के लिए योग्य एवं विश्वसनीय व्यक्तियों की नियुक्ति करवाई। हरिराम की अयोग्यता के कारण उसने उसके स्थान पर शिरोमणि दास को नियुक्त किया। सीमा सुरक्षा की दृष्टि से उसने काशीपुर एवं रूद्रपुर के किलो की सैन्य संख्या में वृद्धि की। उसने जम्मू नगरकोट, गुलेर और बिजनौर से जीविकोपार्जन के लिए आने वालों से तराई क्षेत्र में स्थायी सेना का गठन किया।

दीपचंद के काल में दिल्ली दरबार, दिल्ली से पालम तक सिमट कर रह गया। देश की राजनीति हिन्दु राष्ट्रवाद और मुस्लिम साम्राज्यवाद के मध्य संघर्षरत् थी। इसका परिणाम 1761 ई0 पानीपत का तृतीय युद्ध था। मुगल बादशाह ने दीपचंद को भी अपनी सैन्य टुकड़ी मराठों के विरूद्ध भेजने को कहा। शिवदेव ने चार हजार कुमाऊँनी सैनिक बीरबल नेगी के नेतृत्व में पानीपत भेजे। अपनी पड़ोसी रियासत के कुनबे की रक्षा के लिए उसने अपने पुत्र हर्षदेव जोशी को नजीबाबाद भेजा क्योंकि नजीबउद्दौला पानीपत के मैदान में व्यस्त था। पानीपत के मैदान में कुमाऊँनी सेना स्वयं को रूहेला सरदार हाफिज रहमत के अधीन रखे जाने पर अपमानित महसूस करने लगी। यद्यपि युद्ध में उन्होंने अपना शौर्य प्रदर्शित किया।

शिवदेव राज्य को बेहतर चला रहा था किन्तु माहरा एवं फर्त्याल स्वयं को निम्नतर महसूस कर रहे थे। अतः असंतोष जन्म ले रहा था। अपने को प्रशासन में ऊपर उठाने के लिए उन्होंने एक युवक अमरसिंह रौतेला को गद्दी के दावेदार के रूप में पेश किया। फर्त्यालों ने शिवदेव के पुत्र की अर्कमण्यता को उठाकर माहरा वर्ग को समर्थन किया। यहाँ तक की उन्होने गढ़नरेश को आक्रमण का न्यौता भी दिया। यद्यपि प्रदीपशाह ने इसे यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि दीपचंद के पिता से उसके भातृत्व सम्बन्ध थे। अतः इस नाते दीपचंद पर उसका पूर्ण अधिकार है। दीपचंद को गढ़नरेश की कुमाऊँ राज्य पर श्रेष्ठता पसन्द नहीं आई। फलतः टम्बादोण्ड नामक स्थल पर युद्ध हुआ जिसमें गढ़नरेश की हार हुई परन्तु इससे कुमाऊँ की आन्तरिक स्थिति बेअसर रही और असंतोष प्रबल होता गया।

शिवदेव के पदच्यूत भतीजे हरीराम ने भी उसके विरूद्ध विद्रोह करना चाहा किन्तु रूहेला सरदार हाफिज के सहयोग से समझौता हो गया। इसके पश्चात दानिया जोशी ने शिवदेव को हटाने का षड़यंत्र किया। परन्तु षड़यंत्र का भेद पहले ही खुल जाने के कारण इसे भी दबा दिया गया। इस बीच शिवदेव को काशीपुर आना पड़ा। तराई क्षेत्र में फर्त्यालों ने नगरकोटिया और बाहरी लोगो को अधिक मजदूरी की मांग करने और मांग न पूरी होने पर विद्रोह के लिए उकसाया था। इससे पूर्व शिवदेव कोई रास्ता निकाल पाता फर्त्यालों ने उसकी और उसके दो पुत्रो की हत्या करवा दी।

शिवदेव की हत्या से कुमाऊँ राज्य को अपूर्णनीय क्षति हुई। वह एक बुद्धिमान, कर्तव्यनिष्ठ, कूटनीतिज्ञ एवं विश्वसनीय व्यक्ति था जिसने कुमाऊँ की राज्य प्रतिष्ठा को पुर्नस्थापित करने में अपना जीवन लगा दिया। उसके आकस्मिक मृत्यु से राज्य की राजनीति में शून्य पैदा हुआ। जिसका परिणाम षड़यंत्रों, राजनीतिक हत्याओं एवं असुरक्षित राज्य के रूप में सामने आया। एक-एक कर दीवान परमानन्द बिष्ट, रानी मंजरी, जयकिशन, राजा दीपचंद और उसके पुत्र उदय एवं सुजान की हत्या कर दी गई। शिवदेव के उत्तराधिकारी हर्षदेव जोशी को कैद कर लिया गया। इस प्रकार कुमाऊँ की गद्दी का कोई वैध उत्तराधिकारी ही न रहा।

इस सबके पीछे का कुटिल मस्तिष्क मोहनसिंह नामक आदमी था। बैटन ने उसे 'दीपचंद के चचेरे भाई का जाली उत्तराधिकारी' कहा है जबकि एक स्थानीय परम्परा के अनुसार वह सिमल्खा से संदिग्ध रौतेला का वंशज था। वह रानी श्रीरंगर मंजरी की मदद से सेनापति बन गया था किन्तु अधिक दिनों तक रानी का चहेता न रहा और षडयंत्रों के माध्यम से वह राज्य का सर्वेसर्वा बन बैठा।

मोहन सिंह ने गद्दी हथियाने के पश्चात् मोहन चंद नाम से शासन प्रारम्भ किया। शिरोमणि दास की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र नन्दराम तराई का राज्यपाल बना तो मोहनचंद ने उससे समझौता करने का प्रयास किया। नन्दराम भी कुटिल मस्तिष्क का था अतः उसने मोहन सिंह की बजाय तराई क्षेत्र पर अवध के नवाब के आमिल की हैसियत से शासन करना उचित समझा। अपने को अवध के नवाब के अधीन सुरक्षित करने के पश्चात् उसने रूद्रपुर के गर्वनर की हत्या कर स्वयं को अवध के नवाब के अधीन कुमाऊँ के निचले क्षेत्र का अधिपति घोषित किया। इस प्रकार ब्रिटिश आधिपत्य तक तराई क्षेत्र का अधिकारिक अधिपति अवध का नवाब बना रहा। इस अवधि में तराई का यह क्षेत्र चोर, डाकू, लुटेरों, अपराधियों एवं भगोड़ों की शरणगाह बन गया। कानून व्यवस्था न होने कारण इस क्षेत्र के कृषकों ने भी आत्मरक्षा में हथियार उठा लिए जिसने इस क्षेत्र में लड़ाकू कृषक संस्कृति को विकसित किया।

अतः मोहन सिंह के अधीन कुमाऊँ रियासत का क्षेत्र अपने मूल रूप से आधा हो गया था जिससे तराई का उपजाऊ क्षेत्र पूर्णतः अलग हो गया। षडयंत्रो से प्राप्त मोहनसिंह का शासन भी अधिक नही चलने वाला था क्योंकि दीपचंद के परिवारजन एवं शुभचिन्तकों ने गढ़नरेश को इस स्थिति से उन्हें बाहर निकालने का आमन्त्रण दिया। धोती के तत्कालीन शासक पृथ्वीपत भी कुमाऊँ की इस स्थिति से नाखुश थे। अंततः गढ़नरेश ललितशाह ने प्रेमपति कुमारिया कि नेतृत्व में लोभागढ़ से एक सेना भेजी। मोहनचंद के नेतृत्व में कुम्मयों की सेना ने 1779 ई0 को बगवली पोखर नामक स्थान पर गढ़सेना का सामना किया। थोडे से प्रतिरोध के बाद मोहन सिंह भाग खड़ा हुआ। उसने रामपुर के पठान नवाब फैज्जुला खान की शरण ली और कुमाऊँ पर गढ़नरेश का आधिपत्य हो गया।

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