स्वतन्त्रता आन्दोलन में उत्तराखण्ड

स्वतन्त्रता आन्दोलन में उत्तराखण्ड

वस्तुतः भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन से तात्पर्य उस संघर्ष से है जो भारतीयों ने ब्रिटिश शासन से आजादी पाने के लिए किया था। अंग्रेज भारत में व्यापारी बनकर आये थे लेकिन शनैः-शनैः उनका राजनैतिक आधिपत्य सारे भारत पर हो गया। इस आधिपत्य का प्रारम्भ 1757ई0 में प्लासी के युद्ध से हुआ। बक्सर के युद्ध से इसे एक मजबूत आधार मिला। अंग्रेजी साम्राज्य के विरूद्ध प्रारम्भ से ही भारतीयों ने अपनी आवाज बुलन्द की, यद्यपि इसका स्वरूप स्थानीय एवं क्षेत्रीय प्रवृत्ति का था। ब्रिटिश शासकों की आर्थिक शोषण और दमनकारी प्रशासनिक नीतियों के कारण भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन का सूत्रपात्र हुआ। भारत की आजादी की कहानी अनगिनत बलिदानों और त्याग तपस्या की कहानी है। लम्बे संघर्ष के बाद 15 अगस्त 1947 को हमारे सपने साकार हुये और स्वाधीनता का अरूणोदय हुआ। लेकिन इस मंगल मुहूर्त तक पहुँचने के लिये हमारे स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों ने जो कीमत अदा की उसका इतिहास बहुत लम्बा और रोमांचक है।

इस संघर्ष से तत्कालीन उत्तर प्रदेश का पहाड़ी क्षेत्र उत्तराखण्ड भी अछूता नहीं रहा। स्थानीय समस्याओं तथा रहन-सहन के तौर तरीकों के कारण गढ़वाल में राष्ट्रीय आन्दोलन का स्वरूप भले ही अलग था। नालापानी के युद्ध और सिंघौली संधि के बाद उत्तराखण्ड में अंग्रेजों की संख्या में वृद्धि प्रारम्भ होने लगी। अंग्रेज बहुत ही कूटनीतिज्ञ थे। उन्होंने गढ़वाल नरेश से युद्ध का खर्च मांगा जो लगभग 5-7 लाख रूपये के आस-पास था। गढ़वाल नरेश के पास उतने रूपये न होने के कारण वह युद्ध हर्जाना अदा नहीं कर पाया। परिणामस्वरूप 1815 ई0 अंग्रजों ने गढ़-नरेश से राजधानी श्रीनगर और गढ़वाल के आधे से अधिक राज्य को ब्रिटिश राज्य में मिलाकर कुमाऊँ कमिश्नरी का हिस्सा बना दिया। गढवाल का जो भाग ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन था वह कालान्तर में ब्रिटिश गढ़वाल और जो भाग गढ़वाल राजा को प्रदान किया गया उसे टिहरी रियासत कहा गया। कालान्तर में देहरादून क्षेत्र अंग्रेजों का प्रिय स्थान बन गया। ब्रिटिश शासन के विरूद्ध भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन का सूत्रपात्र सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय हुआ। उत्तराखण्ड की जनता ने भी 1857 से लेकर 1947 तक इस स्वतंत्रता संघर्ष में भाग लिया।

इस प्रकार हम पाते है कि उत्तराखण्ड राज्य वर्ष 1815 ई0 के पश्चात् अंग्रेजों के प्रत्यक्ष नियत्रण में आया। धीरे-धीरे देश की स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन का प्रभाव यहाँ भी नजर आने लगा। आजादी के परवानों की कर्मस्थली राज्य में देहरादून, लैन्सडाउन, अल्मोड़ा एवं स्वतंत्र रियासत टिहरी इत्यादि रही। राज्य में आन्दोलन की आवाज को बुलन्द करने के लिए कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा। अध्ययन की सुविधा दृष्टि से हमने उत्तराखण्ड में स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास को दो चरणों में विभक्त किया है।

> उत्तराखण्ड में जन चेतना का विकास (1815-1920ई0) ➤ स्वतंत्रता संघर्ष में भगीदारी (1920-1947 ई0)
उत्तराखण्ड में स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रथम चरण (उत्तराखण्ड में जन चेतना का विकास)

उत्तराखण्ड में आंग्ल शासन का प्रथम चरण शान्तिपूर्ण एवं सुव्यवस्थित रहा। उन्नीसवीं शताब्दी के द्वितीय भाग में इस क्षेत्र में निरन्तर अकाल की घटानाएं घटित हुई। परिणामस्वरूप स्थानीय निवासियों का जीवन और भी दुष्कर हो गया। इस दौर में ही यहाँ से लोगों का रोजगार के लिए मैदानी क्षेत्रों को पलायन शुरू हुआ जिसने कालान्तर में मनीआर्डर अर्थव्यवस्था को जन्म दिया। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पहले इसाई मिशनरी एवं फिर आर्य समाज के प्रवेश से शिक्षा एवं सामाजिक क्षेत्र में एक हलचल उत्पन्न हुई। दयानन्द सरस्वती एवं विवेकानन्द ने इस पर्वतीय प्रदेश का व्यापक भ्रमण किया और स्थानीय जनता को राष्ट्रीय जागृति का संदेश दिया। इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। 
अंग्रेजी शासन के विस्तार के साथ इस क्षेत्र में बेगार की मांग बढने लगी जिससे स्थानीय जनता का जीवन और भी संकटमय हो गया। सर्वविदित तथ्य है कि अंग्रेज व्यापारी के रूप में भारत आए थे और सर्वदा व्यापारी ही रहे। अतः शासक बनने के बाद भी उनकी प्रवृत्ति में कोई अन्तर नहीं आया। अतः इस पर्वतीय प्रदेश की संपदा को भी उन्होंने व्यापारिक उद्देश्य से संरक्षित करना शुरू किया। इस कारण क्षेत्र में आत्मनिर्भर ग्राम व्यवस्था चरमराने लगी। शासन द्वारा 1864 ई0 में वन विभाग की स्थापना हुई और 1868 में सम्पूर्ण कुमाऊँ कमिश्नरी के वनों को इसके अधीन कर दिया गया। इस नई व्यवस्था से जनता के अधिकार सीमित हो गए और उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। यही कारण है कि 20वीं शताब्दी के द्वितीय दशक से क्षेत्र में बेगार व वन व्यवस्था के विरूद्ध जनता का असन्तोष आन्दोलन के रूप में प्रस्तुत होने लगा।

प्रथम चरण में सरकार के अनुरूप समाचारों के प्रस्तुतीकरण के लिए समय विनोद एवं अल्मोड़ा अखबार की शुरूआत हुई। उत्तराखण्ड के कई ताल्लुको में सघर्ष की आवाज 1857 से कई पहले उठने लगी थी। कुजां ताल्लुका के विजय सिंह के नेतृत्व मे 1824 ई0 में विद्रोह हुआ जिसको अंग्रेजी सेना ने बड़ी बर्बरता से दबा दिया। गढ़वाल के प्रसिद्ध चित्रकार मोलाराम की कृतियों से भी स्पष्ट होता है कि अंग्रेजी शासन भी पूर्ववती गोरखाराज के समान स्वेच्छाचारी, व्यभिचारी कृत्यों से परिपूर्ण था। उन्होंने तो इसे गोरखा आत्तयी शासन के पुनरावृत्ति की संज्ञा दी है। इस प्रकार हम पाते है कि अंग्रेजी आगमन के साथ उत्तराखण्ड में शोषण की एक नई शासन परिपाटी का शुभारम्भ हुआ। इसके कारण शनै-शनै जनता ने अपनी प्रतिकिया अंग्रेजी साम्राज्य के विरूद्ध प्रारम्भ की। 1857 के विद्रोह के समय जिसकी एक झलक स्पष्ट रूप से दिखाई दी।

टिप्पणियाँ