प्रथम चरण की कुछ महत्वपूर्ण घटनाएँ
गढ़वाल यूनियन अथवा गढ़वाल हितकारिणी
तारादत्त गैरोला जो एक प्रथम श्रेणी के वकील थे, ने गढ़वाल की समस्याओं को दूर करने के लिए 19 अगस्त सन् 1901ई0 को 'गढ़वाल यूनियन' अथवा 'गढ़वाल हितकारिणी-सभा' की स्थापना की। इनके साथ ही गढ़वाल के कुछ नवयुवक भी यूनियन के प्रचार-प्रसार के लिये तथा उसके कार्यों को विस्तार देने के लिये उसके सदस्य बन गये। गढ़वाल में सुधार और जागृति का संदेश जन-जन तक पहुँचाने के लिये यूनियन के गिरजा शंकर नैथानी ने यूनियन के माध्यम से ही मई सन् 1905 में 'गढ़वाली' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया।
गढ़वाल यूनियन की स्थापना के एक वर्ष बाद ही सन् 1903 में लैंसडौन में गिरिजादत्त नैथानी ने 'गढ़वाल समाचार नामक पत्र का प्रकाशन किया। जिसका उद्देश्य गढ़वाल में सामाजिक व राजनैतिक चेतना जागृत करना था। गिरिजादत्त नैथानी 'गढ़वाल समाचार' के प्रथम सम्पादक थे। मथुरा प्रसाद नैथानी ने सन् 1908 में लखनऊ में "गढ़वाल भ्रातृ-मण्डल" की स्थापना की। अपने कार्यों से शीघ्र ही यह एक प्रथम श्रेणी की संस्था बन गयी। गढ़वाल के जागरण में सत्य प्रसाद रतूड़ी की कविताओं का भी महत्वपूर्ण योगदान है। इनकी पहली कविता 'उठा गढ़वालियों का' प्रकाशन 'गढवाली' पत्र के प्रथम अंक में सन् 1905 में हुआ।
कुंजणी वन आन्दोलन, (सन् 1904)
टिहरी राज्य में नई वन-व्यवस्था लागू कर दी गई और करों में भी वृद्धि कर दी। किन्तु इस व्यवस्था से ग्रामवासी दुखी हो गये। लोगों के कष्टों में वृद्धि होने लगी। वन विभाग के अधिकारियों के प्रशासनिक अधिकारों में वद्धि कर दी। महाराज कीर्तिशाह उस समय टिहरी गढ़वाल राज्य के शासक थे। कुंजणी पट्टी में किसानों ने इस असंतोष को दूर करने के लिये किसान नेता अमर सिंह के नेतृत्व में नई वन व्यवस्था और बढ़े हुये करों के खिलाफ आवाज उठाई। शीघ्र ही इस विरोध ने एक आन्दोलन का रूप ले लिया और यह हेंवल नदी की घाटी में व्यापक रूप से फैल गया। जब किसी भी प्रकार से आन्दोलन कम नहीं हुआ तो महाराज कीर्तिशाह स्वयं आन्दोलन वाले क्षेत्र में पहुँचे और उन्होंने जनता की मांग को स्वीकार कर लिया।
खास पट्टी वन आन्दोलन-
गढ़वाल में सन् 1906-1907 में नई भूमि बन्दोबस्त का कार्य चल रहा था जिसके द्वारा जनता को उसके अधिकारों से वंचित किया जा रहा था। गाँव के पास के वनों को तथा खाली पडी बंजर भूमि को घेरकर वहाँ के अधिकारी उसे आरक्षित वन घोषित कर रहे थे। धीरे-धीरे जब ऐसे आरक्षित वनों की सीमा बढ़ने लगी तो गाँव वालों को वनचर भूमि, घास व लकड़ी के लिये परेशानी उत्पन्न होने लगी। इसके अतिरिक्त जंगलात के अधिकारी ग्रामीण महिलाओं को परेशान किया करते थे। ग्रामवासी अधिकारियों से वार्ता करने लिए आमड़ी के मैदान में एकत्रित हुये। आन्दोलन का नेतृत्व विख्यात महिला नेता बलवती देवी, भगवान सिंह बिष्ट, भरोसा राम आदि स्थानीय नेता कर रहे थे। किन्तु अधिकारियों ने वार्ता करने से इन्कार कर दिया और ग्राम सभा के प्रतिनिधियों के साथ बुरा बर्ताव किया। इस व्यवहार से क्षुब्ध होकर उत्तेजित जनता ने जंगलात विभाग के एक उच्च अधिकारी सदानन्द गैरोला (कंजरवेटर) सहित कई कर्मचारियों को पकड़कर रस्सों से बाँधकर गिरफ्तार कर लिया।
अतः स्थिति गम्भीर होने पर महाराज कीर्तिशाह स्वयं सभा के प्रतिनिधियों से मिले और उनके साथ शान्तिपूर्ण समझौता किया। बन्दी अधिकारियों को मुक्त करा लाये किन्तु वापस लौटते ही महाराज ने समझौते को मानने से इन्कार कर दिया और खास पट्टी वन आन्दोलन के नेताओं पर मुकदमा चलाकर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया तथा कई लोगो पर जुर्माना लगा दिया। महाराज के इस तरह मुकर जाने से जनता में राजशाही शासन के प्रति विरोध की भावना उत्पन्न हो गई और जनता पूरी तरह से राजतंत्र के विरोध में हो गयी। यह आन्दोलन धीरे-धीरे सुलगता रहा और आजादी के समय तक बना रहा। इस आन्दोलन का राजतंत्र पर भी प्रभाव पड़ा और बाद के वर्षों में अनेक जनहितकारी सुधार हुये। किसानो की आर्थिक सहायता के लिए 'किसान बैंक' की स्थापना की गई।
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