उत्तराखंड ऐतिहासिक काल में उत्तराखण्ड

ऐतिहासिक काल में उत्तराखण्ड

  1. श्रीनगर के ध्वंसावशेष
  2. गोविषाण के ध्वंसावशेष
  3. कालसी ध्वंसावशेष
  4. अन्य नगरों से प्राप्त ध्वंसावशेष


उत्तराखण्ड राज्य क्षेत्र प्राचीन काल से अतिदुर्गम क्षेत्र रहा है। इसका अधिकांश हिस्सा निर्जन व घने जंगलो से भरा था। अतः यहाँ किसी स्थायी सत्ता के स्थापित होने की कोई स्पष्ट जानकारी तो नहीं मिलती है किन्तु कुछ सिक्कों, अभिलेखों एवं ताम्रपत्रों के आधार पर इसके प्राचीन इतिहास को संगृहीत करने का प्रयास हुआ है। राज्य के कई नगर प्राग् ऐतिहासिक काल में अपनी सामरिक एवं व्यापारिक महत्ता स्थापित कर चुके थे। इस सन्दर्भ में हमें साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों प्रकार के साक्ष्यों से पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। इन विभिन्न प्राचीन केन्द्रों से प्राप्त पुरातात्विक सामाग्री का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है।
Uttarakhand in historical times

श्रीनगर के ध्वंसावशेष-

अलकनन्दा तट पर स्थित यह नगर राजधानी नहीं अपितु प्राचीन यात्रा मार्ग में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। अलकनन्दा के मध्य एक टापू पर स्थापित श्रीयंत्र तथा नगर के चारों ओर चार शिवलिगों की स्थापना प्राचीन लगती है। पंवारकालीन लक्ष्मीनारायण मन्दिर समूहों में वैरागणा के पाँच मन्दिर, भक्तियाणा गोरखनाथ गुफा, अलकनन्दा तट पर केशवराम मन्दिर इत्यादि महत्वपूर्ण है। केशवराम मठ के द्वार पर शक् सम्वत् 1547 का लेख भी मिलता है। महाभारत काल में यह कुणिन्द नरेश सुबाहु की राजधानी थी। इस नगर ने कई बार विनाशकारी बाढ़ का सामना किया है। सम्भवतः इस कारण यहाँ स्थापित प्राचीन अवशेष पूर्णतः नष्ट हो गए है। कैप्टन हार्डविक ने 1796 ई० में स्वयं इस नगर के मध्य जीर्ण शीर्ण अजयपाल के राजप्रसाद को देखा था। इसके अतिरिक्त नगर के समीप श्रीकोट गंगनाली में पंवारकाल से पहले का शिव मन्दिर मिला है। अलकनन्दा के दूसरे छोर पर स्थित रणीहाट गाँव का राज राजेश्वरी मन्दिर पूर्व पंवार कालीन उत्कृष्ट वास्तुकला का उदाहरण प्रस्तुत करता है।  

गोविषाण के ध्वंसावशेष-

वर्तमान कुमाऊँ के तराई क्षेत्र में स्थित काशीपुर नगर के आसपास प्राचीन आध्-ऐतिहासिक नगर गोविषाण के अवशेष मिले है। चीनी यात्री फाहयान ने इस का उल्लेख किया है जबकि युवानच्वाड़ ने तो किउ-पि-स्वड्ः- न' नाम से इस नगर का विस्तृत वर्णन दिया है। उसकी पुस्तक 'सियुकी' के अंग्रेजी अनुवादक ने 'किउ-पि-स्वड्ः- न' का संस्कृत रूपांतरण 'गोविषाण' दिया। सर्वप्रथम पुरातत्वविद कर्मिंघम ने इस स्थल का सर्वेक्षण किया। इसके पश्चात् एएसआई ने उत्खन्न करवाया। उत्खनन् में प्राप्त इष्टकाओं के वैज्ञानिक अध्ययन से इस स्थल के दुर्ग का काल 2600 ई०पू० निर्धारित हुआ। इस स्थल के उत्खनन् में चित्रित धूसर भाण्ड (पीजी.डब्लू.) तथा 'ओपयुक्त मृदभाण्ड' की प्राप्ति भी इसकी प्राचीनता को प्रमाणित करती है। विशप हीबर की 1824 ई0 की नगर यात्रा के समय यह हिन्दू तीर्थ रूप में प्रसिद्ध था।

आधुनिक काशीपुर से प्राप्त पुरातात्विक महत्व की अन्य सामाग्री में मुख्य एक टीले के उत्तरी भाग में ईष्टका निर्मित वृत्ताकार मन्दिर के भग्नावशेष, इसके निकट प्रस्तर की चौखट पर निर्मित विशाल द्वार एवं उस पर लगी लोहे की बड़ी-बड़ी कीले, टीले के मध्य में कुषाणकालीन भवन के अवशेष, नन्दी सहित एक शिवलिंग जिस पर मानव लिंग की आकृति उभरी है, इत्यादि हैं।

कालसी ध्वंसावशेष-

जनपद देहरादून में यमुना की सहायक अमलावा नदी के बाएँ तट अवस्थित कालसी का प्राचीन नाम 'कालकूट' था। पाँचवी शताब्दी ई०पू० इस क्षेत्र पर कुणिन्द्र सता का अधिकार था। इस नगर से प्राप्त महत्वपूर्ण पुरातात्विक सामाग्री में महान मौर्य सम्राट अशोक द्वारा यमुना-टौंस संगम पर स्थापित शिलालेख है जो कि पाली भाषा में है। कालसी शिला प्रज्ञापनों का पता वर्ष 1860 ई0 में लगा। स्फटिक शिलाखण्ड पर अभिलेख के साथ हस्ति पांव के मध्य 'गजतमे' अंकित है। इस शिला को स्थानीय लोग 'चित्रशिला' कहते है। इसके आस-पास एक खण्डित शिलालेख भी है। 

अन्य नगरों से प्राप्त ध्वंसावशेष-


हरिद्वार के आस-पास से उत्खनन् में ताम्र संस्कृति के पुरावशेष प्राप्त होते है। कर्मिंघम महोदय ने गंगाद्वार (मायापुर अथवा हरिद्वार) के पुरातात्विक महत्व को इस प्रकार वर्णित किया है कि- "मायापुर का यह प्राचीन नगर सर्वनाथ मन्दिर से राजा बेन के दुर्ग तक विस्तृत था। इस प्राचीन दुर्ग के अवशेष, खण्डित ईष्टका के टीले, नारायणशिला एवं विभिन्न प्रकार की प्राचीन मुद्राएँ यहाँ से मिलती हैं। कर्निघम तो यहाँ से प्राप्त बुद्ध प्रतिमा जिसकी पीठिका पर सिंह व चक अंकित है, को प्रथम आदि बुद्ध मानते हैं।

देव प्रयाग से ब्राह्मी लिपि में चालीस से अधिक यात्री लेख श्रीरघुनाथ मन्दिर के पीछे शिला पर मिले हैं जिनका संपादन छाबड़ा महोदय ने किया एवं इनकी काल अवधि पांचवी शताब्दी ई० निर्धारित की है। इसके अतिरिक्त भित्तियों, घण्टियों तथा ताम्रपत्र पर पवांरकाल के अनेक लेख प्राप्त हैं। 1803 ई० में आए विनाशकारी भूकम्प से क्षतिग्रस्त रघुनाथ मन्दिर का कालान्तर में दौलतराव सिधिंया द्वारा दिए दान से जीर्णोद्वार का ज्ञान होता है। केदारनाथ नामक ग्रन्थ के अध्याय 148 से लेकर अध्याय-163 तक इस देवतीर्थ के धार्मिक महात्मय का विस्तृत उल्लेख है। यहाँ से प्राप्त वामनगुहा लेख भी महत्वपूर्ण है।

केदारखण्ड में वर्णित 'गोस्थल' एवं राजस्व अभिलेखों में उल्लेखित 'गोथला' ग्राम ही प्राचीन गोपेश्वर है। यहाँ से गणपतिनाग द्वारा अपनी विजयों के उपलक्ष्य में स्थापित छठी शताब्दी का त्रिशुल अभिलेख मिला है। इसी अभिलेख के ऊपरी भाग पर 12वीं शताब्दी का अशोकचल्ल का लेख भी उत्तकीर्ण है। एटकिन्सन ने अशोकचल्ल के एक तिथियुक्त लेख का उल्लेख किया है जो अब अप्राप्त है। नगर स्थित एक मन्दिर प्रांगण के भवन की भित्ति पर 7-8 वीं शताब्दी का शंखलिपि में लघु लेख महत्वपूर्ण है।

'बाड़ाहाट' वर्तमान उतरकाशी का प्राचीन नाम है। केदारखण्ड में सौम्यकाशी एवं उतरकाशी नाम से इस स्थल का वर्णन मिलता है। यहाँ से पूर्ववर्ती पवांरकाल एवं पवारकाल से सम्बन्धित पुरातत्वीय सामग्री मिलती है। इनमें प्रमुख 'बाड़ा की शक्ति' एवं उस पर उत्कीर्ण राजा गुहा का लेख है। तीन पंक्तियों के इस लेख की लिपि छठी सातवीं शताब्दी ई० की उत्तरी ब्राह्मी है। राहुल साकृत्यायन महोदय को लक्षेश्वर मन्दिर परिसर से अत्यन्त अंलकृत इष्टकाएँ मिली एवं डोलीनी टीले से सिंदुरी रंग की ईट भी प्राप्त हुई। डोलीनी टीले से प्राप्त प्रतिमाओं में महिषमर्दिनी दुर्गा की पाषाण प्रतिमा की तक्षणकला विशिष्ट है। ये सभी प्रतिमाएँ पूर्ववर्ती पवांरकाल की है। राहुल सांकृत्यायन ने दत्ताश्रेय के रूप में पूजी जाने वाली बुद्ध की अभिलिखित मूर्ति को भोट राजा ज्ञानराज द्वारा अष्टधातु से निर्मित बताया है। बाड़ाहाट का प्रसिद्ध मेला पवार नरेशो द्वारा ही प्रारम्भ किया गया।

कुमाऊँ में गोमती नदी की घाटी में अवस्थित 'कत्यूर' अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है। सम्भवतः इसी कारण प्रारम्भिक कत्यूर वंश के शासकों ने वैजनाथ को राजधानी बनाकर शासन किया। यहाँ से शक् सम्वत् 1214 ई0 का लेख लक्ष्मी नारायण मन्दिर द्वार के पार्श्व पर मिला। इसके अतिरिक्त त्रिपाठी परिवार से राजा इन्द्रदेव का ताम्रपत्र महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र से प्राप्त दो अन्य शिलालेख भी बैजनाथ संग्रहालय में सुरक्षित हैं। कोट-की-माई मन्दिर में चन्द्र राजाओं के ताम्रपत्र भी रखे गए हैं।

द्वाराहाट को कत्यूरियों की पाली पछाऊँ शाखा की राजधानी माना जाता है। यहाँ से प्राप्त देवालयों एवं नालों पर उत्कीर्ण कत्यूर काल के शिलालेख में अनन्तपाल का कालिकामूर्ति लेख, थलकुर्क का हरगौरी मूर्ति लेख, द्रोणगिरि शिलालेख, थलकुर्क का वापी लेख, राजा भानदेव का दानलेख, सोमदेव का वापीलेख, सोमदेव का गणाई गणेशमूर्ति लेख, बद्रीनाथ समूह का गणेशमूर्ति लेख, बद्रीनाथ समूह का विष्णुमूर्ति लेख प्रमुख है।

टनकपुर-पिथौरागढ़ राजमार्ग पर अवस्थित चम्पावत् को ही चन्दों की प्राचीनतम् राजधानी चम्पावती के रूप में पहचाना गया है। यहाँ से चंदों के प्राचीन दुर्ग कोटलगढ़ के अवशेष राजबूंगी नामक टीले पर स्थित है। बालेश्वर मन्दिर परिसर में अनेक चन्द अभिलेख मिले है। इनमें तरचन्द का क्षतिग्रस्त भित्तिलेख, अभयचंद के तीनलेख, ज्ञानचंद के लेख, बाजबहादुर चंद का ताम्रलेख, जगतचंद का नामनाथ मन्दिर ताम्रपत्र इत्यादि प्रमुख है। 
लाखामण्डल शिलालेख

जनपद देहरादून के जौनसार-भावर क्षेत्र स्थित इस स्थल से राजकुमारी ईश्वरा का शिलालेख मिला है।

मन्दिर की दीवारों पर लेख -

कालीमठ, केदारनाथ, गोपेश्वर तथा नाल से मन्दिरों की दीवारों पर लेख उत्कीर्ण मिले हैं।
मुद्रालेख ऋषिकेश के निकट स्थित मुनि की रेती एवं सुमाड़ी ग्राम से प्रथम एवं द्वितीय सदी की मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। ये कुषाण राजाओं द्वारा प्रचलित मुद्राएँ है। इसके अतिरिक्त हमे काशीपुर, खटीमा इत्यादि से भी कुषाण स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुई है जिनसे उनके इस क्षेत्र में सामाज्य विस्तार को समझने में सहायता मिलती है।

प्राचीन चीनी यात्री द्वारा वर्णित "मो-य-लो" अर्थात् मोरध्वज की उत्खनन में प्राप्त स्वर्ण मुद्राएँ भी कुषाण शासको की ही है।

भद्रमित्र की मृणमृदा देहरादून जनपद के अम्बाड़ी ग्राम से प्राप्त हुई है, जिसकी लिपि शुंगकालीन होने के कारण जयचन्द्र विद्यालंकार ने सभांवना व्यक्त की है कि यह कोई शुंग राज्यकर्मचारी रहा होगा यद्यपि अधिकांश विद्वान इसे कुणिंद राज्यकर्मचारी मानते है।
 उत्तराखंड का इतिहास
History of Uttarakhand /Uttarakhand ka Itishas 
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(1) महान हिमालयी क्षेत्र
(2) मध्य हिमालयी क्षेत्र,
(3) शिवालिक हिमालयी क्षेत्र
(4) गंगा का मैदानी क्षेत्र

Up coming work तालिका-2

ऐतिहासिक काल में उत्तराखण्ड
श्रीनगर के ध्वंसावशेष
गोविषाण के ध्वंसावशेष
कालसी ध्वंसावशेष
अन्य नगरों से प्राप्त ध्वंसावशेष
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उत्तराखंड का आध्र- ऐतिहासिक काल उत्तराखंड
(1) पुरातात्विक स्त्रोत
(2) लिखित स्त्रोत
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उत्तराखण्ड के ऐतिहासिक स्त्रोत
(1) साहित्यिक स्त्रोत
   (1) मालूशाही 
(2) रमौला गाथा
(3) हुड़की बोल गाथाएँ
(4) जागर
1 देवी-देवताओं के जागर
2 प्रेतबाधा के जागर
3 स्थानीय शासकों के जागर
(5) पावड़े अथवा भड़ौ
(6) पुरातात्विक स्त्रोत

(2) पुरातात्विक साहित्य 
1) पुरातात्विक स्त्रोत
(2) लिखित स्त्रोत

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बाड़वाला एवं देवदुंग की ईष्टका-चितियां (Brick Altars)
प्राचीन उत्तराखण्ड
1) अमोधभूति के सिक्के- अटूड़ से प्राप्त उत्खनित् सामाग्री में अमोज्ञभूति की       रजत मुद्राओं के साथ ही दो स्वर्ण श्लाकाएं भी प्राप्त हुई है।
2) अल्मोड़ा से प्राप्त 4 मुद्राएँ जो ब्रिटिश संग्रहालय लंदन में रखी गई है।        इसके अतिरिक्त कत्यूर घाटी से भी 54 मुद्राएँ प्राप्त हुई है।
3)   कुणिन्द अराध्य छत्रेश्वर अथवा चत्रेश्वर के नाम पर निर्गत मुद्राएँ ।
कुषाणोत्तर काल में मध्य हिमालय के वंश 

कत्यूरीयुग (7वीं शताब्दी ई0-15वीं शताब्दी ई० तक)-
1. बसंतदेव का राजवंश
2.  खर्परदेव का वंश
3. राजनिबंर का राजवंश
4.  सलोणादित्तय का राजवंश
5.  पालवंश
6. काचलदेव का वंश
7. आसंतिदेव का वंश
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उत्तराखण्ड के ऐतिहासिक स्त्रोत
(1) साहित्यिक स्त्रोत
   (1) मालूशाही 
(2) रमौला गाथा
(3) हुड़की बोल गाथाएँ
(4) जागर
1 देवी-देवताओं के जागर
2 प्रेतबाधा के जागर
3 स्थानीय शासकों के जागर
(5) पावड़े अथवा भड़ौ
(6) पुरातात्विक स्त्रोत

(2) पुरातात्विक साहित्य 
1) पुरातात्विक स्त्रोत
(2) लिखित स्त्रोत
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उत्तराखंड का आध्र- ऐतिहासिक काल उत्तराखंड
(1) पुरातात्विक स्त्रोत
(2) लिखित स्त्रोत
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कनखल एवं मायापुर से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्यों के कारण
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