उतराखंड के साथ मुजफ्फरनगर कांड

मुजफ्फरनगर कांड

उतराखंड  के साथ मुजफ्फरनगर कांड
पुलिस एवं प्रशासन की बर्बरता यहीं समाप्त नहीं हुई। इसमें अभी एक बड़ा काला अध्याय जुड़ना शेष था। उत्तराखण्ड आंदोलन संचालन समिति को 2, अक्टूबर, 1944 दिल्ली में रैली की अनुमति तो मिल गई थी, किन्तु तत्कालीन प्रदेश सरकार ने प्रशासन को आंदोलनकारियों को दिल्ली न पहुँचने देने की सख्त हिदायत दी। इसके बाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर अहिंसा के पुजारी का उत्सव उत्तर प्रदेश पुलिस ने ऐसा तांडव कर मनाया कि जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है।

मुजफ्फरनगर कांड

पर्वतीय क्षेत्र की निरन्तर उपेक्षा एवं धरने, प्रदर्शन, आन्दोलन के बावजूद भी सरकार द्वारा इस ओर कोई ध्यान न दिए जाने के कारण 2 अक्टूबर, 1994 को हिमालय की जन-भावना का अहसास कराने के लिए दिल्ली कूच का निर्णय लिया। इसमें शामिल होने के लिए उत्तराखण्ड पर्वत के कोने-कोने से लोग दिल्ली पहुँचने लगे। कुमाऊँ मण्डल से दिल्ली जाने वाली बसों को कोई विशेष प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन गढवाल मण्डल के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से निकली बसों को नियोजित तरीके से प्रशासन ने रोकने का प्रयास शुरू कर दिया। प्रथम प्रयास मोहड, सहारनपुर के निकट गणेशपुर वन चौकी पर आंदोलनकारियों को रोकने का प्रयास हुआ, किन्तु यहाँ से आंदोलनकारी आगे बढ़ गये। इसके पश्चात् बहादराबाद पुलिस चौकी पर वाहन रोक लिए गए, काफी जद्दोजेहद के बाद पुलिस ने रास्ता खोल दिया। इसके पश्चात् लक्सर रोड स्थित पेरूपुर चौकी पर आंदोलनकारियों को रोका गया लेकिन आंदोलनकारी इस अवरोध को तोडकर आगे बढ गये। इस बीच रात्रि नौ बजे तक चमोली, टिहरी, उत्तरकाशी जिलों की गाड़ियां भी हरिद्वार के अंतिम छोर गुरूकुल नारसन पहुँच गई। यहाँ प्रशासन ने भारी फौजो के साथ आंदोलनकारियों को रोकने का प्रयास किया। आगे खड़ी बसों के शीशे तोड़ती पुलिस ने छात्रों पर लाठियाँ बरसायी। जब पुलिस ने युवतियों से दुर्व्यव्हार की कोशिश की तो छात्रों ने पथराव कर दिया और पुलिस को पीछे हटना पड़ा। इस बीच कुछ अजनबी लोगो ने सेना के ट्रक, प्राइवेट ट्रक, जीप व मारूति वैन को आग लगा दी एवं स्थानीय ठेलियों व खोकों को आग के हवाले करके गायब हो गए। पुलिस द्वारा पीछे हटने के बाद आंदोलनकारी स्वयं रास्ता साफ कर आगे बढ़े।

मुजफ्फरनगर कांड

गुरूकुल नारसन पर घटित इस घटनाक्रम से पूर्व काफी बसें आगे निकल चुकी थी जिन्हें रात्रि 10 बजे के आस-पास रामपुर तिराहे से पहले सिसौना में रोक दिया गया। यहाँ भारी संख्या में फोर्स के साथ मेरठ जनपद की पुलिस पहले से ही घात लगाए बैठी थी। पूर्व नियोजित योजना के तहत 4-4 की संख्या में बसों को आधे-आधे घंटे के अन्तराल पर छोड़ने की बात कहकर 4 बसों को आगे जाने दिया गया एवं शेष वाहनों को रोक लिया गया। रात्रि के घोर अंधकार में जैसे ही ये चारों बसें रामपुर तिराहे पर पहुँची पुलिस ने रैली रद्द की सूचना देकर इन्हें रोक लिया। आंदोलनकारी बिना किसी अधिकृत सूचना के दिल्ली जाने की जिद पर अड़े रहे। इस बीच पुलिस ने चारो बस ड्राईवरो से चाबियां छीन ली। अचानक खेतों से आंदोलनकारियों पर पथराव होता है और पुलिस आंदोलनकारियों पर टूट पड़ती है। थोड़ी देर में गोलियां भी चलने लगी। पुलिस ने टॉर्च लेकर बसों में दुबकी महिलाओं को उतारा और उनसे जो घृणित कार्य शुरू किया वह तो लोकतन्त्र के लिए शर्मनाक घटना है।

निहत्थे व अहिंसक आंदोलनकारियों पर कहर बरसाने के बाद पुलिस व पी.ए.सी के जवान सिसौना की ओर बढ़े। अपने जुल्मों के निशान मिटाने के लिए पुलिस ने कुछ दूरी पर सुरक्षा दीवार खड़ी कर दी। मार्ग खुलवाने की जद्दोजेहद जारी थी। विभिन्न क्षेत्रों की बसों के पहुँचने से सिसौना क्षेत्र आंदोलनकारियों से भर गया था। पुलिस अत्याचार से बचते-बचाते जब घायल एवं पीड़ित आंदोलनकायिों ने अपनी व्यथा सुनाई तो जन आक्रोश भड़क उठा। बसों को छोड़ आंदोलनकारी पैदल आगे बढ़े। "बोल पहाड़ी हल्ला बोल" का नारा बुलन्द करते लोग दिल्ली कूच करने लगे, अचानक भारी पथराव शुरू हुआ। जिसके बाद आंदोलनकारियों ने भी पुलिस पर पथराव किया। सुबह सात बजे के आस-पास पुलिस ने बिना किसी चेतावनी के गोलियां बरसानी शुरू कर दी। जिसमें राजेश लखेडा, सत्येंद्र चाहौन, रविन्द्र रावत, गिरीश भद्री इत्यादि लोग शहीद हुए। पुलिस लोगो को बेसुध होने तक यातनाएँ देती रहीं। इस मुजफ्फरनगर कांड में कई लोग शहीद हुए जबकि घायल स्त्री-पुरूषों की संख्या का अनुमान लगाना कठिन है। 

विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के लिए इससे शर्म की बात क्या हो सकती है कि एक ओर तो देश का प्रधानमंत्री अहिंसा की सत्यमूर्ति गाँधी को राजघाट पर पुष्प अर्पित कर रहा है और दूसरी तरफ उसकी मशीनरी हिंसा के ताण्डव में संलग्न थी। राष्ट्रीय राजमार्ग-45 की यह घटना इस लिए भी उद्देलित करती है कि आखिर हमने अंग्रेजी हुकुमत से स्वतंत्रता किस लिए प्राप्त की ? जब जनता को अपनी आवाज रखने का अधिकार इस देश की सरकार नहीं देना चाहती है, तो क्यों हम लोकतंत्र का चोला पहनकर विश्व में उसकी पैरवी करते है ? इस घटना के लिए मेरठ के पुलिस उपमहानिरीक्षक को पूरी तरह जिम्मेदार माना गया यद्यपि अब तक भी यह स्पष्ट नहीं है कि इस घटनाक्रम में अजनबी चेहरे कौन थे? आखिर क्या कारण थे कि उपमहानिरीक्षक को जनरल डायर का रूप धारण कर अपनी ही माँ-बहनों से दुर्व्यव्यवहार करने को विवश होना पड़ा।

रामपुर तिराहे की यह घटना हमारे सम्मुख कई प्रश्न छोड़कर गयी है। समय के साथ उत्तराखण्ड राज्य बना। रामपुर तिराहे पर हर वर्ष शहीद मेला लगता है। यहाँ 1995 में एक शहीद स्मारक भी बनाया गया है। लेकिन उन अनछुये प्रश्नों का जवाब तलाशना अब भी बाकी है जिनके कारण बार-बार मानवता को शर्मशार होना पड़ता है।

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