गढ़वाल के अधीनस्थ राज्य के रूप में कुमाऊँगढ़नरेश ललितशाह को कुमाऊँ
सन् 1779 ई० पश्चात् कुमाऊँ गढ़राज्य का अधीनस्थ राज्य बन गया। गढ़नरेश ललितशाह को कुमाऊँ की गद्दी के लिए उपयुक्त व्यक्ति नही मिला। उसने हर्षदेव जोशी को कैद से विमुक्त किया। हर्षदेव की सलाह पर उसने अपने पुत्र प्रद्युम्न को प्रद्युम्न चंद नाम से शासक घोषित किया जिसने 1779 ई0 से लेकर 1786 तक कुमाऊँ पर शासन किया। यद्यपि इस काल में शासन प्रबन्ध हर्षदेव के हाथों में ही रहा। हर्षदेव ने जयानन्द और गधाधर जोशी की सहायता से निरंकुश शासक किया।
प्रशासन पर अपना दृढ़ नियत्रंण स्थापित करने के उद्देश्य से हर्षदेव ने महत्वपूर्ण पदों पर अपनी जाति (जोशी) के लोगों को नियुक्त किया। इस प्रकार प्रशासन पर जोशी जाति का प्रभुत्व स्थापित हुआ जो कि गोरखा आधिपत्य तक निरन्तर बना रहा। कुमाऊँ के इतिहास में यह काल 'जोशीकाल' के नाम से जाना जाता है। यद्यपि इनमें से एक भी राज्य निर्माण और कूटनीति में शिवदेव जोशी को छू भी नहीं पाया।
गढ़नरेश ललितशाह की मृत्यु के पश्चात् उसके ज्येष्ठ पुत्र जयकृतशाह की श्रीनगर में ताजपोशी हुई। उसने अपने छोटे भाई प्रद्युम्न से गढ़राज्य की श्रेष्ठता स्वीकार करने के लिए कहा किन्तु प्रद्युम्नचंद ने अपने सलाहकारों के कहने पर अपने बड़े भाई के प्रति कृतज्ञता व्यक्त नहीं की। गढ़राज्य की ओर से उत्पन्न इस खतरे से बचने के लिए हर्षदेव ने नवाब फैजुल्ला खान से कूटनीतिज्ञ सम्बन्ध स्थापित किया ताकि संघर्ष के अवसर पर नवाब के संरक्षण में रह रहे मोहनचंद की ओर से कोई खतरा न उत्पन्न हो। इस प्रकार मोहनचंद अकेला पड़ गया किन्तु फिर भी उसने नागा साधुओं का प्रयोग किया। लगभग 1400 नागाओ को हर्षदेव जोशी ने कुमाऊँ से भगाने में सफलता पाई। अब मोहनचंद ने जयकृत शाह को कुमाऊँ को गढराज्य के अधीन रखने के लिए मना लिया।
हर्षदेव को मोहनचंद के षड़यंत्र की जानकारी हो गई थी इसलिए वह स्वयं वार्तालाप के लिए श्रीनगर की ओर बढ़ा ही था। उसको मार्ग में जयकृतशाह से युद्ध करना पड़ा किन्तु युद्ध में हारकर जयकृतशाह भाग गया। कुमाऊँनी सेना ने गढ़वाल क्षेत्र में भारी लूटपाट की। सम्भवतः प्रद्युम्न और जयकृत के सम्बन्ध अच्छे नही थे। क्योंकि प्रद्युम्न ने उस पर स्वयं आक्रमण कर उसे परास्त किया और कुछ समय तक राजधानी पर अधिकार रखा था।
जयकृतशाह की मृत्यु के पश्चात् प्रद्युम्न श्रीनगर आये एवं गढराज्य की बागडोर भी अपने हाथों में ले ली। इस प्रकार प्रारम्भिक कत्यूर काल के पश्चात् पहली बार 1786 ई० में कुछ समय के लिए गढ़वाल एवं कुमाऊँ राज्य एक शासक के अधीन हुआ। यद्यपि प्रद्युम्न का कनिष्ठ भाई पराकमशाह जो गढ़नरेश होने के स्वप्न देख रहा था, इस घटना से क्षुब्ध हुआ। हर्षदेव जोशी प्रद्युम्न के प्रतिनिधि के रूप में कुमाऊँ पर शासन करने लगा। मोहनचंद ने अपने भाई लालसिंह की सहायता से पुनः कुमाऊँ की गद्दी प्राप्त करने का प्रयास किया। वर्ष 1786 ई0 के पाली ग्राम युद्ध में वह विजयी हुआ और हर्षदेव श्रीनगर भाग गया। हर्षदेव एक बड़ी सेना के साथ वापस लौटा, मोहनसिंह, लालसिंह परास्त हुए।
पराक्रमशाह जिसने पाली ग्राम युद्ध में मोहन सिंह की मदद की थी। उसने प्रद्युम्न को कुमाऊँ न लौटने की सलाह दी। प्रद्युम्न स्वयं भी यहाँ लौटने का इच्छुक न था। अतः हर्षदेव ने कुछ समय पश्चात् शिवचंद को गद्दी पर बिठाया। इस बीच मोहनसिंह, लाल सिंह ने फैजुल्ला खान की सहायता से घेरा डाल दिया। भीमताल के पास कुमाऊँनी सेना परास्त हुई। फैजुल्ला खान पीछा करता हुआ गढ़वाल पहुँचा। यहाँ उल्कागढ़ के युद्ध में गढ़वाली सेना की सहायता से हर्षदेव आक्रमणकारियों को कोसी पार खदेड़ने में सफल रहा। यद्यपि पराकमशाह के आने के बाद हर्षदेव बुरी तरह हार गया एवं गढ़राज्य भाग गया। पराक्रम शाह ने जोशीदल के लोगों की हत्या करवाई और हर्जाना लेकर लौट गया।
लाल सिंह ने अपने पुत्र महेन्द्र सिंह को महेन्द्रचंद नाम से गद्दी पर आसीन किया। हर्षदेव को पराकमशाह ने गढ़वाल में नहीं रहने दिया। अतः हर्षदेव पहले अवध के सूबेदार मिर्जा मेंहदी अली के संरक्षण में गया। यहाँ भी पराकमशाह के विरोध के कारण वह अधिक दिन नही ठहर सका और अन्ततः गोरखा संरक्षण में चला गया। हर्षदेव से गोरखों को कुमाऊँ की अत्यंत खराब राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक दशा की पूर्ण जानकारी प्राप्त हई। अतः 1790 में गोरखों ने कुमाऊँ की ओर कदम बढ़ाए। प्रारम्भ में महेन्द्रचंद को अमरसिंह थापा के विरूद्ध कुछ सफलता अवश्य मिली किन्तु कटोलगढ़ के पास गोरखों ने लालसिंह की सेना का कत्लेआम कर दिया। लालसिंह भाग निकला और महेन्द्रचंद जो उसकी सहायता के लिए चल पड़ा था वह भी रणभूमि छोड़ कोटाबाग चला आया। चैत्र की कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को गोरखों ने बिना प्रतिरोध के अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार कुमाऊँ पर चंदवंश का दीर्घकाल से चला आ रहा शासन हमेशा के लिए समाप्त हो गया।
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