पहाड़ी कविता दिल को छू लेना वाला
अनकहा दर्द
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मैं एक पहाड़ हूं
खड़ा पहाड़
लोग मुझे अपनी बोली में
कांठा कहते हैं
बरसात में मैं हरी-हरी घास से
लहलहा उठता हूं
और जाड़ों में
किसी बूढ़े सा नजर आता हूं
मेरे बदन पर न जाने क्यों
पेड़ बहुत कम उगते हैं
मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता
वरना मैं हर बरस अपनी
त्वचा को भर-भराकर कभी
गिरने न देता
गांव के ग्वाले मेरे पैरों के
आसपास अपने पशुओं को चराते हैं
मेरे बदन की खड़ी चढ़ाई से
वे डर जाते हैं
पर क्या करूं मैं
गांवों की उन निडर स्त्रियों का
जो अपनी जान हथेली पर रखकर
मेरे रोम-रोम को छील देती हैं
उनका न्यौली गाना
मुझे भीतर से रूला देता है
मैं उनके दुस्साहस पर
हैरान भी रहता हूं
ताली भी तो नहीं बजा सकता हूं
मैं बेजुबान उनको रोकना चाहता हूं
उनको बताना चाहता हूं
तुम्हारी जिंदगी से बड़ी
यह घास नहीं है
मैं भी तब बहुत रोता हूं
जब कोई बहू-बेटी मां-बहन
मेरे बदन पर अपने पैर
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ठीक से नहीं टिका पाती है
और घास काटते-काटते
मेरे माथे से फिसलकर
मेरे पैरों तक लुढ़क जाती है
मेरी पथरीली आंखों के आंसू
कौन देख पाया है
मेरी चीत्कार कौन सुन पाया है
मैं चाहता हूं
दूर से सबको
हवा दूं, पानी दूं
आंधी-तूफानों
चीरती हवाओं का
रस्ता रोक दूं
मैं बन जाऊं
गिरिराज तुम्हारा
खुद पर मुझे
कोई घमंड नहीं है
फिर भी मैं चाहता हूं
तुम कुछ दूर रहो मुझसे
मेरी त्वचा
और रोओं को
मत छुओ
इनको
यूं ही रहने दो.
-हिमानी
-सर्वाधिकार सुरक्षित
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