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गोरखों का गढ़वाल क्षेत्र पर आकमण
1790 ई0 में गोरखों ने कुमाऊँ क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया था। इस समय गढ़वाल राज्य की राजनैतिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। अतः गोरखों की नजर इस राज्य पर पड़ी। 1791 ई० में हर्षदेव की मदद से गोरखों ने गढ़वाल राज्य के पश्चिमी भाग पर आक्रमण की योजना बनाई। प्रद्युम्नशाह इस समय गढ़राज्य का राजा था। इस प्रथम आक्रमण में गोरखे कोटद्वार होते लंगूरगढ़ी पहुँचे और उसका घेरा डाल दिया। किन्तु गढ़ सैनिको के सामने गोरखों को बार-बार पीछे हटना पड़ा। गुस्साये गोरखों ने हार की झुंझलाहट में सलाण क्षेत्र के ग्रामों में लूटपाट की। आक्रमणकारी इसके पश्चात् पुनः लगूरगढ़ी पर अधिकार करने की योजना बनाते कि इसके पूर्व ही एक गुप्त सूचना उन्हें प्राप्त हुई कि सम्भवतः चीन का आक्रमण उनके गृह प्रदेश नेपाल पर होने वाला है। इस आक्रमण के लिए चीन के पास कारण भी मौजूद था। 12 नवम्बर 1780 ई0 को पांचवे लामा लोबजाँग पालदेन यिसे की मृत्यु के पश्चात् उसके भाईयों में खजाने को लेकर विवाद हुआ। सबसे छोटा भाई नेपाल की सहायता से इस पर अधिकार करने पर सफल रहा किन्तु वह अपने वादे को कि वह 15000 टका प्रतिवर्ष नेपाल को भेंट करेगा, पूरा नहीं कर पाया। परिणामतः गोरखों ने तिब्बत पर 1791 ई0 में आक्रमण किया। गोरखों ने न केवल तिब्बती शहर में बल्कि बौद्ध मोनस्टरी ताशी-इहिन्पों में भी लूटपाट की। जब यह सूचना चीनी सम्राट को मिली तो उसने 7500 सैनिको की मजबूत सेना तिब्बत भेजी। इस सेना ने गोरखों को तिब्बत से भगाया और साथ ही साथ काठमाँडु' के आस-पास के नेपाली क्षेत्र पर भी आक्रमण किया। अतः मजबूरी में गोरखों को लंगूरगढ़ का घेरा छोड़कर वापस जाना पड़ा। किन्तु जाने से पूर्व उन्होंने प्रद्युम्न शाह के सम्मुख 20000 रूपये वार्षिक नजराना नेपाली दरबार को देने की मांग रखी। प्रद्युम्नशाह ने गोरखो की मांग 'गोरखा आकमण से मुक्ति पाने के लिए' मान ली। अतः लंगूरगढ की सन्धि के तहत नेपाली दरबार को वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया गया। गोरखे 1792 ई० नेपाल वापसी से पूर्व तक लगातार गढ़-राज्य में लूटपाट मचाते रहे। किन्तु यह गढ़राज्य पर गोरखा आक्रमण का अन्त नहीं था। वे निरन्तर गढराज्य पर टुकड़ो में आक्रमण करते रहे। गढ़नरेश प्रद्युम्नशाह निरन्तर गोरखा आक्रमण के दबाव में रहे क्योंकि श्रीनगर गढ़वाल स्थित नेपाली रेजीडेण्ट निरन्तर बेकार की मांग उसके सम्मुख रखता रहता था। उनकी मागों की पूर्ति के लिए राज्य के संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव पड़ता रहता था।
प्रद्युम्नशाह और गोरखों के मध्य की सन्धि की सबसे बड़ी मुश्किल हर्षदेव जोशी को कुमाऊँ के प्रभार के लिए विश्वनीय नहीं समझा जाना था क्योंकि जोशी के पूर्वजों का कार्यकाल संशययुक्त रहा था। इस कारण गोरखे हर्षदेव को अपने साथ नेपाल ले गए किन्तु वह वहाँ से भाग निकला। जुहार में रहते हुए हर्षदेव ने अपने पुराने सहयोगी पाली और ब्रह्मण्डल के महाराजा से सहयोग लेने का प्रयास किया। जुहार के जुहारी जो कि हर्षदेव के पूर्व प्रतिद्वन्दी फर्त्याल गुट से सम्बन्धित थे उन्होनें भी हर्षदेव को उसके कट्टर शत्रु लाल सिंह और उसके पुत्र महेन्द्र सिहं को सौपने का उत्तम अवसर जाना और इस कार्य के लिए पदम सिंह को नियुक्त किया गया। किन्तु चालक हर्षदेव ने पदमसिंह को कुमाऊँ का शासक बनाने का प्रलोभन दिया और भागकर श्रीनगर प्रद्युम्नशाह के दरबार में जा पहुँचा। उसने प्रद्युम्नशाह को कुमाऊँ को गोरखा शासन से मुक्त कराने हेतु मनाने का अथक प्रयास किया किन्तु सफल नहीं रहा। इस मध्य गोरखे भी अल्मोड़ा लौट आए थे।
हर्षदेव भी चुप बैठने वाला नहीं था। उसने काली कुमाऊँ के महारा गुट से सम्पर्क स्थापित कर अपनी शक्ति में वृद्धि का प्रयास किया। इसी कारण जब भी तराई क्षेत्र के किलपुरी स्थित अपने कैम्प से लाल सिंह और उसके पुत्र ने कुमाऊँ पहाड़ी पर आकमण कर अपना पुनः आधिपत्य स्थापित करना चाहा तो उन्हें न केवल गोरखों के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा बल्कि महारा वर्ग के विरोध का भी सामना करना पड़ा। लालसिहं ने रामपुर सूबे की दयनीय स्थिति का लाभ उठाने का प्रयास किया क्योंकि 1794 ई0 में गुलाम मुहमद
खाँन ने अपने भाई मुहमद अली खाँ की हत्या कर रामपुर की गद्दी पर अधिकार कर लिया था। यद्यपि अवध के नवाब ने इस कृत्य को नजरअंदाज किया। किन्तु ब्रिटिश प्रशासन ने इसे मान्यता नहीं दी और बलापहारी गुलाम मुहम्मद खाँन के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही कर दी। अंग्रेजो और रूहेलो के मध्य युद्ध में हारकर गुलाम मुहमद ने भागकर गढ़वाल हिमालय की तलहटी में पाटलीदून अवस्थित फतेहपुर में शरण ली। यद्यपि बाद में उसे बन्दी बनाकर बनारस भेज दिया गया। जैसे ही ब्रिटिश सेना ने रामपुर छोडा महेन्द्र सिहं ने रूहेलों को अपनी सेना में भर्ती करना आरम्भ कर दिया।
1795 ई0 में अमरसिंह थापा को कुमाऊँ का नया प्रशासक नियुक्त कर अल्मोड़ा भेजा गया। उनके सहायक के रूप में भक्ति थापा और गोविन्द उपाध्याय को कमशः सैन्य व प्रशासनिक मामलों के लिए नियुक्त किया गया। कार्यभार संभालने के पश्चात् सर्वप्रथम अमरसिंह ने महेन्द्र सिंह के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही आरम्भ की और उसके अधीन क्षेत्र एवं किलपुरी के कैम्प पर अपना अधिकार कर लिया। उसके काल में ही ब्रिटिश मध्यस्ता के साथ ही अवध के नवाब के साथ भी गोरखों के सम्बन्ध मधुर बने। गोरखों ने तराई क्षेत्र पर अपना दावा छोड़ा तो अवध के नवाब ने कुमाऊँ के गोरखा शासन को मान्यता प्रदान की। इस समय गढ़वाल राज्य की स्थिति अत्यंत नाजुक थी। 1803 ई0 के विनाशकारी भूकम्प से अभी राज्य उबर भी नहीं पाया था कि गोरखा आक्रमण जैसी विपदा सम्मुख आ खड़ी हुई। यह गढ़राज्य पर द्वितीय गोरखा आकमण था। फरवरी 1803 ई० अमरसिंह थापा, हस्तिदल चौतरिया, बमशाह चौतरिया इत्यादि के नेतृत्व में गोरखा सेना लंगूरगढ़ी अपमान को धोने के लिए गढ़वाल राज्य की ओर बढ़ी। आठ-नौ हजार सैनिकों के साथ लोभा, जनपद चमोली से गोरखों ने गढराज्य में प्रवेश किया। गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह ने द्वारहाट एवं चम्बा में गोरखा सेना का प्रतिरोध करने का प्रयास अवश्य किया था किन्तु अपने को असमर्थ पाकर वह श्रीनगर लौटा और गोरखों के विरूद्ध शक्ति जुटाने की बजाय राजधानी छोड़कर सपरिवार देहरादून आ गया। गोरखा सेनाएँ प्रद्युम्न का पीछा करती हुई देहरादून तक आ पहुँची और अक्टूबर 1803 ई0 में देहरादून पर गोरखों का अधिकार हो गया। प्रद्युम्नशाह ने लण्ढ़ोरा रियासत वर्तमान सहारनपुर में जाकर शरण ली।
लण्ढौरा रियासत पर इस समय गुर्जर राजा रामदयाल शासन कर रहा था। प्रद्युम्न शाह ने अपनी चल सम्पति उसे सौंप दी। इसके एवज में रामदयाल ने 12000 सैनिकों की एक सेना तैयार की। इस सैन्य बल की मदद से प्रद्युम्नशाह गोरखों को परास्त करने देहरादून की ओर बढ़ा। 14 मई, 1804 ई0 को प्रसिद्ध खुडबुड़ा का युद्ध हुआ। इस युद्ध में प्रद्युम्नशाह वीरगति को प्राप्त हुआ और उसके छोटे भाई प्रीतमशाह को गोरखे बन्दी बनाकर नेपाल ले गये। वही 1815 ई0 में उसकी मृत्यु हो गई। प्रद्युम्न का दूसरा भाई पराकमशाह बचकर भाग निकलने में सफल रहा। इस बारे में मतभेद है कि पराकमशाह भागकर हिन्दूर गया अथवा कांगड़ा रियासत के संसारचंद की शरण में गया था। वस्तुतः कुछ भी हो लेकिन गढ़वाल राज्य का वारिश और प्रद्युम्नशाह के अल्पव्यस्क पुत्र सुदर्शनशाह को प्रद्युम्न के स्वामिभक्त बचाकर भागने में सफल रहे। सम्भवतः सुदर्शनशाह हरिद्वार के समीप स्थित ज्वालापुर में ब्रिटिश संरक्षण में लम्बे समय तक रहा। कालान्तर में ब्रिटिश सहायता से ही सुदर्शन शाह टिहरी रियासत का शासक बनने में सफल हुआ।
अतः हम पाते है कि 1790 ई0 में कुमाऊँ से चंद वंश को अपदस्थ करने के पश्चात् लगभग 14 वर्ष बाद गढवाल राज्य भी गोरखों के नियंत्रण में आ गया। गोरखों ने कुमाऊँ तथा गढ़वाल पर कमशः 25 और 12 वर्ष शासन किया। उनके शासनकाल में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की जनता पर असहनीय अत्याचार हुए। यहाँ की प्रजा को अन्याय एवं दमन का सामना करना पड़ा। गोरखों के इस कूर और अनैतिक शासनकाल को गोरख्याणी के नाम से जाना जाता है। 1804 ई0 में अमरसिंह थापा और उसके पुत्र रणजोर सिंह थापा के हाथों में गढ़वाल-कुमाऊँ की शासन बागडोर आ गई। तत्पश्चात गोरखो ने कांगडा तक के पर्वतीय राज्यों को अपने अधीन किया।
हर्षदेव जोशी गोरखों की अल्मोड़ा विजय के पश्चात् श्रीनगर गढ़वाल में रहा। 1797 ई0 में वह गढ़नरेश के वकील के रूप में ब्रिटिश रेजीडेण्ट के पास बनारस भी गया। परन्तु वह गोरखों के विरूद्ध ब्रिटिश सहायता पाने में असफल रहा, उसके बाद वह कांगड़ा के शासक संसारचंद से भी सहायता लेने गया। अन्ततः थक हारकर उसने सकिय राजनीति से विदा ली और कनखल के निकट बस गया। सम्भवतः इसके पश्चात् भी हर्षदेव का सम्पर्क दिल्ली के ब्रिटिश रेजीडेण्ट फेजर और नेपाल के भगोडे राजा रणबहादुर से पत्राचार द्वारा जारी रहा।
गोरखा प्रशासन
उत्तराखण्ड में गोरखों का प्रशासन कमोबेश सैनिक प्रशासन ही अधिक था। यहाँ पर नेपाल नरेश के द्वारा नियुक्त 'सुब्बा' द्वारा शासन चलाया जाता था। उन्होंने चंद एवं पंवार राजाओं के प्रशासनिक तौर-तरीकों के स्थान पर नेपाली प्रशासनिक व्यवस्था को स्थापित करने का प्रयास किया। चंदकालीन कुछ प्रशासनिक नामावली का प्रयोग गोरखों ने जारी रखा किन्तु राजस्व व्यवस्था को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया। गोरखों ने जनता के शोषण की नवीन विधियाँ प्रारम्भ की। गोरखों के इस शोषित-प्रशासनिक पद्धति के मुख्यतः तीन आधार थे जो इस प्रकार थे-
(1) दासता
(2) कर-व्यवस्था
(3) बेगार
गोरखा प्रशासकों ने एक ऐसे प्रशासनिक तंत्र को विकसित करने का प्रयास किया जिस प्रकार का शासन विजित द्वारा जनता को प्रताड़ित करने के लिए किया जाता हैं। उन्होंने सामान्य जनता पर बड़ी सख्ती से शासन किया एवं उन्हें हर तरह से उत्पीड़ित किया। सम्भवतः इसका एक कारण उत्तराखण्ड की जनता का सामाजिक दृष्टि से गोरखों से उच्च होना भी था। इस कारण गोरखे स्थानीय जनता को दमित एवं आतंकित रखना चाहते थे। उत्तराखण्ड के समाज की बनावट और अन्य सांस्कृतिक रीति-रिवाज गोरखों से पूर्णतया भिन्न थे। फलतः गोरखे यहाँ के मूलवासियों को विधर्मी मानते थे। इस राज्य के ब्राह्मण जो गढ़वाल एवं कुमाऊँ दोनो जगह राजशासन में प्रमुख भूमिका निभाते थे, वे ही समाज के नीति नियामक और नियंत्रक भी थे। गोरखे उन्हें देशद्रोही, धोखेबाज व दगाबाज मानते थे और उनका दमन नितान्त आवश्यक मानते थे।
गोरखा लेख एवं अभिलेखों से गोरखा प्रशासन के कई पदाधिकारियों के नाम प्राप्त होते है। इनमें से प्रमुख थे-सुब्बा, काजी, फौजदार, सरदार, डिष्ढा (दिढा), विचारि एवं बक्शी आदि। सूबेदार के कार्य वही थे जो चंद शासनकाल में दीवान के कृत्य थे।
गढ़वाल पर अधिकार से पूर्व कुमाऊँ पर भिन्न-भिन्न गोरखा प्रशासकों ने शासन व्यवस्था संचालित की। सर्वप्रथम जोगा मल्ला सुब्बा कुमाऊँ के मामलों के देखभाल के लिए नियुक्त हुए। इन्होंने यहाँ पर सर्वप्रथम भू-प्रबन्ध व्यवस्था का शुभारम्भ किया। जोगमल्ला के इस भूमि प्रबन्ध का कारण कोई सुधार नहीं अपितु स्थानीय जनता से अधिकतम वसूली के माध्यमों की तलाश करना था। उसके पश्चात् कुछ नए कर लगाए। जोगामल्ला के दो वर्ष के काल के पश्चात् काजी नर शाही को कुमाऊँ का प्रशासक नियुक्त किया गया। इनकी सहायता के लिए रामदत्त शाही और कालू पाण्डे को भेजा गया। इस काल में तो जनता को और भी अधिक प्रताड़ित होना पड़ा। शोषण के नए-नए तरीके निकाले गए। इस काल में ही शोषण की परकाष्ठा का एक उदाहरण 'मंगलवार रात्रि हत्याकाण्ड' है। इस घटना में पाली, सोर और ब्रह्मण्डल में बसे नगरकोट से आए लोग, जो पूर्वकाल से ही भाड़े पर कार्य करने के लिए इस क्षेत्र में आते थे। इनमें से कुछ ने स्थानीय कन्याओ से विवाह किया और यहाँ बस गए। इनकी स्वामिभक्ति संदेहास्पद मानकर काजी नरशाही ने इनके पूर्णदमन की ठानी। अतः उसने इनकी गणना करवाई और एक मंगलवार की रात्रि सबकी हत्या करवा दी। आज भी लोग इस कुत्सित् घटना को 'मंगल की रात और नरशाही का पाला' के रूप में याद कर सिंहर उठते हैं। इस घटनाक्रम के बाद नरशाही को वापस बुला लिया गया और अजब सिंह थापा को दो सहायक श्रेष्ठा थापा और जसवंत भण्डारी के साथ कुमाऊँ का प्रशासक नियुक्त किया गया। अजब सिंह के काल में भी गोरखों द्वारा नरसहार जारी रहा। ओकले महोदय ने इस काल में जनता को भयांकित करने के लिए अल्मोड़े में 1500 ग्राम प्रमुख के सामूहिक नरसंहार का उल्लेख किया है। ओकले लिखते है कि इसके पश्चात् कई परिवार मैदानी क्षेत्रों और कई अन्य गढ़वाल की ओर पलायित कर गए जबकि कई परिवारों को दास बनाकर बेच दिया गया। अतः कुमाऊँ में आज भी लोग 'गोरख्याणी' अथवा 'गोरख्योल' को आतंक और क्रूरता का पर्याय मानते हैं।
इसके पश्चात् कुमाऊँ का प्रशासन रितुध्वज थापा और उसके सहयोगी विजय सिंह शाही और हरिदत्त सिंह के हाथों में रहा। रितुध्वज थापा को धोती में हुए कृत्य में फंसाया गया और वापस बुला लिया गया। उसके स्थान पर बमशाह चौतरिया को 1806 में कुमाऊँ का प्रशासक नियुक्त किया गया जो 1815 ई0 तक इस पद पर बना रहा।
1803 में गढ़वाल राज्य पर गोरखा विजय के पश्चात् चारों ओर जंगलराज कायम हो गया। दूनघाटी की स्थिति तो और भी खराब थी क्योंकि इस क्षेत्र पर न केवल गोरखा अत्याचार हो रहे थे बल्कि सहारनपुर और पंजाब के लुटेरों का भी निरन्तर प्रकोप बना रहा। फलतः दून की सुन्दर एवं उपजाऊ घाटी धीरे-धीरे निर्जन प्रदेश में बदल गया। इन सब प्रकार के अत्याचारों के प्रकोप से केवल गुरूरामराय दरबार के महन्त ही बचे रहे। गोरखों ने भी गढ़वाल नरेश फतेहशाह तथा प्रदीपशाह द्वारा उनको प्रदत्त भूमि-दान को मान्यता दी। तत्कालीन महन्त हर सेवक दास ने लोगों को इस घाटी में पुनःस्थापित करने का अथक प्रयास किया जिसमें उन्हें अल्प सफलता ही प्राप्त हुई। अन्ततः हस्तिदल शाह चौतरिया ने गढ़वाल के प्रशासक का कार्यभार संभाला। उनके प्रयासों से ही दून घाटी की स्थिति में सुधार आया। हस्तिदल ने इन बाह्य लुटेरों को धमकी दी कि उनके किसी भी गुट की दून क्षेत्र में की गयी लूट पर उनके एक ग्राम को जला दिया जायेगा। विलियम ने ऐसी एक कार्यवाही का उल्लेख किया है जब गोरखा सेनापति ने 200 सैनिकों की टुकड़ी को भेजकर लुटेरों के एक ग्राम को जलाने भेजा। इस टुकड़ी ने कुछ सुन्दर स्त्रियों को छोड़कर अन्य सभी ग्रामीणों की हत्या कर दी थी। इस प्रकार हस्तिदल की सख्ती के बाद पुनः दून घाटी में चहल-पहल आरम्भ हो पाई।
परगनों में शासन की बागडोर 'फौजदार' के हाथों में होती थी। फौजदार मूलतः सैनिक अधिकारी होता था। किन्तु परगने में वह दीवानी एवं छोटे मोटे फौजदारी वादों का निपटारा करने के लिए जिम्मेदार था। युद्धकाल में फौजदार को जब परगने के दीवानी और निजामत के कार्यों को करने का समय नहीं मिलता था तो वे अपने किसी अधीनस्थ को इसका अधिकार सौंप देता था। इस प्रकार से फौजदार के कृत्यों को करने का अधिकार प्राप्त वह पदाधिकारी 'विचारि' कहलाता था।
इसके अतिरिक्त गोरखा प्रशासन में जमादार, नानी हवलदार, दफ्तरी, समाना, थोकदार, पधान, कमीण आदि कर्मचारियों के नाम मिलते हैं। वस्तुतः प्रशासन विशुद्ध सैन्य प्रशासन था जिसका मूल उद्देश्य यहाँ के मूल निवासियों का उत्पीड़न और शोषण करना था।
राजस्व प्रशासन
अल्मोड़ा पर अधिकार हो जाने के बाद नेपाल नरेश रणबहादुर शाह का चाचा एवं संरक्षक चौतरिया बहादुर शाह कुमाऊँ की बागडोर अमरसिंह थापा के हाथों में सौंप वापस लौट गया। अमरसिंह थापा ने न केवल विद्रोह का दमन किया अपितु लम्बे समय से चल रहे चंदकालीन कुशासन का अंत किया। शासन को व्यवस्थित करने में उसे शूरवीर थापा और जगजीत पांडे का सहयोग मिला। उसने गोरखा आक्रमण के भय से पलायन कर गये लोगों से पुनः अपने-अपने गाँवो में बसने का फरमान जारी किया।
इस प्रकार धीरे-धीरे राजधानी अल्मोड़ा में सुव्यवस्था स्थापित होने लगी।
सम्पन्न एवं समृद्ध राजकोष सुव्यवस्थित शासन चलाने के लिए प्रथम आवश्यकता होती है और सैन्य प्रशासन में तो इसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। अतः गोरखों ने भी इस नीति का अनुसरण करते हुए जनता पर न केवल अनेक कर लगाए बल्कि उनकी वसूली भी कठोरता के साथ की। उनके काल में भी राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत भू-राजस्व ही था। इसके अतिरिक्त गोरखों ने कुछ चंदकालीन करों को बहाल रखा और अपनी तत्कालीन अवश्यकता के अनुरूप कुछ नए कर स्थापित किए। कुमाऊँ के प्रथम गोरखा प्रशासक जोगा मल्लाशाह ने जनता से अधिकाधिक राजस्व एकत्रिकरण के तरीके ढूढ़े। उसने प्रत्येक वीसी' कृषि भूमि पर एक रूपया अतिरिक्त कर लगाया। प्रत्येक व्यस्क कुमाऊँनी पर 1 रूपये, 2 आना और 6 पैसा प्रति ग्राम उसने अपने कार्यालय खर्च के रूप में वसूलना प्रारम्भ किया। उसके उत्तराधिकारियों ने भी शोषण की उसकी नीति को जारी रखा। गोरखा फौजदार निर्दयतापूर्वक जनता का खून चूसते थे और दोषीयों को बन्दी बनाकर हरिद्वार स्थित दास बजार में विक्रय कर देते थे। फेजर महोदय ने अनुमान लगाया है कि अपने पूरे शासनकाल में गोरखों ने लगभग दो लाख से अधिक स्त्री-पुरूष एवं बच्चों का विक्रय कर अपनी आय में वृद्धि की। चूंकि ब्राह्मण मुख्य बुद्धिजीवी वर्ग था और उनका राजनीति एवं प्रशासन में बड़ा हस्तक्षेप होता था। गोरखे ब्राह्मण को पूजनीय मानते थे किन्तु यहाँ आकर उन्होंने ब्राह्मणों को भी नहीं बक्शा। उन्हें यहाँ की राजनीति से ही विरक्त नहीं किया अपितु पाँच रूपये प्रतिझुलू का भारी कर उनकी कृषि भूमि पर आरोपित किया। उन्होंने यहाँ जो भी भू-व्यवस्था अथवा जनगणना करवाई उसका मूल कारण अपनी आय वृद्धि के अधिकतम मार्गों की खोज करना ही था।
लोगों को सेवा के बदले भूमि दी जाती थी जिसे 'मानाचौल' कहा जाता था। कत्यूरी एवं चंद काल के मन्दिरों को प्रदत्त भूमि 'विश्नुप्रीत' कहलाती थी। गोरखों ने न केवल यह व्यवस्था पूर्ववत् रखी बल्कि मन्दिरों को भूमिदान भी दिए किन्तु वे इसको 'गूंठ' कहते थे।
कृषि पर लगान में अत्यधिक वृद्धि कर दी गई। आय का एक अन्य स्त्रोत दास-दासियों का विकय था। इस काल में जिसके पास ताकत होती थी वह गरीबों को बेच सकता था। गरीब माता-पिता अपने बालक-बालिकाओं की बिकी के लिए बाध्य किए जाते थे। प्रत्यक्षदर्शी कैप्टन रैपर के अनुसार- 'प्रतिवर्ष हरिद्वार स्थित गोरखा चौकी में दास-दासियों की बिकी होती थी। अनेक प्रकार की चुंगिया, अर्थदण्ड तथा कुर्की भी राज्य की आय के स्त्रोत थे।
एटकिन्सन महोदय के अनुसार भूमिकर के अतिरिक्त प्रजा पर थोपे गए अन्य कर बड़े जबरदस्त थे।
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