कुमाऊँ में चंद शासन की स्थापना

कुमाऊँ में चंद शासन की स्थापना

सामाजिक जीवन


कुमाऊँ में चंद शासन की स्थापना के अवसर पर लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत में राजपूत राजाओं का शासन था। ये राजपूत शासक स्वयं को सूर्य व चंद्र के वंश से सम्बन्धित मानते थे। चंद राजा स्वयं को चंद्र के वंशज मानते थे। उनका परम्परागत ढाँचा भी इन मैदानी क्षेत्र के राजपूत राजाओं जैसा ही था। मैदानी क्षेत्र में इस वक्त परम्परागत चार वर्ण के अतिरिक्त अनेक जातियाँ एवं उपजातियाँ पैदा हो गयी थी। यद्यपि चंदकालीन ताम्रपत्र, पट्टे, मन्दिर एवं अभिलेखों में कही भी इस चर्तुवर्ण व्यवस्था का उल्लेख नहीं मिलता है।

डॉ० डी०सी० सरकार ने तालेश्वर ताम्रपत्र के आधार पर पौरव वंशी राजा धुतिवर्मन का उल्लेख किया है जो स्वयं को 'सोम-दिवाकर-अन्वयः' एवं पर्वताकार राज्य का 'परम भट्टारक महाराजाधिराज' कहता है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि वह अपने माता-पिता की ओर से सूर्य व चंद्र वंश दोनों से सम्बंध रखता था। सरकार ने कत्यूर के राजा ललित शूरदेव का उल्लेख भी किया है जो स्वयं को 'परम-महेश्वर' कहता है। इन विरुद्धों के आधार पर स्पष्ट होता है कि इस पर्वतीय क्षेत्र के राजा भी मैदानी भागों के राजाओं का ही अनुकरण करते थे। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि वे निरन्तर मैदानी राजपूत राजाओं से सम्पर्क में रहते थे।

इसके अतिरिक्त पाल नरेश नारायण पाल के बादल अभिलेख के लेखक और इस क्षेत्र के विष्णुभद्र एवं ललितशूर के ताम्रपत्र का लेखक गंगाभद्र एक ही कुल व वंश के प्रतीत होते हैं। 
यहीं नहीं ललितशूर एवं पाल नरेश नारायण पाल समकालीन भी हैं। कुमाऊँ क्षेत्र में वर्तमान में निवासित अधिकांश जातियाँ बंगाल, बिहार व कन्नौज से आयी हुई हैं। उदाहरणार्थ कोश्यारी राजपूत का मूल स्थान कोशिया नदी (बंगाल) के आस-पास स्थित है। इसी प्रकार कापड़ी नामक ब्राह्मण भी मूलरूप से बंगाल के हैं।

इस प्रकार अनेक जातियाँ भी मैदानी भागों से स्थान्तरित होकर इस क्षेत्र में बसी। इस क्षेत्र के प्रारम्भिक शासक कत्यूरियों का मूल निवास भी राजस्थान प्रतीत होता है। तमिल क्षेत्र के निवासी भी यहाँ आकर बसे क्योंकि मापन के लिए प्रयुक्त 'नाली' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग भी तमिल साहित्य में ही मिलता है। बहुत संभव है कि इन विभिन्न जातियों का आगमन इस क्षेत्र में युद्ध, तीर्थयात्रा एवं राजाओं द्वारा विशेषज्ञ के रूप में बुलाए गए ज्योतिषों, लेखकों, कलाकारों एवं स्थापत्यकारों के रूप में हुआ हो जो कालान्तर में यही बस गए।

नृविज्ञान के अध्ययन से ज्ञात होता है इस क्षेत्र में मुख्यतः तीन प्रजाति के मानव निवास करते हैं। आर्य जाति जिसके बाल नरम, कपाल लम्बा, मुँह व नाक लम्बा, शरीर एवं सिर लम्बा होता है। द्वितीय भूमध्य सागरीय प्रजाति (मंगोल) जिनका सिर गोल, कपाल चौड़ा, बाल कठोर, शरीर गठीला एवं छोटा होता है। तीसरी प्रजाति मिश्रित प्रजाति है जो इस क्षेत्र के मूल निवासियों-खस, नाग, किरात और आर्य अथवा भू-मध्य सागरीय प्रजाति के अनुलोम/प्रतिलोम विवाह के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आए। इस कम में जोशी और पंत ब्राह्मण महाराष्ट्र से आए जिन्हें डोटी के मल्ल शासकों ने पशुपतिनाथ मन्दिर के पुजारी के रूप में आमंत्रित किया और कालान्तर में ये डोटी से कुमाऊँ आए। जोशी नाम के ब्राह्मण का प्राचीनतम उल्लेख बत्युली (मुवानी पिथौरागढ़) से प्राप्त 1353 ई0 के ताम्रपत्र में हुआ था। ये लोग पुरोहित ही नहीं बल्कि ज्योतिष शास्त्र एवं लेखन में भी प्रवीण थे।

कुमाऊँ के समाज में ब्राह्मणों के तीन वर्ग मिलते हैं। इनमें श्रेष्ठतम 'चौथानी ब्राह्मण' मैदानी भागों अथवा डोटी राज्य से आकर यहाँ बसे। इनमें से कुछ कत्यूरी एवं कुछ चंद राजाओ के साथ आए। उदाहरणार्थ ओझा ब्राह्मण राजस्थान से आए। महेन्द्रपाल रजबार के सिगांली ताम्रपत्र (1322 ई0) में भूमिदान प्राप्तकर्ता रघुनाथ ओझा को 'त्रिविक्रम सिंह' कहा गया है। राजस्थान से आए ब्राह्मणों को ताम्रपत्र में 'ठक्कर' कहा गया हैं। प्रतीत होता है कि प्रथम श्रेणी के ब्राह्मणों में जोशी, सिमलिटया पांडे, द्यौलपलिया पांडे, पंत, तिवाड़ी और सौंज्याल बिष्ट रहे होगें। गढ़वाल भू-भाग में इस श्रेणी के ब्राह्मणों को सरोला (बारथानी) के रूप में मान्यता प्राप्त थी। द्वितीय श्रेणी में वे ब्राह्मण आते थे जिनकी शिक्षा एवं स्थिति समुन्नत नहीं थी जबकि तृतीय में खसों के मध्य से उभरे ब्राह्मण थे जो अपनी जाति में ही पौरोहित्य का कार्य करते थे।

राजपूतों की भी दो श्रेणियाँ थी। प्रथम तो आर्य राजपूत थे जो इस क्षेत्र में बाहर से आए एवं स्वयं को सूर्यवंशी अथवा चंद्रवंशी कहते थे। चंदवंश के राजा स्वयं इसी श्रेणी के राजपूत थे। द्वितीय श्रेणी के राजपूत इस क्षेत्र के ही मूल निवासी थे जिनमें अधिकांश खस प्रजाति से सम्बन्ध रखते थे। समाज के तीसरे भाग के रूप में मान्य वैश्य वर्ग 'साहू' के रूप में हुआ है। इस वर्ण के लोग प्रायः बाहर से आकर यहाँ बसे। इनमें अधिकांश शिल्पकर्म से सम्बन्धित थे। उदाहरणार्थ उत्कीर्णक, सुतार, सुदार, सूत्रधार इत्यादि। कुमाऊँ क्षेत्र में उत्कीर्णक का कार्य सुनार एवं टम्टा करते थे। इस वर्ण की कुछ जातियों का राजपरिवार से निकट सम्बन्ध होता था। उदाहरण के लिए राजकोली का कार्य राजपरिवार के लिए कपड़ा बुनना था। पौरी-राजमहल की चौकदारी का कार्य करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि क्षेत्र में कर्म के आधार पर ही जातिनाम का प्रचलन हो गया। फूलेरिया, परेरू, दुर्गापाल, मठपाल, कांडपाल, मटियानी, बखरिया, भंडारी, नेगी, सुनार इत्यादि ऐसी कई जातियाँ है जो अपने पेशे के नाम से ही जाति रूप में परिवर्तित हो गए।

इस तथ्य में शत-प्रतिशत सच्चाई है कि कुमाऊँ क्षेत्र में असंख्य जातियाँ, उपजातियाँ पूर्वकाल से अस्तित्व में आ गई थी किन्तु यहाँ का समाज सदैव रागद्वेष से विरक्त रहा। चंदकाल में समाज सम्पन्न था एवं समाज में सहयोग, अनुराग एवं कर्तव्यबोध का वातावरण था। ललितदेव शूर ने तो अपने पांडुकेश्वर ताम्रपत्र में इस समाज की 'अष्टादश प्रकृति' कहकर प्रशंसा भी की है। इसी अभिलेख से ज्ञात होता है कि खस, किरात, द्रविड़, कंलिग, सोर, हूण, ओर, मेंड़, आन्ध्र, चांडाल आदि उसकी प्रजा थी। पिथौरागढ़ का प्राचीन नाम 'सोर' भी 'सोर नामक नाग' जाति पर ही पड़ा क्योंकि इस क्षेत्र पर इस जाति का प्रभुत्व था। चंपावत (पर्वतीय अहिच्छत्तपुर) पर 'नवनागों' के प्रभुत्व की जानकारी यहां से प्राप्त एक सूर्य मन्दिर की शिला पर जपनाग के पुत्र शंभुनादि के सूर्य मन्दिर निर्माण के उल्लेख से मिलता है। शक एवं कुणिन्दों की उपस्थिति यहाँ थी जिसकी जानकारी थरकोट-बलकोट गांव के मन्दिर से शक वेशभूषा में शिला पर राजा का चित्र उत्कीर्ण से मिलता है। इसके अतिरिक्त चंपावत क्षेत्र से शक-कुणीन्द ताम्र सिक्के एवं पुरातात्विक महत्व की सामग्री से भी इस क्षेत्र में शकों के आने की पुष्टि होती है। अतः कुमाऊँ में समाज का निर्माण मूल जातियों, आव्रजक जातियों और इन दोनों के अनलोम/प्रतिलोम मेल से हुआ। इस समाज की मुख्य विशेषता पारस्परिक सौहार्द एवं कर्तव्यबोध की भावना थी।

धार्मिक जीवन

उत्तराखण्ड राज्य प्राचीन काल से अपने तीर्थस्थलों के लिए प्रसिद्ध रहा है। अतः निश्चित ही यहाँ की जनता का जीवन भी अत्यधिक धार्मिक रहा होगा। राज्य के गढ़वाल कुमाऊँ क्षेत्र में अनगिनत मन्दिर इस तथ्य को प्रमाणित भी करते हैं। चंद राजाओं के काल में कुमाऊँ क्षेत्र में हिन्दू एवं बौद्ध धर्म के प्रचलन के अवशेष प्राप्त होते हैं। सामाजिक जीवन की भाँति धार्मिक जीवन में विभिन्न सम्प्रदायों के लोगों के निवास होने के बावजूद कोई द्वंद नजर नहीं आता। इस क्षेत्र में विद्यमान आर्य जातियों के नाम संस्कृत में निस्तृत मिलते हैं जो प्रायः किसी देवी-देवता के नाम से साम्य रखते हैं। बहुत संभव है कि जातियों के नाम भी उनके पूज्य देवी-देवताओं के नामों के आधार पर रखे गए हों। इससे इस तथ्य की पुष्टि अवश्य होती है कि इस क्षेत्र की आर्य एवं अनार्य जातियाँ धार्मिक प्रवृत्ति की थी।
इस क्षेत्र की प्राचीनतम धार्मिक विश्वासों में 'ऐड़ी' व 'घुरूड़िया' देवताओं की पूजा का मिलता है। ये दोनों इस क्षेत्र के प्राचीनतम पूज्य देवता है जिनकी आज भी पूजा प्रचलित है। घुरूड़िया देवता की पूजा ज्येष्ठ के महीने में होती है। इसे 'ग्वाल देवता' के नाम से भी पुकारा जाता है। इन दोनों देवताओं की पूजा पशुचारक समाज के द्वारा होती थी। चंदकाल में कुमाऊँ के प्रत्येक भाग से कत्यूर शैली की अनुकृति पर भिन्न-भिन्न स्मार्त देवी-देवताओं के मन्दिर निर्मित है। स्मार्त देवी-देवताओं की इस श्रेणी में विष्णु, महेश, गणेश, कार्तिकेय, सूर्य, रेवन्त, कृष्ण, बलराम इत्यादि शामिल हैं।
चंद राजा स्वयं शैव सम्प्रदाय के उपासक थे इसलिए उन्होंने शिव के अधिक मन्दिर और देवालय बनाए। इनमें प्रमुख हैं चंपावत का नागनाथ मन्दिर, अल्मोड़ा के रत्नेश्वर, सोमेश्वर, कपिलेश्वर भैरव व क्षेत्रपाल मन्दिर । त्रिमंलचंद ने जागेश्वर के मन्दिर बनवाए जो कि आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संस्थान (ASI) द्वारा संरक्षित हैं। कत्यूरी काल में निर्मित बागेश्वर के शिव मन्दिर का जीर्णोद्वार लक्ष्मीचंद ने करवाया। बैजनाथ का लक्ष्मीनारायण मन्दिर भी चंद काल का है। पिथौरागढ़ में दिड़नस, कासनी, मर्सोली नकुलेश्वर, चौपाल मन्दिर एवं डीडीहाट के निकट मढ़ का सूर्य मन्दिर, रामेश्वर, बूढाकेदार इत्यादि भी चंदकालीन निर्माण हैं। यहाँ के एक मन्दिर में विष्णु और उनकी दो पत्नियाँ-राज्ञी और निक्षुभा उत्कीर्ण है एवं पार्श्व में गन्धर्व व विद्याधर है। गन्धर्वों के हाथों में मृदंग एवं मालाएँ हैं।

मूढ़ के सूर्य मन्दिर के भग्नावशेष में सूर्य की एक अतिसुन्दर प्रतिमा है जिस पर कालवज लेप चढ़ा है। इस प्रतिमा की बनावट विष्णुधर्मोत्तर पुराण एवं अशुमद् भेदागम में उल्लिखित विशेषताओं से युक्त हैं। इस प्रतिमा में सिर पर किरीट धारण किए सूर्य देव सात घोड़ों के रथ पर सवार हैं जिसे उनका सारथी अरुण हाँक रहा है। इस प्रतिमा में सूर्यदेव के दोनों ओर उनकी पत्नियाँ छाया व सुवर्चसा उत्कीर्ण हैं। इस मन्दिर के निकट जलकुंड के भग्नावशेष भी नजर आते है। मूढ के इस मन्दिर के ही निकट 'हथिया देवाल' है जिसकी बनावट एलोरा के कैलाश मन्दिर के समान है। एक ही चट्टान पर उकेरे गए इस देवाल की ऊँचाई लगभग 8 फुट है जिसके पश्चिम में मंडल बनाया गया है। मुख्य मन्दिर (विमान) के चारों कोनो में उरू-श्रृंग बने है। सम्भवतः मन्दिर का द्वार पश्चिम की ओर होने के कारण इसका उपयोग केवल जनेऊ संस्कार के लिए होता था। इसी के निकट रामगंगा नदी तट पर रूद्रचंद निर्मित भव्य शिव मन्दिर है जिसमें प्रतिवर्ष बैशाख पूर्णिमा के मेले का आयोजन होता है।
मर्सोली और कासनी में प्रारम्भ में 5-5 मन्दिर पंचायतन शैली में बने होगें क्योंकि वर्तमान में 2-3 ही अस्तित्व में है जबकि द्वार स्तम्भ नष्ट प्रायः है। यहाँ नकुलेश्वर मन्दिर से 35-36 मूर्तियाँ मिली है। यहीं से लाल बलुएँ पत्थर पर उकेरी बासुदेव की द्विभुजी प्रतिमा उकेरी गई थी। मर्मोली में दो मन्दिरों के अलावा शेष मन्दिरों के भग्न अवशेष बिखरे पड़े हैं। मन्दिरों के शिखर पर लगे आमलक भी जीमन पर पड़ें है। यहाँ प्रयुक्त पत्थरों के समान पत्थर ही लाखामंडल के भव मन्दिर में प्रयुक्त हुए हैं। मर्सोली के लक्ष्मी नारायण मन्दिर में अति सुन्दर लक्ष्मी नारायण मूर्ति स्थापित है जिसमें विष्णु की बाई जंघा पर लक्ष्मी विराजमान हैं।
भग्नप्रायः स्तम्भों में बने प्रकोष्ठों में विष्णु के दशावतारों के चित्र उत्कीर्ण हैं। सभी स्तम्भों के कोनों पर गज-व्याल और सिंह-व्याल बने हुए हैं। इसके अतिरिक्त फलकों पर कार्तिकेय का चित्र भी है। एक पैनल पर दुर्गा राक्षस वध करती मूर्ति स्थापित है। इसके अतिरिक्त परशुराम अवतार, हयग्रीव, रेवन्त व कल्कि अवतारों के चित्र भी अंकित मिलते हैं।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि कुमाऊँ क्षेत्र में अधिसंख्य जनता शिव अथवा विष्णु के विभिन्न सम्प्रदायों की उपासक थी। शाक्त धर्म के अनुयायी भी इस भू-भाग में निवास करते थे। सम्भवतः शक् आगमन के साथ में इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म ने भी प्रवेश किया। थलकोट-बलकोट गांव के मन्दिर के शिलापट्ट पर अंकित शक वेशधारी राजा के चित्र में उसे 'स्थानक मुद्रा' में दिखाया गया है। यही पास ही एक नौले में 'साल भंजिका' मुद्रा में स्त्री चित्र भी है जो इस क्षेत्र में स्मार्त धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म की लोकप्रियता की ओर संकेत करता है। अस्कोट के पास सिगांली में बौद्ध मठ आज भी है। मन्दिरों को 'मठ' या 'मोडा' कहने की प्रथा भी बुद्ध धर्म का ही प्रभाव है। बौद्ध धर्म के बज्रयान, चकयान एवं मंत्रयान सम्प्रदाय के लक्षण आज भी इस क्षेत्र के गोरखपंथी समाज में देखने को मिलते है। नकुलेश्वर मन्दिर के पास से भगवान बुद्ध की 'भूमिस्पर्श मुद्रा' में उत्कीर्ण मूर्ति हैं। बौद्ध ग्रन्थों में इसे 'मार विजय' कहा गया है। अतः बौद्ध धर्म भी इस क्षेत्र में लोकप्रिय हुआ।
उपरोक्त के अतिरिक्त इस क्षेत्र की मुख्य विशेषता ग्रामीण देवी-देवताओं की पूजा है। प्रत्येक ग्राम का अपना एक 'ग्राम-देवता' होता था। जैन धर्म के आगमन के इस क्षेत्र में कोई संकेत नहीं मिले हैं। संक्षेप में हम कह सकते है कि इस क्षेत्र में विभिन्न धर्मों का सौहार्दपूर्ण सह-आस्तित्व था। यहाँ के लोगों की पूजा पद्धति सरल थी।

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