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इस सिद्धपीठ में चैत्र और शारदीय नवरात्रों में विशेष पाठ का आयोजन होता है। इस मौके पर देश-विदेश से बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। विशेषकर अविवाहित कन्याएं सुयोग्य वर की कामना लेकर आती हैं। ज्वाल्पा थपलियाल और बिष्ट जाति के लोगों की कुलदेवी है।
मां पार्वती ने शची की तपस्या पर प्रसन्न होकर उसे दीप्त ज्वालेश्वरी के रूप में दर्शन देते हुए उसकी मनोकामना पूर्ण की। ज्वाला रूप में दर्शन देने के कारण इस स्थान का नाम ज्वालपा पड़ा।
देवी पार्वती के दीप्तिमान ज्वाला के रूप में प्रकट होने के प्रतीक स्वरूप अखंड दीपक निरंतर मंदिर में प्रज्ज्वलित रहता है। इस प्रथा को यथावत रखने के लिए प्राचीन काल से निकटवर्ती मवालस्यूं, कफोलस्यूं, खातस्यूं, रिंगवाडस्यूं, घुड़दौड़स्यूं और गुराडस्यूं पट्टयों के गांवों से सरसों को एकत्रित कर मां के अखंड दीप को प्रज्ज्वलित रखने हेतु तेल की व्यवस्था की जाती है।
18वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह ने मंदिर को 11.82 एकड़ सिंचित भूमि दान दी थी। ताकि यहां अखंड दीपक हेतु तेल की व्यवस्था के लिए सरसों का उत्पादन हो सके। कहा जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने यहां मां की पूजा की थी, तब मां ने उन्हे दर्शन दिए।
सिद्धपीठ ज्वालपा मंदिर काफी सुगम स्थान पर स्थित है। मंदिर के एक ओर मोटर मार्ग और दूसरी ओर नयार नदी बह रही है। ज्वाला धाम पौड़ी से 33 किमी0 और कोटद्वार से 73 किमी0 की दूरी पर स्थित है।
मां ज्वालपा आप सबकी मनोकामनाएं पूर्ण करें।
ज्वाल्पा देवी सिद्ध पीठ | शची ने इंद्र को पाने के लिए यहां की थी तपस्या !
उत्तराखंड के पौड़ी स्थित पौड़ी-कोटद्वार मार्ग पर नयार नदी के तट पर स्थित ज्वाल्पा देवी सिद्ध पीठ पौराणिक महत्व को समेटे हुए है। इस पीठ के बारे में प्रसिद्ध है कि यहां आने पर हर मनोकामना पूर्ण होती है।
इस सिद्धपीठ में चैत्र और शारदीय नवरात्रों में विशेष पाठ का आयोजन होता है। इस मौके पर देश-विदेश से बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। विशेषकर अविवाहित कन्याएं सुयोग्य वर की कामना लेकर आती हैं। ज्वाल्पा थपलियाल और बिष्ट जाति के लोगों की कुलदेवी है।
स्कंदपुराण के अनुसार, सतयुग में दैत्यराज पुलोम की पुत्री शची ने देवराज इंद्र को पति रूप में प्राप्त करने के लिए नयार नदी के किनारे ज्वाल्पा धाम में हिमालय की अधिष्ठात्री देवी मां पार्वती की तपस्या की थी।
मां पार्वती ने शची की तपस्या पर प्रसन्न होकर उसे दीप्त ज्वालेश्वरी के रूप में दर्शन देते हुए उसकी मनोकामना पूर्ण की। ज्वाला रूप में दर्शन देने के कारण इस स्थान का नाम ज्वालपा पड़ा।
देवी पार्वती के दीप्तिमान ज्वाला के रूप में प्रकट होने के प्रतीक स्वरूप अखंड दीपक निरंतर मंदिर में प्रज्ज्वलित रहता है। इस प्रथा को यथावत रखने के लिए प्राचीन काल से निकटवर्ती मवालस्यूं, कफोलस्यूं, खातस्यूं, रिंगवाडस्यूं, घुड़दौड़स्यूं और गुराडस्यूं पट्टयों के गांवों से सरसों को एकत्रित कर मां के अखंड दीप को प्रज्ज्वलित रखने हेतु तेल की व्यवस्था की जाती है।
18वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह ने मंदिर को 11.82 एकड़ सिंचित भूमि दान दी थी। ताकि यहां अखंड दीपक हेतु तेल की व्यवस्था के लिए सरसों का उत्पादन हो सके। कहा जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने यहां मां की पूजा की थी, तब मां ने उन्हे दर्शन दिए।
सिद्धपीठ ज्वालपा मंदिर काफी सुगम स्थान पर स्थित है। मंदिर के एक ओर मोटर मार्ग और दूसरी ओर नयार नदी बह रही है। ज्वाला धाम पौड़ी से 33 किमी0 और कोटद्वार से 73 किमी0 की दूरी पर स्थित है।
मां ज्वालपा आप सबकी मनोकामनाएं पूर्ण करें।
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