उत्तराखंड की मृदा (Soil of Uttarakhand)
उत्तराखंड की मृदा वह प्राकृतिक पिण्ड है जो विच्छेदित एवं अपक्षयित खनिजों चट्टानों और कार्बनिक पदार्थों के विगलन से निर्मित पदार्थों के परिवर्तनशील मिश्रण से परिच्छेदिका के रूप में संश्लेषित होती है और पृथ्वी को एक पतले आवरण के रूप में ढके रहती है। मृदा में खनिज, जैव पदार्थ, जल एवं वायु के अलावा कई प्रकार के सूक्ष्म जीव भी पाये जाते हैं। विभिन्न जगह की मृदाओं में इन पदार्थों के अनुपात भिन्न-भिन्न होते हैं। इन्हीं भिन्नताओं के आधार पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने देश की सम्पूर्ण मृदा को 8 प्रमुख भागों (जलोढ़, लाल, काली, लैटराइट, मरुस्थलीय, पर्वतीय, पीट व दलदली तथा लवणीय एवं क्षारीय) में बांटा गया है। इस विभाजन के अनुसार उत्तराखण्ड की मृदा पर्वतीय या वनीय मृदा है, जो कि अभी अविकसित अवस्था में है। इस मृदा में चूना और फास्फोरस की कमी लेकिन जीवांश की अधिकता है। इस विभाजन सम्पूर्ण देश के सन्दर्भ में एक सामान्य विभाजन है। धरातलीय एवं जलवायु सम्बंधी भिन्नताओं के कारण राज्य में अनेक प्रकार की मृदा पाई जाती हैं जिनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं।
उत्तराखण्ड की मृदा
तराई मृदा (Lowland Soil)
राज्य के सबसे दक्षिणी भाग में देहरादून के दक्षिणी सिरे से ऊधम सिंह नगर तक महिन कणों के निक्षेप से निर्मित तराई मृदा पाई जाती हैं। राज्य की अन्य मिट्टियों की अपेक्षा यह अधिक परिपक्व तथा नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की कमी वाली मृदा है। यह मृदा समतल, दलदली, नम और उपजाऊ होती है। इस क्षेत्र में गन्ने एवं धान की पैदावार अच्छी होती है।
भॉवर मृदा तराई के उत्तर और शिवालिक के दक्षिण यह मृदा पाई जाती है। हिमालयी नदियों के भारी निक्षेपों से निर्मित होने के कारण यह मिट्टी कंकड़ों-पत्थरों तथा मोटे बालुओं से निर्मित है। जो कि काफी छिछली होती हैं, जिस कारण जल नीचे चला जाता है। यह मृदा कृषि के लिए अनुपयुक्त है।
[ उत्तराखंड की भौगोलिक संरचना ] [उत्तराखंड की मृदा ] [ उत्तराखंड की जलवायु ] [ उत्तराखण्ड में नदियाँ ]
चारागाही मृदा(Pasture Soil)
ऐसी मृदाएं निचले भागों में जलधाराओं के निकट नदियों एवं अन्य जल प्रवाहों के तटवर्ती क्षेत्रों में पाई जाती है। इस मृदा को निम्न पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है - (1) मटियार दोमट (भूरा रंग, नाईट्रोजन तथा जैव पदार्थ अधिक एवं चूना कम), (2) अत्यधिक चूनेदार दोमट (3) कम चूनेदार दोमट (4) गैर चूनेदार दोमट (5) बलुई दोमट।
टर्शियरी मिट्टी (Tertiary Soil)
ऐसी मिट्टी शिवालिक की पहाड़ियों तथा दून घाटियों में पायी जाती है जोकि हल्की, बलुई एवं छिद्रमय अर्थात् आद्रता को कम धारण करती है। इसमें वनस्पति एवं जैव पदार्थ की मात्रा कम होती है। लेकिन दून घाटी के मिट्टी में अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा वनस्पति के अंश की अधिकता तथा आर्द्रता धारण करने की क्षमता अधिक होती है। इसे टर्शियरी मिट्टी कहा जाता हैं।
क्वार्ट्ज मिट्टी (Quartz Soil)
यह मिट्टी नैनीताल के भीमताल क्षेत्र में पायी जाती है। आद्य, पुरा एवं मध्य कल्प के क्रिटेशियस युग में निर्मित शिष्ट, शेल, क्वार्ट्ज आदि चट्टानो के विदीर्ण होने से इसका निर्माण हुआ है। यह मिट्टी हल्की एवं अनुपजाऊ होती है। इसे क्वार्ट्ज मृदा कहा जाता है।
ज्वालामुखी मिट्टी (Volcanic Soil)
नैनीताल जिले के भीमताल क्षेत्र में यह मिट्टी पायी जाती है। आग्नेय चट्टानों के विदीर्ण होने से निर्मित यह मिट्टी हल्की एवं बलुई है तथा कृषि कार्य के लिए उपयुक्त है। इस प्रकार की मृदा को ज्वालामुखी मिट्टी कहा जाता है।
दोमट मिट्टी (Loamy Soil)
शिवालिक पहाड़ियों के निचले ढालों तथा दून घाटी में सहज ही उपलब्ध इस मिट्टी में हल्का चिकनापन के साथ- साथ चूना, लौह अंश और जैव पदार्थ विद्यमान रहते हैं।
भूरी लाल-पीली मिट्टी (Brown Reddish-Yellow Soil)
नैनीताल, मंसूरी व चकरौता के निकट चूने एवं बलुवा पत्थर, शेल तथा डोलोमाइट चट्टानों से निर्मित यह मृदा पाई जाती है। इसका रंग भूरा, लाल अथवा पीला होता है। ऐसा धरातलीय चट्टानों एवं वानस्पतिक अवशेषों के होता है। यह मृदा अधिक आद्रता ग्राही और उपजाऊ होती है।
लाल मिट्टी (Red Clay)
यह मिट्टी अधिकांशतः पहाड़ों की ढालों या पर्वतों के किनारे पायी जाती है। यह मिट्टी असंगठित होती है। वन की भूरी मिट्टी यह मिट्टी उत्तराखण्ड के अधिकांश वनीय भागों में पायी जाती है। इसमें जैव तत्व की अधिकता तथा चूना व फास्फोरस की कमी होती है।
भस्मी मिट्टी (Burnt Clay)
यह मिट्टी कम ढालू स्थानों, पर्वत श्रेणियों के अंचलों तथा उप-उष्ण देशीय एवं समशीतोष्ण सम्भगों में पायी जाती है।
उच्चतम पर्वतीय छिछली मृदा (Top Mountain Soil)
यह मृदा कम वर्षा वाले उच्च पहाड़ी भागों में मिलती है। अत्यधिक शुष्कता तथा वनस्पति के अभाव के कारण यह बिल्कुल अपरिपक्व होती है। इसकी परत पतली होती है।
उच्च मैदानी मृदा (Upland Soil)
यह मृदा 4000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर पाये जाने वाले घास के मैदानों में मिलती है। शुष्क जलवायु, वायु अपक्षय तथा हिमानी अपरदन के प्रभाव के कारण इन मिट्टियो में प्रायः नमी की कमी पायी जाती है। यह हल्की क्षारीय तथा कार्बनिक पदार्थों के उच्च मात्रा से युक्त होती है। चट्टानी टुकड़ों तथा अन्य प्रदूषित पदार्थों के मिश्रण के कारण इस मिट्टी के गठन एवं संरचना में विभिन्नता आ जाती है। इन्हें एल्पाइन चारागाह (पाश्चर्स) मृदा भी कहते है।
उप-पर्वतीय मृदा(Sub-Mountain Soil)
घास के मैदानों से निचले भागों में जहाँ देवदार, स्प्रूस, ब्लूपाइन आदि के वन मिलते हैं ऐसी मृदा पाई जाती हैं। इसमें जीवांश अधिक होता है। इस मृदा की ऊपरी परत रेतीली और संगठित होती है जबकि निचली परत असंगठित होती है। इनका रंग-लाल-भूरा अथवा पीला होता है। वर्षा की अधिकता के कारण इनमें आद्रता अधिक होती है।
उत्तराखण्ड की कृषि(Agriculture of Uttarakhand)
उत्तराखण्ड एक कृषि प्रधान राज्य है। इसकी कार्यशील जनसंख्या का लगभग 70 फीसदी भाग कृषि कार्य पर निर्भर है। पहाड़ी राज होने के दृष्टिगत कुल क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किमी में से 46,035 वर्ग किमी भाग पर्वतीय है, जबकि मात्र 7,448 वर्ग किमी भाग ही मैदानी है। इसमें से 12.90 प्रतिशत ही कृषि कार्य में प्रयुक्त होता है जो कुल 6.90 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल है। राज्य में सर्वाधिक कृषि भूमि ऊ सि न एवं हरिद्वार जनपद में है। राज्य को खाद्यान्न उत्पादन में भारत सरकार द्वारा कृषि कर्मा सांत्वना पुरस्कार प्रदान किया गया है। राज्य में पर्वतीय कृषि में कुल कृषि क्षेत्रफल का 56 प्रतिशत पर्वतीय भाग, पर्वतीय कृषि जबकि 44 प्रशित भाग मैदानी कृषि के अन्तर्गत आता है। पर्वतीय कृषि में मात्र 11 प्रतिशत ही वास्तविक सींचित है, मैदानी कृषि में 44 प्रतिशत किन्तु मुख्य कृषि उत्पादन क्षेत्र यही है। यहां 94 प्रतिशत भाग सींचित क्षेत्र है। यहां की 69.77 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है, जो कि प्राथमिक क्षेत्र में नियोजित है।
राज्य में आजीविका का प्रमुख साधन कृषि एवं पशुपालन है। राज्य की कुल कार्यशील जनसंख्या में से 33.38 प्रतिशत लोग कृषि से जुड़े हैं। आर्थिक सर्वेक्षण 2018–19 के अनुसार कृषि का राज्य सकल घरेलू उत्पादन में 10.81 प्रतिशत का योगदान था। उत्तराखण्ड में सर्वाधिक शुद्ध बोए गए भूमि क्षेत्रफल वाला जिला ऊधम सिंह नगर है। उत्तराखण्ड में सबसे कम शुद्ध बोए गए भूमि क्षेत्रफल वाला जिला चम्पावत है।
राज्य में कृषि जोतें(Agricultural holdings in the state)
वर्ष 2015-16 की कृषि गणना के आधार पर प्रदेश में कुल 8,81,305 जातें हैं। कुल बाये गए क्षेत्रफल का 31 प्रतिशत क्षेत्र गेहूं के अन्तर्गत, जिस कारण यह प्रदेश की मुख्य फसल है। धान 25 प्रतिशत, मंडुआ 10 प्रतिशत जबकि गन्ना 8 प्रतिशत क्षेत्र में बोया जाता है। राज्य में कृषि भूमि नापने हेतु प्रयुक्त पैमाना मुट्ठी/नाली है।
1 नाली- 200 वर्ग मी
50 नाली - 10,000 वर्ग मी- 01 हेक्टेयर
16 मुट्ठी - 01 नाली
2.5 नाली- 40 -मुट्ठी 1 बीघा
राज्य में गढ़वाल मण्डल की अपेक्षा कुमाऊँ मण्डल में कृषि भूमि अधिक है। उत्तराखण्ड में मैदानी भागों में कृषि भूमि का विभाजन मिट्टी की प्रकृति के आधार पर होता है। पर्वतीय भागों में कृषि भूमि का विभाजन सिंचाई सुविधा के अनुसार होता है।राज्य गठन के समय सक्रिय जोतों की संख्या 9.26 लाख थी, जो वर्तमान में 8.91 रह गई। जिसमें 3.5 प्रतिशत की कमी हो गई है। ब्रिटिश काल से पूर्व राज्य में जो भी भूमि बंदोबस्त किए गए, वे सभी मनुस्मृति पर आधारित थे। अंग्रेजों से ठीक पूर्व 1812 में गोरखा काल में भूमि-बन्दोबस्त कराया गया था। ब्रिटिश काल का 9वाँ व सबसे महत्वपूर्ण भू-बन्दोबस्त 1863-73 में हुआ था, जो कि जी ई विकेट की अध्यक्षता में होने के कारण विकेट बन्दोबस्त कहलाता है। विकेट बन्दोबस्त में पहली बार वैज्ञानिक पद्धति को अपनाया गया। ब्रिटिश काल का पहला भूमि बन्दोबस्त 1815-16 में हुआ था। विकेट बंदोबस्त में सिंचाई उपलब्धता के आधारपर पर्वतीय भूमि को पांच वर्गों में में बांटकर खातेदारों को उनकी भूमि का सटीक लेखा-जोखा, खसरा, खतौनी एवं शबरा उपलब्ध कराया गया था।
पर्वतीय कृषि भूमि के प्रकार (Types of Hill Farming Land)
राज्य में मैदानी भागों में कृषि भूमि का विभाजन मिट्टी की प्रकृति के आधार पर किया जाता है इसके विपरित पर्वतीय भागों में सिंचाई की सुविधा के आधार पर किया जाता है
- तलाऊं
- उपराऊं अव्वल
- उपराऊं दोयम
- इजरान
- कंटील
तलाऊं भूमि(Flat Land)
राज्य की अधिकांशतः छोटी-बड़ी नदियां अपने प्रवाह क्षेत्र में उर्वर घाटियों का निर्माण करती हैं। यह क्षेत्र मध्यम कृषि उपज वाला क्षेत्र माना जाता है। इसी प्रकार की घाटी कोसी नदी घाटी भी है, जिसे राज्य में धान का कटोरा नाम से जाना जाता है। यह कृषि हेतु सर्वाधिक श्रेष्ठ होती है। यह उपराऊं भूमि से तीन गुना अच्छी होती है।
तलाऊं भूमि तीन प्रकार की होती है।
- सेराअत उत्तम जलोड़ मिट्टी
- फणचर यह पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा जल पर निर्भर
- सिमार यहां निरन्तर जल भरा रहता है।
यहां रौखड़, तप्पड़ व बगड़ भूमि पाई जाती है।
उपराऊं भूमि(Above Land)
यहां की लाल रंग की होती है। उपराऊं भूमि को उखड़ भूमि कहा जाता है।
उपराऊं अव्वल भूमि (Uppermost Land)
यह उपराऊं दोयम से डेढ़ गुना अच्छी भूमि होती है।
उपराऊं दोयम भूमि (Secondary Land)
यह इजरान भूमि से दो गुना अच्छी होती है।
इजरान भूमि(Ejran Land)
वनों के किनारे या बीच में स्थित अपरिपक्व पथरीली भूमि इजरान भूमि कहलाती है। यह कृषि हेतु अनुपयुक्त होती है। इसे कटील, उखेड़ी और इज्जर भूमि भी कहा जाता है।
स्थानीय भूमि का बंटवारा(Division of Local Land)
गाड भूमि(Gad Bhoomi)
छोटी नदी की घाटी में स्थित खेत गाड़ भूमि कहलाती है।
इजर भूमि(Izar Bhoomi)
कम उपजाऊ भूमि जिसमें तीसरे वर्ष खेती होती हैं।
धुरा-डांडा भूमि (Dhura Bhoomi)
ऊंचाई वाले क्षेत्र की भूमि को धुरा या डांडा भूमि कहा जाता है।
रौ या रय भूमि(Raw Bhoomi)
गहरी घाटी में स्थित क्षेत्र, जिसकी प्राकृतिक बनावट ऐसी होती है कि उसमें पानी एकत्र होकर तालाब का रूप ले लेता है।
खिल-कटील भूमि (Blooming Bhoomi)
जंगल में बंजर भूमि को खिल-कटील भूमि कहा जाता है।
- गांवों के समीप की भूमि - घरया
- गांवों के मध्य की भूमि - बिचल्या
- वनों से लगी भूमि - बुण्या
बगड़ भूमि(Bagad Bhoomi)
पर्वतीय क्षेत्रों या मैदानी क्षेत्रों में नदियों के समीप के तटीय भाग बगड़ कहलाता है। ऐसी भूमि सर्वाधिक शिवालिक क्षेत्र में पाई जाती है।
तप्पड़ भूमि(Tappad Bhoomi)
पहाड़ी ढलानों के बीच में अपेक्षाकृत जो समतल भूमि के जो टुकड़े पाये जाते हैं, उसे ही तप्पड़ भूमि कहा जाता है।
रौखड़ भूमि(Roukhad Bhoomi)
कंकड़-पत्थर युक्त भूमि को रौखड़ भूमि कहलाती है।
तराई -भावर भूमि(Tarai-Bhawar Bhoomi)
पर्वतीय क्षेत्रों के दक्षिण में जहां पर हमारी पहाड़ियां समाप्त हो जाती हैं वहां से मैदान प्रारंभ हो जाते हैं। उस भू-भाग पर भावर की पट्टियां पाई जाती हैं। यहां तराई-भावर भूमि पाई जाती है, जो कि कृषि हेतु काफी उपयुक्त होती है। खेती हेतु सर्वाधिक उपयुक्त भूमि तराई-भावर में ही पाई जाती है। यह प्रदेश की सर्वोत्तम भूमि है।
उत्तराखंड में खेती के प्रकार(Types of Farming in Uttarakhand)
उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य है। उत्तराखण्ड राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों और अन्य कारणों से राज्य में विभिन्न प्रकार की खेती की जाती है।
समोच्च खेती(Contour Farming)
इसे समोच्च रेखीय या कण्टूर फार्मिक भी कहा जाता है। ढाल के ऊपर एक ही ऊँचाई के अलग-अलग दो बिन्दुओं को मिलाने वाली काल्पनिक(imaginary) रेखा को कण्टूर रेखा कहते है। पहाड़ी ढालों के विपरीत कण्टूर रेखा पर खेती की जाती है। इससे कम वर्षा वाला क्षेत्रों में नमी सुरक्षित व अधिक वर्षा वाले स्थानो पर मृदा अपरदन कम होता है। इस तरह की खेती को समोच्च खेती कहते है।
सीढ़ीदार खेत |
सीढ़ीदार खेती (Terraced Farming)
यह खेत ज्यादा चौड़े और लंबे नही होते है और एक के बाद एक खेत ढलान में होते है जब भूमि अधिक ढालू होती है, तब इस विधि से खेती की जाती है। इसमें ढाल को सीढ़ियों के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है और उन सीढ़ियों पर आड़ी जुताई करके कृषि की जाती है। इस प्रकार की खेती को सीढ़ीदार खेती कहते है।
उत्तराखंड के सीढ़ीदार खेत
सीढ़ीदार खेत |
स्थानांतरण या झूमिंग खेती(Shifting Farming)
राज्य की कुछ आदिम जातियां इस प्रकार की खेती करती हैं। इसमें सर्वप्रथम किसी स्थान का चुन कर उस स्थान की झाड़ियों और पेड़ों को साफ किया जाता है और कुछ वर्षों तक उसमें कृषि की जाती है। उर्वरता समाप्त होने पर स्थान को बदल दिया जाता है। इस प्रकार की खेती को झूमिंग खेती कहते है। ज्यादातर यह खेती पूर्वोत्तर राज्यों में की जाती है।
भूमि के उपजाऊपन के अनुसार भूमि का वर्गीकरण(Classification of Land according to the Fertility of the Land)
इस आधार पर भूमि को चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
- कटील, उत्खेड़ी, इज्जर/ इजरान भूमि
- उपराऊं भूमि (1. उपराऊं अव्वल 2. उपराऊं दोयम)
- तलाऊं भूमि (सेरा, फणचर, सिमार)
- तराई-भावर भूमि
कृषि क्षेत्र के आधार पर वर्गीकरण(Classification on the basis of Agricultural Area)
इस आधार पर भूमि को पांच भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
- अति उच्च विकसित कृषि क्षेत्र
- उच्च विकसित कृषि क्षेत्र
- मध्यम विकसित कृषि क्षेत्र
- अल्प विकसित कृषि क्षेत्र
- अति अल्प विकसित क्षेत्र
उत्तराखंड में कितने प्रकार की मिट्टी पाई जाती है?
उत्तराखंड एक कृषि प्रधान राज्य है, यहां की एक बड़ी जनसंख्या आज भी कृषि कार्यों से जीवन-यापन करती है। यहां की जलवायु के अनुरूप सभी प्रकार की खेती हो जाती है। अनाज, सब्ज़ी और फलों की खेती मुख्य है। राज्य में आठ प्रकार की मिट्टी पाई जाती है।
उत्तराखंड में कितने प्रकार की मिट्टी है?
उत्तराखंड में विभिन्न प्रकार की मिट्टी पाई जाती है। राज्य में पाई जाने वाली मिट्टी के पांच मुख्य प्रकार हैं- • तृतीयक मिट्टी: शिवालिक और दून घाटी में पाई जाती है, यह मिट्टी चाय के उत्पादन के लिए उपयुक्त है। कॉर्ड मिट्टी: मिट्टी में शेल सिस्ट और क्वार्ट्स होते हैं। यह नैनीताल जिले में पाई जाने वाली हल्की एवं अनुत्पादक मिट्टी है।
उत्तराखंड में कृषि क्या है?
उत्तराखंड की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर ही निर्भर है। राज्य में कुल खेती योग्य क्षेत्र 7,84,117 हेक्टेयर हैं। राज्य की कुल आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण है, जो अपनी आजीविका के लिये परम्परागत रूप से कृषि पर निर्भर है।
उत्तराखंड की मुख्य फसलें कौन सी हैं?
गेहूं और चावल राज्य की मुख्य फसलें हैं क्योंकि यह कुल फसल क्षेत्र का क्रमशः 30.8 और 23.9 प्रतिशत कवर करती हैं। शेष क्षेत्र में मंडुआ 10.9%, गन्ना 9.1%, सावन 5.4%, मक्का 2.7%, दालें 2.5%, तिलहन 1.9% तथा अन्य 12.8% शामिल हैं।
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