वनों से करो यारी नहीं आएगी महामारी.. (vanon se karo yaari nahi aayegi mahamari..)

 वनों से करो यारी.. नहीं आएगी महामारी..

वर्तमान स्थिति को देखते हुए हमें पर्यावरण संरक्षण के लिए जीवन शैली में बदलाव लाना बहुत जरूरी है। प्रकृति अपनाओ, विकृति भगाओ ।
।।चिंतन।।
 आज हम मनुष्य जाति ने विकास के नाम पर प्रकर्ति को जो दोहन किया है वही हमारे पतन का कारण भी बन रहा है..हमारा ये सोचना ग़लत था की प्रथ्वी और प्रकर्ति पर हमारा ही नियंत्रण है, हमारी यही भूल हम पर भारी पढ़ी.हमने कभी ये नहीं माना की हमारे अलावा दूसरे जीव-जंतु व पेड़ -पोधे भी दुनिया में हमारे बराबर महत्व रखते है.
हमने पिछले वर्षों में ८० लाख से भी ज़्यादा जीव-जंतु ,पेड़ पोधों को विलुप्त कर दिया है.और आज क़रीब १० लाख जीव विलुप्त होने की कगार पर है.जो काफ़ी भयावह व शर्मनाक है..
जब प्रकर्ति ही नहीं होगी तो हम कहाँ से होंगे.प्रकर्ति साफ़ कहती है तुम मेरी रक्षा करो और में तुम्हारी..
और हम ये नियम भूल गये है जिसकी वजह से ये असंतुलन पैदा हो गया है..प्रकर्ति का प्रकोप रह रह कर बरस रहा है..
ज़रूरत है तो खुद को और आने वाली पीढ़ी को इसके प्रति जागरूक करने की तभी हम इस खाई को पाट पायेंगे..
प्रकर्ति के नियमो को तोड़ने का नतीजा और भी गंभीर हो सकता है..
वनों से करो यारी, नही आयेगी महामारी ।
ओ हरियाली, तुम खुशहाली । तुम बिन जीवन खाली - खाली। स्वच्छ पानी और शुद्ध हवा संतुलित जीवन की यही दवा।

गौरा_देवी 

क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
  1. ✍️चिपको आन्दोलन एक पर्यावरण-रक्षा का आन्दोलन था। यह भारत के उत्तराखण्ड राज्य में किसानो ने वृक्षों की कटाई का विरोध करने के लिए किया था। वे राज्य के वन विभाग के ठेकेदारों द्वारा वनों की कटाई का विरोध कर रहे थे और उन पर अपना परम्परागत अधिकार जता रहे थे।
  2. यह आन्दोलन उत्तराखंड के चमोली जिले में सन 1973 में प्रारम्भ हुआ। एक दशक के अन्दर यह पूरे उत्तराखण्ड क्षेत्र में फैल गया था। चिपको आन्दोलन की एक मुख्य बात थी कि इसमें स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया था। इस आन्दोलन की शुरुवात 1973 में भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविन्द सिंह रावत, चण्डीप्रसाद भट्ट तथा श्रीमती गौरादेवी के नेत्रत्व मे हुई थी।
  3. चिपको आंदोलन वनों का अव्यावहारिक कटान रोकने और वनों पर आश्रित लोगों के वनाधिकारों की रक्षा का आंदोलन था रेणी में 2400 से अधिक पेड़ों को काटा जाना था, इसलिए इस पर वन विभाग और ठेकेदार जान लडाने को तैयार बैठे थे जिसे गौरा देवी जी के नेतृत्व में रेणी गांव की 27 महिलाओं ने प्राणों की बाजी लगाकर असफल कर दिया था।

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