उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं टिंचरी माई Famous Women of Uttarakhand Tinchri Mai

 टिंचरी माई

गढ़वाल में शराब विरोधी आन्दोलन एवं शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका। टिंचरी माई का जन्म ग्राम मंज्यूर, तहसील थलीसैंण में तथा विवाह ग्राम गवांणी, ब्लॉक पोखड़ा, पौड़ी गढ़वाल के हवलदार गणेशराम नवानी से हुआ था जो द्वितीय विश्व युद्ध में शहीद हो गए थे। परिवार से विरक्त होने पर ये जोगन बन गईं मगर सामाजिक कार्यों में अपने योगदान के लिए सारे गढ़वाल में प्रसिद्ध हुईं। इनका वास्तविक नाम दीपा देवी था। गांव में यह ठगुली देवी के नाम से पुकारी जाती थी। इच्छागिरी माई के रूप में भी इन्होंने प्रसिद्धि पायी। इन्होंने सामाजिक कुरीतियों तथा धार्मिक अन्धविश्वासों का डटकर मुकाबला किया। गढ़वाल में पचास-साठ के दशक में आयुर्वेद दवाई के नामपर बिकने वाली शराब (टिंचरी) की दुकानों को बन्द कराने तथा बच्चों की शिक्षा विशेषकर बालिकाओं की शिक्षा के लिए कई स्कूलों का निर्माण कराने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।

उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं  टिंचरी माई Famous Women of Uttarakhand Tinchri Mai

उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं  टिंचरी माई

टिंचरी माई उर्फ इच्छागिरि माई : एक जीवट व्यक्तित्व


    शिक्षा, मद्य निषेध तथा अनेक सामाजिक गतिविधियों से सम्बद्ध  टिंचरीमाई उत्तराखण्ड की एक सुपरिचित महिला थी। पौड़ी गढ़वाल के थलीसैंण क्षेत्र के मन्ज्यूर गांव के रामदत्त नौटियाल के घर जन्मी नन्हीं दीपा की जीवन यात्रा  उत्तराखण्ड की नारी के उत्पीड़न, सामाजिक कुरीतियों तथा विसंगतियों के विरुद्ध लड़ी गई लड़ाई और साहस का अनुकरणीय उदाहरण है। बीसवीं सदी के आरम्भ में जन्मी दीपा दो वर्ष में ही मातृ विहीन हो गई और पांच वर्ष की आयु में पिता का साया भी उनके सिर से उठ गया। गांव के रिश्ते के चाचा ने ही नन्हीं अनाथ दीपा का पालन-पोषण किया। साप्ताहिक ’सत्यपथ’ के प्रधान संपादक श्री पीतांबर देवरानी को एक भेंटवार्ता में अपनी शिक्षा के बारे में दीपा (माई) ने बताया था-’छोरा! बहुत शैतान, बड़ी नटखट थी मैं, बचपन में मैं पढ़ती-लिखती कैसे? तब स्कूल ही कहां थे, पहाड़ में और मेरा था ही कौन जो मुझे पढ़ाता। वैसे भी बेटियों को तब पढ़ाता भी कौन था। पेंशन भी अंगूठा लगाकर ही लेती हूं।’  अपने अशिक्षित होने की पीड़ा माई को हमेशा सताती रहती थी, सात वर्ष में माई का विवाह गंवाणी गांव के सत्रह साल बड़े गणेश राम से हुआ। ससुराल में एक दिन बिताकर माई अपने पिता के साथ रावलपिंडी चली गई। पति हवलदार गणेश राम पत्नी को बड़े लाड़-प्यार से रखते थे। जब वे लड़ाई में गये तो लौटकर नहीं आये, उनकी मृत्यु के बाद एक अंग्रेज अफसर की देख-रेख में माई एक सप्ताह तक रही। अधिकारी ने माई को बुलाकर उनके पति का सारा हिसाब-किताब समझाकर सब रुपये आदि एक अंग्रेज अफसर को सौंप दिये और उसके साथ ससम्मान कालौडांडा छावनी (लैंसडाऊन) भेज दिया। माई तब केवल उन्नीस वर्ष की थीं।

        मायके से असहाय, ससुराल से तिरस्कृत, अपने भविष्य के लिये चिंतित माई ने अपना मार्ग स्वयं बनाने का उसी रात निर्णय कर लिया। अंग्रेज अधिकारी के साथ अकेले सफर कर लैंसडाऊन पहुंचने वाली माई अति निर्भीक स्वभाव की थी, वे मानती थीं कि हमने अंग्रेजों के अवगुण तो अपनाये, लेकिन सदगुण नहीं। अपने पति के साथ अल्पावधि में अंग्रेजों के सदगुणॊं के प्रति गुणग्राही माई यह स्वीकार करती थी कि अंग्रेज नारी जाति का सम्मान करना जानते हैं। माई कहती थी कि यदि कोई हिंदुस्तानी मेरे साथ आता तो शायद मेरा पैसा लूट कर मुझे भी बेच खाता। अंग्रेज अफसर ने माई का पैसा डाकखाने में जमा करवा कर उसको प्रधान के पास सौंपा, किंतु विधवा नारी को ससुराल में मात्र तिरस्कार, अपमान, उपेक्षा और कष्टतम जीवन के और क्या मिलता। जैसा कि वैधव्य का जीवन जीने वाली हर भारतीय नारी के साथ होता है, माई फिर वहां से निकलकर लाहौर पहुंच गई, वहां एक मन्दिर में कुछ दिन रहकर एक विदुषी, सुसंकृत सन्यासिनी से माई ने दीक्षा ली और तब वे दीपा से इच्छागिरि माई बन गई और वीतराग एवं निस्पृह जीवन जीने लगी, किंतु १९४७ के सांम्प्रदायिक दंगों के कारण पंजाब का वातावरण विषाक्त हो चुका था। माई वहां रहकर हैवानियत के विरुद्ध संघर्ष करना चाहती थीं, लेकिन अपनी गुरु के साथ उन्हें हरिद्वार आना पड़ा।

लौटकर वह नौ माह कालीमंदिर चंडीघाट में रहीं। वहां माई ने ढोंगी साधुओं के दुष्कर्म देखे, जैसे मछली मारकर खाना, गंगा स्नान के समय मछलियां छिपाकर लाना, दिन भर सुल्फा-गांजा का नशा करना और निठल्ले पड़े रहना। माई ने उनसे लड़ने की ठानी पर उनकी सामूहिक शक्ति और माई निपट अकेली, लड़ती भी तो आखिर कहां तक। अतः माई इधर-उधर घूमकर सिगड्डी-भाबर आ गई और घास-फूस की झोपड़ी बनाकर रहने लगी। वहां पर पानी का बहुत अभाव था, महिलाओं को बहुत दूर से पानी लाना पड़ता था। माई को यह सहन नहीं हुआ, वह अधिकारियों से मिली, डिप्टी कलेक्टर से मिली, किंतु कुछ नहीं हुआ। भला माई कहां हार मानती, अतः दिल्ली पहुंच गई और जवाहर बाबा की कोठी के फाटक पर धरना देकर बैठ गई। नेहरु जी जब कार्यालय जा रहे थे, तो माई उनकी गाड़ी के सामने खड़ी हो गई। पुलिस वाले उन्हें खींचकर हटाने लगे, नेहरु जी गाड़ी से नीचे उतरे और माई ने गांव की बहू-बेटियों की खैरी-विपदा बाबा को सुना दी। उस दिन उनका बदन बुखार से तप रहा था। माई ने बताया कि  मैने नेहरु बाबा का हाथ पकड़ लिया  और पूछा ’बोल बाबा पानी देगा या नहीं’  नेहरु बाबा बोला ’माई तुझे तो तेज बुखार है’ उन्होंने मुझे अस्पताल भिजवाया और वापस लौटते समय कुछ कपड़े भी दिये और कहा ’अब जाओ, जल्दी ही पानी भी मिल जायेगा’ हां बाबा, कुछ दिनों बाद पानी वाले साहब सिगड्डी आ गये और सिगड्डी में पानी भी आ गया, अब तो मंतरी-संतरी सब झूठ बोलते हैं। पहले ऐसी बात नहीं थी, जो कह देते थे, वह कर भी देते थे।

एक बार माई की कुटिया एक आदमी ने पटवारी से मिलकर हड़प ली, लेकिन माई अपने कारण नहीं लड़ी और वहां से मोटाढांक चली गई, वहां पर एक अध्यापक श्री मोहन सिंह ने उन्हें रहने के लिये एक कमरा दे दिया। मास्टर जी चाहते थे कि वहां पर एक स्कूल बने। इस संबंध में कोटद्वार के गढ़गौरव के सम्पादक श्री कुंवर सिंह नेगी “कर्मठ” बताते हैं कि एक बार शिक्षा पर चर्चा हुई तो उन्होंने माई से कहा कि यहां पर कोई स्कूल नहीं है। माई ने इस बात को बहुत गंभीरता से लिया और न जाने कब एक ट्रक ईंट वहां लाकर डाल दी। उस समय कोटद्वार बिजनौर जिले में था। तब रामपुर के जिलाधीश ए.जे. खान थे, जब उन्हें यह पता चला तो बोले “कि बड़े शर्म की बात है, माई ने यहां ईंटॆ डलवा दी हैं तो स्कूल तो अब बनाना ही पड़ेगा।” माई अपने पैसों से सरिया, सीमेन्ट लाती रही तथा उस दौरान प्राइवेट मिडिल स्कूल बनकर तैयार हो गया। पहले तो यह स्कूल छात्राओं के लिये ही बना, बाद में यह हाईस्कूल हो गया। माई ने इस स्कूल का नाम अपने पति स्वर्गीय गणेश राम के नाम पर रखवाया और फिर यह इंटर कालेज हुआ, अब इस कालेज में सह शिक्षा है।

आग लगा दूंगी इस दुकान पर

कोटद्वार में पानी का सदा अभाव रहा है, माई इसके लिये स्वयं लखनऊ गई, सचिवालय् के सामने भूख-हड़ताल ओअर बैठ गई। उस समय मुख्यमंत्री से सुनवाई हुई और पेयजल की व्यवस्था हो गई। मोटाढांक में अपना कार्य पूरा करके माई बदरीनाथ धाम चली गई, वहां पर वह नौ साल तक रहीं, वहां पर रावल ने इनके आवास और भोजन की व्यवस्था की। बदरीनाथ के बाद वह चार साल केदारनाथ में रहीं। किन्तु वहां के देवदर्शन में अमीर-गरीब का भेदभाव और दिन-प्रतिदिन बढ़ती अस्वछ्ता और अपवित्रता देखकर माई खिन्न हुई और वहां से पौड़ी आ गई। वहां १९५५-५६ के आस-पास एक दिन डाकखाने के बरामदे में माई सुस्ता रही थी, सामने शराब व्यापारी  मित्तल की टिंचरी की दुकान थी, जहां पर एक आदमी टिंचरी पीकर लडखड़ाता हुआ महिलाओं की ओर अभद्रता से इशारे करने लगा और फिर अचेत होकर नाली में गिर गया। गुस्से से कांपती माई कंडोलिया डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर पहुंची, कमिश्नर साहब कुछ लिख रहे थे, वह माई को जानते थे, उन्होंने माई से बैठने को कहा। किंतु क्रोधित माई ने कमिश्नर का हाथ पकड़ा और बोली ’तू यहां बैठा है, चल मेरे साथ, देख, तेरे राज में क्या अनर्थ हो रहा है।’ माई के क्रोध को देखकर सहमे कमिश्नर ने जीप मंगाई और वहां जा पहुंचे, जहां वह शराबी खून से सना पड़ा था। माई बोली ’देख लिया तूने, क्या हो रहा है तेरी नाक के नीचे, लेकिन तू कुछ नहीं कर पायेगा, तू जा और सुन, मैं यह तमाशा नहीं होने दूंगी……आग लगा दूंगी इस दुकान पर—–

उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं  टिंचरी माई

तू मुझे जेल भेज देना—-मैं जाने दे दूंगी पर टिंचरी नहीं बिकने दूंगी। डिप्टी कमिश्नर वापस चले गये।

माई मिट्टी का तेल और माचिस की डिबिया लाई और बंद दरवाजा तोड़ कर अंदर चली गई, टिंचरी पी रहे लोग भाग खड़े हुये, भीड़ जुटने लगी। काली का रुप धारण किये माई ने दुकान में आग लगा दी, दुकान जलकर स्वाहा हो गई, माई को बड़ी शांति मिली, मगर माई भागी नहीं। डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर स्वयं पहूंच  गई और बोली “ टिंचरी की दुकान फूंक आई हूं, अब मुझे जेल भेजना है तो भेज दे”  दिन भर कमिश्नर ने माई को अपने बंगले पर बिठाकर रखा और शाम को अपनी जीप मॆं बिठाकर लैंसडाऊन भेज दिया। सब जगह खबर फैल गई, माई ने गजब कर दिया, इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया हुई, महिलायें अत्यन्त हर्षित हुई, भले ही शराबी क्षुब्ध हुये हों। तब से इच्छागिरि माई “टिंचरी माई” के नाम से विख्यात हो गई। नशे के खिलाफ उनका अभियान लगातार जारी रहा।

वे आत्मप्रचार से सदैव दूर रहतीं थीं, वात्सल्यपूर्ण हृदय, निस्पृह, परदुःख कातर, तपस्विनी, कर्मनिष्ठ, समाजसेवी माई जितने गुस्सैल स्वभाव की थी, उतनी ही संवेदनशील भी। राजनीतिक  लोगोंकी स्वार्थलोलुपता से वे हमेशा दुःखी रही, क्षुब्ध होती रहीं। वे बड़ी स्वाभिमानी थी, दान स्वरुप किसी से कभी भी कुछ नहीं लेती थी, कहीं जाती तो केवल भोजन ही करती थी। वे स्वयं दानशीला थी, शिक्षा, मद्यनिषेध एवं प्रमार्थ के लिये माई के कार्य अविस्मरणीय हैं। अस्सी वर्ष से कुछ अधिक आयु में १९ जून, १९९२ को माई की दैहिक लीला समाप्त हुई।

संकट की जड़ हमारी तटस्थता है

मेरे मन में पहाड़ किसी अपराध बोध की तरह नहीं है और न ही मैं पहाड़ को लेकर किसी अतिरिक्त चिन्ता का शिकार रहा हूँ। यदि पहाड़ के सौंदर्य का या वहाँ की गरीबी का रोमांटिक शोषण मेरे लिए कुफ्र रहा है तो मैदानी सुविधाओं और समृद्धि का नयनाभिराम वर्णन भी मेरे लिए अपराध रहा है। मैंने जहाँ तक हो सका है स्थितियों को उनके परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है। सच्चाई यह है कि पहाड़ औज जिस समस्या से जूझ रहे हैं, वह वास्तव में आदमी और प्रकृति के सम्बन्धों के संतुलन की समस्या से जुड़ी है और इस तरह से एक तरफ यह समस्या ऐसे उन सभी समाजों की है जा आज भी तुलनात्मक रूप में प्रकृति के अधिक निकट है या दूसरे शब्दों में जो समाज आज भी प्रकृति पर अधिक निर्भर हैं और दूसरी ओर यह समस्या पूरे मानव समाज की है। उदाहरण स्वरूप अगर नई वन नीति का या औद्योगीकरण या मास मीडिया का असर गढ़वाल या कुमाऊँ की पहाड़ियों पर घातक होता है तो इस घातक असर से मध्य प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उड़ीसा तथा उत्तर पूर्वी क्षेत्र के आदिवासी भी बचे नहीं रह सकते। इसी तरह क्या इथोपिया के लोग आज, मानवीय लालच के कारण हुए अंधाधुंध प्राकृतिक शोषण का, जो खामियाजा भोग रहे हैं, उसे हम नजरअंदाज कर सकते हैं?

आज ‘ग्लोबल विलेज’ का दौर है। इस पर भी चूँकि हम एक विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक व भौगोलिक स्थितियों की उपज हैं। प्रश्न उठता है हमारा सरोकार अपनी इस पृष्ठभूमि के प्रति क्या है और क्या होना चाहिए।

पहाड़ से मेरा लगाव इस मामले में भिनन है (पहाड़ों से प्रेम के लिये वैसे पहाड़ी होना कोई जरूरी नहीं है) कि मैं अपनी जड़ें वहाँ पाता हूँ और इसीलिए जब सम्भव हो पाता है वहाँ जाता हूँ और वहाँ की समस्याओं को समझने की कोशिश भी करता हूँ। यद्यपि आज किसी भी समस्या को ‘आइसोलेट’ करके नहीं देखा जा सकता है और न ही देखा जाना चाहिए। इस पर भी अगर हम स्वयं को संकीर्णता का शिकार न होने दें तो हर समस्या हमें अन्ततः पूरी व्यवस्था को समझने में मदद करती है। इस मायने में मैने पहाड़ को जितना समझा है अपने को बाकी देश की समस्याओं से अलग नहीं पाया है। कई बार यह सुनने को मिलता है कि ये प्रवासी वहाँ मजे मार रहे हैं और हमें आकर भाषण देते हैं। मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि प्रवास में रहकर रोटी कमाना और कुछ नहीं तो कम से कम उतनी ही बड़ी चुनौती तो है ही जितनी की पहाड़ में रहना। पहाड़ में हमारे लिए कम से कम एक बनी- बनाई व्यवस्था तो है, अपना समाज तो है पर प्रवास में तो खुद ही कुआँ खोदना होता है, प्रवास आधुनिक समात की एक नियती है। वैसे भी एक स्थान से दूसरे स्थान जाना मानव की आदिकालीन प्रवृति रही है। और कोई क्यों न जाये ? दुनिया के लोग कहाँ से कहाँ पहुँच चुके हैं (क्या यह याद दिलाना जरूरी है कि यूरोपीय कहाँ-कहाँ आया गया) एशियाई लोगों ने आस्ट्रेलिया जैसा महाद्वीप अपनी इसी ‘घर स्वर्ग है’ मनोवृत्ति के चलते गँवाया हैं, और हम अपने ही देश के कोने-कोने में पड़े (अक्सर तो पहाड़ से सिर्फ दो-ढाई सौ कि.मी. की दूरी पर ही) प्रवास की बात करते हैं। हमें इस कूपमंडूक प्रवृत्ति से निकलना चाहिये। पंजाब का उदाहरण हमारे सामने है। आज पंजाबी विश्व के किस कोने में नहीं हैं ? पर जो लोग पंजाब में रहे उन्होंने वहाँ काम किया है। यही बात गुजरातियों पर भी लागू होती है। सवाल यह है कि जो पहाड़ में रहे उन्होंने क्या किया, सिवाय मनिऑर्डर-अर्थव्यवस्था पर आश्रित रहने के अलावा?
अब मुझे लगने लगा है पेड़ पहाड़ों ज्यादा चिन्ता आदमी की मूल्यहीनता की होनी चाहिए। प्रकृति के विनाश और उसमें असंतुलन पैदा करने का एकमात्र कारण आदमी ही तो है। सरस्वती नदी के भूमिगत होने और किसी समय के, उपजाऊ राजस्थान के मरुस्थल बनने में वहाँ के निवासियों के ही भूमिका रही है। राजस्थान मानव की आधि सभ्यता की जननी रही है। इसलिए मेरी चिन्ता पहाड़ से ज्यादा पहाड़ियों को लेकर है। जो भागे (प्रवासी) सो भागे, पर अब चिन्ता उन लोगों की है जा पहाड़ में तो हैं पर टिंचरी के शिकार है या जो आई.आर.डी. के ऋणों को ठग कर ले रहे हैं। यह ठगी अनैतिक ही नहीं, एक सामाजिक अपराध हैं जिसका दुष्परिणाम हमें शीघ्र ही भुगतान पड़ेगा।

राजनीतिक के नाम पर जो चल रहा है वह एक अलग ही कहानी है, आम उत्तरांचली काफी बुद्धिमान होता है, पर दुर्भाग्य से उसकी सारी मेधा दूसरों की आलोचना और घटिया राजनीति या तिकड़म करने में लगी रही है। अपना तो वह कुछ नहीं करना चाहता पर जब कोई और कुछ करना चाहता तो वह भी उसे बर्दाश्त नहीं होता (हम चाहे दुनियाभर में फैल जाएँ, उसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है)। हाल ही में एक महिला जिन्हें पहाड़ों से वास्तविक लगाव है और जो अपनी सामर्थ्य में जो कुछ हो पा रहा है कर रही है। पिथौरागढ़ के एक स्वानामधान्य युवा पत्रकार नेता से हुआ संवाद बतलाया। युवा नेता ने महिला से कहा- 
“आपका पहाड़ से क्या लेना-देना है? आप तो पहाड़ को भुना रही हैं और खा-कमा रहीे हैं।”

मै उस महिला का जानता हूँ इसलिये कहता हूँ कि उनके पास खाने-कमाने के बेहतर जरिये हैं, पहाड़ों में दर-दर भटकने से, पर पहाड़ के अकेले हकदार इन क्रुद्ध युवा नेता की स्थिति यह है कि वह स्वयं दस-बीस हजार का सरकारी ऋण ले चुके हैं और उसे निगल जाने की अपनी मंशा साफ जाहिर करते फिरते हैं। खुद टिंचरी के आदी हैं और नशाबंदी आंदोलन की नेतागिरी कर रहे हैं, यह नैतिकता (?) हमें कहाँ ले जायेगी। क्या हमने कभी सोचा है ?
एक और उदाहरण लीजिये। हाल ही में ‘इनहेयर’ नामक संस्था ने अल्मोड़ा जिले के पाली पछाऊँ क्षेत्र में एक पर्यावरण शिविर लगाया। उन्होंने वहाँ जो सर्वेक्षण किया उससे कुछ बातें सामने आयी। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि हर ग्रामवासी ने कम से कम एक पेड़ तो काटा ही है, पर जहाँ तक किसी भी तरह का पेड़ लगाने का सवाल था, उसका औसत हजार में एक आदमी का भी नहीं था। जैसा कि ऊपर कह चुका हूँ, राजस्थान को मरूस्थल बनाने में जंगलाती ठेकेदारों की नहीं वहाँ के निवासियों की ही तटस्थता जिम्मेवार थी। कुछ इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि सिंधुघाटी की सभ्यता भी प्रकृति के अंधाधुंध विनाश का ही सीधा परिणाम थी। असल में सारे संकट की जड़ हमारी यही तटस्थता की प्रवृत्ति है। वैसे यहाँ यह बताना अप्रासंगिक न होगा कि पाली पछाऊँ का यह इलाका पिछले कई वर्षों से अनावृष्टि का शिकार रहा है और इस वर्ष यहाँ के निवासियों को पानी के कारण जो कष्ट सहने पड़े वह आज तक के इतिहास में अपने तरह के थे।
असल में पहाड़ को बचाना देश को बचाना है और इसके लिए हमें स्वयं को बचाना है।

उत्तराखण्ड के नशामुक्ति आन्दोलन की पुरोधा: टिंचरी माई

नशा हमेशा से ही उत्तराखण्ड की प्रमुख समस्या रहा है. उत्तराखण्ड की जनता इस असमाधेय समस्या के खिलाफ समय-समय पर उठ खड़ी होती है. आज भी शराब के ठेकों की नीलामी के समय समूचा पहाड़ शराब माफियाओं और राजनेताओं के गठजोड़ के खिलाफ लामबंद दिखाई देता है. राज्य में कई उल्लेखनीय नशामुक्ति आन्दोलन हुए हैं. इन आंदोलनों ने कई ऐसे व्यक्तित्वों को नायकों के रूप में उभारा है जिन्हें आज भी याद किया जाता है. नशामुक्ति आन्दोलन इनसे आज भी प्रेरणा लेने का काम करते हैं. ऐसा ही एक नाम है टिंचरी माई.

दीपा नौटियाल उर्फ़ टिंचरी माई का जन्म 1917 में ग्राम मंज्युर, तहसील थलीसैण, पौड़ी-गढ़वाल के एक गरीब परिवार में हुआ था. जिंदगी ने दीपा की नियति में कई कड़े इम्तहान तय किये थे. 2 साल की उम्र में दीपा ने अपनी माँ को खो दिया. इससे पहले कि दीपा माँ और उसकी ममता जैसे शब्दों से परिचित होती. उन भावों के अपनी जिंदगी में न होने के अर्थ को समझ पाती, महसूस कर पाती, उनके पिता भी इस दुनिया में नहीं रहे. इस समय दीपा मात्र पांच साल की थी.

ये वो दौर था जब लड़कियों की स्कूली शिक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जाता था. फिर दीपा तो उन पहाड़ों में रहने वाली थी जहाँ तब लड़कों की पढ़ाई भी दूर की कौड़ी हुआ करती थी. बाल-विवाह उन दिनों एक सामान्य भारतीय रिवाज था. लड़कियों को बचपन में ही ब्याह दिया जाता था. माता-पिता की मृत्यु के बाद दीपा के दयालु चाचा ने उनकी परवरिश की और उस वक़्त के सामाजिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए उनका बाल-विवाह कर दिया. इस समय दीपा की उम्र मात्र 7 साल थी. सेना में सिपाही गणेश राम उनका पति हुआ, जो दीपा से उम्र में 17 साल बड़ा था. दीपा की खुशकिस्मती कि उन्हें गणेश के रूप में एक अच्छा और समझदार पति मिला. गणेश उस वक़्त ब्रिटिश आर्मी के लिए रावलपिंडी में तैनात थे. उन्होंने दीपा को एक बच्ची की तरह से प्यार-दुलार दिया. ड्यूटी में जाने से पहले गणेश दीपा को अपने हाथों से नहलाते-धुलाते और तैयार करते थे. लावारिस बचपन जीने के बाद अब दीपा का बाकी का बचपन और किशोरावस्था अपने पति के साथ ठीक-ठाक मजे में कट रहे थे.

वक़्त का अगला इम्तहान दीपा के लिए तय था सो उनके पति विश्व युद्ध में मारे गए. इस समय दीपा 19 साल की थी. किशोरावस्था में ही दीपा न सिर्फ विधवा हो गयी थी बल्कि अब उनका इस दुनिया में कोई नहीं था. न माता-पिता न पति. डिविजन अफसर ने दीपा को अपने पति का पैसा ले जाने के लिए बुलाया. पैसा दीपा को सौंप दिया गया. अब दीपा के पास इतना पैसा था कि वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू कर सके. लेकिन सवाल यह था कि दीपा जाये तो कहाँ जाए.

इस मुश्किल वक़्त में दीपा ने आत्मनिर्भर बनने का फैसला लिया और लैंसडाउन आ गयी. एक ब्रिटिश अफसर ने सेना से प्राप्त धनराशि को यहाँ के एक पोस्ट ऑफिस में जमा करवा दिया और एक ग्राम प्रधान को जिम्मेदारी दी की वह दीपा को उसके ससुरालियों के पास पहुंचा दे. ससुराल में कोई भी नहीं चाहता था कि दीपा यहाँ रहे लिहाजा यहाँ उसके साथ दुर्वयवहार होने लगा. उस समय यूँ भी विधवाओं के साथ बहुत अमानवीय व्यवहार किया जाता था. उन्हें घरों से भगा दिया जाता, वे यहाँ-वहां भटककर खानाबदोश जिंदगी जीतीं या फिर घुट-घुटकर मर जातीं. लेकिन जिजीविषा का ही दूसरा नाम दीपा था. हर बार पटककर गिरा दिए जाने के बाद दोबारा तनकर खड़ी होने वाली दीपा.

ससुराल के उत्पीड़न से तंग आकर दीपा ने अपना ससुराल छोड़ने का फैसला किया और लाहौर आ गयी. लाहौर में वे एक मंदिर में आश्रय लेकर रहने लगीं. यहाँ दीपा की जिंदगी का एक नया अध्याय लिखा जाना था. यहाँ दीपा की मुलाकात एक सन्यासिन से हुई और उसके सानिध्य में दीपा ने संन्यास लेने का फैसला किया. संन्यास ने दीपा को नया नाम दिया –इच्छागिरी माई.

1947 में इच्छागिरी माई बन चुकी दीपा हरिद्वार आ पहुंची. यहाँ वह चंडीघाट में रहने लगीं. यहाँ रहते हुए इच्छागिरी माई ने पाया कि साधू-संत, सन्यासी अफीम, दम-दारू के नशे समेत कई व्यसनों में डूबे हुए हैं. दीपा को यह देखकर बहुत अफ़सोस हुआ कि जिन साधू-महात्माओं में लोगों की गहन आस्था है वे ही व्यसनी, कुकर्मी हैं. उन्होंने भक्तों-श्रद्धालुओं के सामने इन कुकर्मी संतों का पर्दाफाश करने का निश्चय किया. यहाँ से उनके जीवन की नयी भूमिका शुरू होने वाली थी. माई अकेली थी और उनके दुश्मनों की तादाद काफी ज्यादा थी और वे एकजुट भी थे. इन कुकर्मी संतों का पर्दाफाश कर वे यहाँ से कोटद्वार के लिए चल पड़ी.

कोटद्वार के भाबर सिगड़ी गाँव में उन्होंने उन्होंने अपने हाथों से कुटिया बनायी और उसमें रहने लगीं. जल्द ही माई का सामना इस गाँव के भीषण जल संकट से हुआ. गाँव की महिलाओं को पानी लाने के लिए बहुत दूर-दूर जाना पड़ता था. अब माई ने गाँव के जल संकट को ख़त्म करने को ही अपना मिशन बना लिया. वे इस समस्या के समाधान के लिए प्रशासनिक अधिकारियों से मिलने लगीं. किसी ने भी उनकी सुनवाई नहीं की. इसके बाद माई ने वह किया जिसके लिए आज भी अच्छे-अच्छों की हिम्मत नहीं पड़ सकती है.

साधारण सी पहाड़ी महिला ने असाधारण काम कर दिखाया. माई गढ़वाल से दिल्ली पहुंची और वहां प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के आवास पर धमक गयीं. अपनी समस्या के समाधान के लिए वे प्रधानमन्त्री आवास के बाहर बैठ गयीं. जब नेहरू अपने कार्यालय जाने के लिए बाहर निकलकर कार में बैठे तो माई उनकी कार के रास्ते में बैठ गयीं. एक ड्यूटी पर तैनात हैरान-परेशान पुलिस वाले ने जब माई को रास्ते से हटाने के लिए घसीटना शुरू किया तो नेहरू ने उसे ऐसा करने से रोका. नेहरू कार से नीचे उतरे और उन्होंने माई की समस्या सुनी. इस दौरान लम्बी यात्रा और थकान की वजह से इच्छागिरी माई को काफी तेज बुखार भी था. नेहरू ने जब उनका हाथ अपने हाथ में लिया तो उन्हें माई को बुखार के बारे में पता लगा. उन्होंने माई से अस्पताल जाने का आग्रह कर उन्हें वहां भेजने के बंदोबस्त के लिए कहा. माई ने इसके लिए साफ़ मना कर दिया. उन्होंने कहा जब तक उनके गाँव की पानी की समस्या का समाधान नहीं किया जाता वे कहीं जाने वाली नहीं हैं. नेहरू ने उनकी समस्या का समाधान करने का वादा किया और निभाया भी. कुछ ही दिनों में इस गाँव में पानी की सप्लाई शुरू कर दी गयी.

यायावर माई भला एक गाँव में कहाँ टिकने वाली थीं. वे यहाँ से मोटाढाक चली गयीं. यहां एक शिक्षक ने उन्हें आसरा दिया. शिक्षक से ही माई को जानकारी मिली की गाँव में कोई प्राथमिक विद्यालय तक नहीं है इस वजह से बच्चों को लम्बी दूरी तय कर स्कूल जाना पड़ता है. प्राथमिक शिक्षा तक से वंचित माई से बेहतर शिक्षा के महत्त्व को भला और कौन समझ सकता था, उन्होंने खुद के पास जमा रकम से गाँव में विद्यालय का निर्माण शुरू करवा दिया. इसके लिए उन्होंने चंदा कर रुपया भी जमा किया. 6 महीने में ही गाँव के बच्चों के लिए स्कूल बनकर तैयार हो गया. इच्छागिरी माई ने अपने मरहूम पति के नाम का पत्थर का पट्ट विद्यालय में लगवाया. उनके द्वारा स्थापित यह प्राथमिक विद्यालय बाद में इंटरमीडिएट स्कूल बना.

अब माई एक दफा फिर नए सफ़र पर निकल पड़ीं नयी चुनौतियाँ चुनने. उनका अगला पड़ाव था बद्रीनाथ. यहाँ कुछ दिनों के प्रवास के बाद वे केदारनाथ के लिए चल पड़ीं. यहाँ वह चार सालों के अध्यात्मिक प्रवास पर रहीं. चार साल बाद वे पौड़ी चली आयीं. यहाँ एक वन विभाग के कंजरवेटर का घर उनका ठिकाना बना. यहाँ माई एक दिन पोस्ट ऑफिस के बाहर बैठी थीं, तभी उन्होंने देखा कि एक दुकान से नशे में टुन्न शख्स बाहर निकला. इसी वक़्त महिलाओं का एक समूह अपने रोजमर्रा की दिनचर्या में जलावन की लकड़ी और जानवरों का चारा लेने जंगल की ओर जा रहा था. इन्हें देखकर वह नशेड़ी फब्तियां कसने और गाली देने लगा. यह देखकर माई उस अवैध नशे के कारोबारी की शिकायत करने डिप्टी कमिश्नर के पास पहुँच गयीं और उसे समस्या के बारे में बताया. डिप्टी कमिश्नर उन्हें अपने जीप पर बिठाकर मौके पर पहुंचा. माई ने उसे नशे के फलते-फूलते अवैध कारोबार के बारे में बताया. उन दिनों यह क्षेत्र नशाबंदी के प्रभाव में था और नशे के लिए आयुर्वेदिक दवाओं की ज्यादा मात्र का इस्तेमाल किया जाता था. ऐसी ही एक आयुर्वेदिक सिरप को टिंचरी कहा जाता था. इस सिरप की ओवरडोज साइड इफेक्ट के रूप में दारू सा नशा देती थी. डिप्टी कमिश्नर ने मौके पर सब देखने के बाद भी न कोई कार्रवाई की न ही किसी से कुछ कहा ही. वह वहां से खिसक गया.

क्रोधित माई ने मिट्टी का तेल और माचिस ली और और उस दुकान में धमक गयी जहाँ नशे का काला कारोबार चल रहा था. इस समय तक दुकान भीतर से बंद कर दी गयी थी. माई ने पत्थर की सहायता से दरवाजा तोड़ डाला. यह देखकर वहां भीतर बैठा शख्स भाग खडा हुआ. उसके बाद माई ने दुकान को आग लगाकर फूंक दिया. कुछ ही मिनटों में दुकान ख़ाक हो गयी. इसके बाद माई पुनः डिप्टी कमिश्नर के पास पहुंची और उसे घटना की पूरा जानकारी देकर खुद को गिरफ्तार करने के लिए कहा. उन्हें गिरफ्तार करने के बजाय उनके ही घर पर नजरबन्द कर अगली शाम लैंसडाउन ले जाकर छोड़ दिया गया.

इस घटना से माई को नया नाम मिला टिंचरी माई. उनके जीवन का एक अन्य अध्याय शुरू हुआ. इसके बाद टिंचरी माई के नए अवतार में दीपा ने गाँव-गाँव नशे के खिलाफ अलख जगाने का काम किया. उन्होंने शिक्षा के लिए जागरूकता फैलाने और नशामुक्ति अभियान को ही अपने शेष जीवन का ध्येय बना लिया. उन्होंने महिलाओं को शिक्षित होने और नशामुक्ति के लिए अपने मर्दों से संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया.

इस तरह लावारिस बचपन जीने के बाद किशोरावस्था में ही अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को खो देने वाली साधारण दीपा एक असाधारण व्यक्तित्व की मालकिन बन गयी. जीवन के प्रति सकारात्मक नजरिया और हारकर भी जीतने की जिद ने दीपा को टिंचरी माई बना दिया. स्थितियां चाहे जैसी भी हों जीवन का आकार अपने अनुरूप ढाला जा सकता है, दीपा बखूबी सिखाती है.

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