पंवार या परमार वंश के शासक | Rulers of Panwar and Parmar Dynasty

पंवार या परमार वंश के शासक | Rulers of Panwar and Parmar Dynasty

Panwar or Parmar dynasty in Uttarakhand :

सैन्य शक्ति के अभाव में गढ़वाल क्षेत्र 52 छोटे-छोटे गढ़ों (किले) में विभाजित था। यह किला ठाकुरी राजाओं के अधीन था। पांडर वंश के संस्थापक चांदपुरगढ़ के राजा भानुप्रताप अपने समकालीनों में सबसे शक्तिशाली थे। 887 ई. में मालबा के राजकुमार कनकपाल बद्रीनाथ मन्दिर के दर्शन हेतु गढ़वाल क्षेत्र में आये थे। जब वे तीर्थ यात्रा पर आये तो राजा भानुप्रताप ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया और अपनी पुत्री का विवाह उनसे कर दिया। तभी से गढ़वाल में परमार वंश की स्थापना हुई। पण्डवार राजवंश या परमार राजवंश, 888 से अगस्त 1949 तक (टिहरी राज्य का भारत में विलय) ने गढ़वाल क्षेत्र पर एक प्रस्तुति दी। इस दौरान 60 राजाओं ने शासन किया जिसमें राजा अजयपाल को सबसे अधिक प्रसिद्धि मिली।
राजा अजयपाल (1500 से 1519) पंडार वंश के 37वें शासक थे। उन्होंने गढ़वाल क्षेत्र के सभी गढ़ों को जीतने के लिए एक विशाल साम्राज्य की नींव रखी। गढ़वाल के एकीकरण का श्रेय उन्होंने इसी को दिया है। उन्होंने अपनी राजधानी चांदपुर गढ़ारी से देवलगढ़ (1512) और अंततः 1517 में श्रीनगर स्थानांतरित कर दी। बेशक, राजा अजयपाल को गढ़वाल क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली राजा माना जा सकता है। उसने प्राचीन कत्यूरी शासकों से उनका स्वर्ण सिंहासन छीन लिया। देवलगढ़ राज राजेश्वरी मंदिर का निर्माण भी राजा अजयपाल ने करवाया था। राजा अजयपाल का शासनकाल (19 वर्ष) युद्ध एवं राज्य सुधार में व्यतीत हुआ, 59 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गयी।

पंवार या परमार वंश के शासक(Rulers of Panwar and Parmar Dynasty)

9वीं शताब्दी तक गढ़वाल में 52 गढ़ थे। इन 52 गढ़ों पर 52 खश ठकुरियों का अधिकार था। इसलिए इसे बावन (52) गढ़ों का देश गढ़देश (छोटे-छोटे किलों का देश) कहा जाता था। इन गढ़ों में सबसे प्रमुख गढ़ भानुप्रताप द्वारा बसाया गया चांदपुर गढ़ था। भानु प्रताप भगवान विष्णु का उपासक था। सभी गढ़ों में बचा एक मात्र गढ़ चांदपुर गढ़ (चमोली) है। गढ़वाल का पहला गढ़ नागपुर गढ़ था। अंतिम 52वां गढ़ लोधनगढ था। इनकी प्रथम राजधानी चंदपुरगढ (888ई०) थी। इसके बाद दूसरी राजधानी देवलगढ़ (1512ई०) में थी फिर परमार वंश की तीसरी राजधानी श्रीनगर (1517ई०) तथा अंतिम राजधानी (चौथी) टिहरी (1815ई०) में रही थी। पंवार वंश की राजभाषा गढ़वाली थी।

पंवार वंश

गढवाल को कभी 52 गढ़ों का देश कहा जाता था। असल में तब गढ़वाल में 52 राजाओं का आधिपत्य था। उनके अलग अलग राज्य थे और वे स्वतंत्र थे। इन 52 गढ़ों के अलावा भी कुछ छोटे छोटे गढ़ थे जो सरदार या थोकदारों (तत्कालीन पदवी) के अधीन थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इनमें से कुछ का जिक्र किया था। ह्वेनसांग छठी शताब्दी में भारत में आया था। इन राजाओं के बीच आपस में लड़ाई में चलती रहती थी। माना जाता है कि नौवीं शताब्दी लगभग 250 वर्षों तक इन गढ़ों की स्थिति बनी रही लेकिन बाद में इनके बीच आपसी लड़ाई का पवांर वंश के राजाओं ने लाभ उठाया और 15वीं सदी तक इन गढ़ों के राजा परास्त होकर पवांर वंश के अधीन हो गये। इसके लिये पवांर वंश के राजा अजयपाल सिंह जिम्मेदार थे जिन्होंने तमाम राजाओं को परास्त करके गढ़वाल का नक्शा एक कर दिया था।
गढ़वाल में वैसे आज भी इन गढ़ों का शान से �जिक्र होता और संबंधित क्षेत्र के लोगों को उस गढ़ से जोड़ा जाता है। मैं बचपन से इन गढ़ों के आधार पर लोगों की पहचान सुनता आ रहा हूं। गढ़वाल के 52 गढ़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है …

पंवार वंश के शासकों का क्रम और शासनकाल(The Order and Reign of the Rulers of Panwar Dynasty)

क्र.                             संख्या -                          शासक - शासनकाल
1                                   कनकपाल                     -888-899 ई०
                                  श्यामपाल                     -899-924 ई०
3                                  पाण्डुपाल
24                                सोनपाल                     -1209-1216 ई०
34                             - जगतपाल                     -1442-1460 ई०
37                             - अजयपाल                     -1493-1547 ई०
43                             - बलभद्र शाह                  -1580-1591 ई०
44                             - मानशाह                        -1591-1611 ई०
45                             - श्यामशाह                     -1611-1624 ई०
46                             - महिपतिशाह                   -1624-1631 ई०
47                             - पृथ्वीपति शाह                 -1635-1667 ई०
48                             - मेदिनीशाह
49                            - फतेहपति शाह                 -1667-1716 ई०
50                            - उपेन्द्रशाह (दलीप शाह)     -1716-1717 ई०
51                             - प्रदीपशाह                         -1717-1772 ई०
52                             - ललितशाह                         -1772-1780 ई०
53                             -जयकृतशाह                         -1780-1785 ई० 
54                             - प्रद्युम्न शाह                       -1785-1804 ई०
55                             - सुदर्शन शाह                     -1815-1859 ई०
56                             - भवानी शाह                         -1859-1871 ई०
57                             - प्रतापशाह                         -1871-1886 ई०
58                             - कीर्तिशाह                         -1886-1913 ई०
59                             - नरेन्द्र शाह                         -1913-1946 ई०
60                             - मानवेन्द्र शाह                     .-1946-1949 ई०
  • गढ़वाल का 18 वां गढ चांदपुरगढ था।
  • गढ़वाल का 13 वां गढ उप्पूगढ था।
  • भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा चांदपुरगढो का उत्खनन 2004 में किया गया।
  • चांदपुर गढ़ी की रचना चक्रव्यूह जैसी थी जिसे भेदना मुश्किल था।
  • सुदर्शन शाह ने अपने वंश को पंवार वंश कहा।
  • पंवार वंश के संस्थापक का प्रश्न विवादास्पद है। बिकेट व विलियम्स की वंशावलियों के अनुसार पंवार वंश का संस्थापक कनकपाल था। जबकि अल्मोड़ा से प्राप्त वंशावली के अनुसार भगवानपाल, मौलाराम की वंशावली के अनुसार भौनापाल तथा हार्डविक की वंशावली के अनुसार इस वंश का संस्थापक भोगदत्त नामक व्यक्ति था।

कनकपाल(Kanakpal )(888-899 ई)

  1. परमार वंश का संस्थापक व आदि पुरूष कनकपाल था। जो गुर्जर प्रदेश/धारा नगरी (मध्यप्रदेश/गुजरात) से आया था।
  2. कनकपाल पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा हेतु आया था राह में भानुप्रताप का राज्य भी पड़ता था। अतः वह भानुप्रताप से मिला।
  3. भानुप्रताप युवक से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपनी कन्या सुचित्रवीणा या चित्रवीणा का विवाह उस युवक से कर दिया व दहेज में चांदपुर का परगना भी प्रदान कर दिया।
  4. इस प्रकार कनकपाल ने 888 ई में चांदपुर गढ़ में परमार वंश की स्थापना की।
  5. कनकपाल के गढ़ का नाम कौनपुरगढ या चांदपुरगढ था।
  6. कवि देवराय ने गढ़वाल राजवंशावली में कनकपाल का वर्णन किया है और कनकपाल को स्वर्णपाल कहा है।
  7. कनकपाल शौनक गोत्र का था।

सोनपाल या सुवर्णपाल(Sonpal) (1243-50 ई)

  1. यह 24वाँ शासक था।
  2. सोनपाल की दूसरी राजधानी भिलंगघाटी में थी।
  3. नोट- बाद में आसल देव ने राजधानी पुनः चांदपुरगढ़ में स्थापित की थी।

लखनदेव / लषणदेव(Lakhandev) (1310-1330 ई)

  1. यह 28 वां राजा था।
  2. लखनदेव पंवार वंश का पहला राजा था जिसने अपने नाम की तांबे की स्वमुद्रा छापी थी। इस मुद्रा में नागरी लिपि में लषणदेव लिखा मिला है।
  3. यह मुद्रा पुराना दरबार संग्रह टिहरी से प्राप्त हुयी है

अनंतपाल द्वितीय(Anantapal II) (1333-1354 ई)

  1. अनंतपाल द्वितीय 29 वां राजा था।
  2. इसका 1335 ई का शिलालेख मंदाकिनी घाटी में स्थित धारशिल (ऊखीमठ) नामक स्थल से प्राप्त हो चुका है।
  3. इसमें इसका एक अन्य नाम मुकंददेव मिलता है।
  4. यह गढ़वाल का सबसे प्राचीन शिलालेख है।

जगतपाल(Jagatpal) (1442-1460 ई)

  1. जगतपाल काल 1455 ई० का है।
  2. इस वंश का प्राचनीतम ताम्रपत्र 34वें राजा जगतपाल का है। जो कि रघुनाथ मन्दिर देवप्रयाग से मिला है।
  3. इसमें जगतपाल को रजबार अर्थात प्रभुत्वसंपन्न कहा गया है।
  4. इस ताम्रपत्र में देवप्रयाग के वैष्णव मंदिरों के पूजा प्रबंध के लिये भूमिदान का उल्लेख है।
  5. यह परमार वंश का पहला भूमिदान का साक्ष्य है।

अजयपाल(Ajaypal)(1490-1519 ई)

  1. परमार राजवंश के 37वें शासक के रूप में अजयपाल ने 1515 ई में 52 गढ़ों को जीतकर गढ़वाल का एकीकरण किया और इनको गढ़वाल नाम दिया।
  2. अजयपाल के पिता का नाम आनंदपाल द्वितीय था।
  3. गढवाल का एकीकरण करने के कारण इसे गढवाल का बिस्मार्क भी कहा जाता है।
  4. गढवाल का कृष्ण या भीम अजयपाल को कहा जाता है।
  5. गढ़वाल का नेपोलियन अजयपाल को कहा जाता है।
  6. अजयपाल को सभी गढ़ों पर शासन करने के कारण गढ़ोवाला भी कहा जाता है।
  7. इसने अपनी राजधानी चांदपुरगढ़ से देवलगढ़ 1512 में और फिर 1517 में श्रीनगर में स्थापित की।
  8. उत्तराखंड का दिल्ली, श्रीनगर को कहा जाता है।
  9. वर्तमान श्रीनगर 1895 में ई पौ नामक अग्रेंज द्वारा बसाया गया था।
  10. अजयपाल को पंवार वंश वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
  11. अजयपाल को डाॅं सूरवीर सिंह पंवार द्वारा लिखित सांवरी ग्रन्थ में आदिनाथ कहा गया है।
  12. अजयपाल ने ही कत्यूरी शासकों से सोने का सिंहासन छीना था।
  13. गढ़वाल की सीमा का निर्धारण भी राजा अजयपाल ने ही किया था।
  14. अजयपाल ने सीमाओं का निर्धारण किया व सीमाओं में ओढा लगाया।
  15. अजयपाल के बारे में सूचना मानोदय काव्य से मिलती है।
  16. कवि भरत ने अपनी पुस्तक मानोदय काव्य में अजयपाल की तुलना कृष्ण, युधिष्ठर, भीम, कुबेर एवं इन्द्र से की है।
  17. मानोदय काव्य में अजयपाल को अपने नाम से ही शत्रुओं के मन को तोड़ने वाला कहा गया है।
  18. मानोदय काव्य पंवार वंश का सबसे प्राचीन ऐतिहासिक काव्य है। जिसकी रचना भरत कवि ने की।
  19. 52 गढ़ो का एकीकरण करने के बाद अजयपाल गोरखनाथ सम्प्रदाय का अनुयायी बन गया। इसी कारण इसे गढ़वाल का अशोक कहा जाता है।
  20. अजयपाल को गढ़वाल का अशोक प्रो अजय सिंह रावत ने कहा है।
  21. गढ़वाल में गोरखनाथ पंथ की स्थापना अजयपाल ने की थी।
  22. उप्पूगढ (टिहरी) के कफ्फू चौहान को अजयपाल ने ही मारा था।
  23. गढवाल का महाराणा प्रताप कफ्फू चौहान को कहा जाता है।
  24. कफ्फू चौहान का सेनापति देव था।
  25. कफ्फू चौहान पर जीत का उल्लेख तारादत्त गैरोला ने सदेई गढ़वाली काव्य में किया है।
  26. कंडारी गढ (रूद्रप्रयाग) के नरवीर सिंह कंडारी को अजयपाल ने जीता।
  27. नरवीर सिंह कंडारी ने अजयपाल के डर से मंदाकिनी नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली।
  28. बद्रीनाथ में रावल पुजारियों का प्रारम्भ भी अजयपाल ने ही कराया।
  29. इसके गुरु सत्यनाथ भैरव थे जिनका उल्लेख जॉर्ज डब्लू विग्स ने अपने ग्रन्थ गोरखनाथ एण्ड द कनफटा योगीज में किया है।
  30. गोरखनाथ एण्ड द कनफटा योगीज जॉर्ज वेस्टन विंग्स ने लिखा है।
  31. सत्यनाथ को भैरव का अवतार माना जाता है।
  32. अजयपाल के पुत्र का नाम बलराम था जिससे वह बहुत प्रेम करता था।
  33. इनकी कुल देवी राजराजेश्वरी देवी थी।
  34. अजयपाल ने देवलगढ़ में अपने के लिए एक महल का निर्माण करवाया था जिसमें उसने अपनी कुल देवी राजराजेश्वरी देवी की प्रतिष्ठा की थी।
  35. देवलगढ़ में विष्णु मन्दिर की दाहिनी ओर ठीक सामने की दीवार पर अजयपाल का एक पद्मासन की मुद्रा में चित्र बना है।
  36. अजयपाल ने देवलगढ़ में भैरव मन्दिर का निर्माण कराया था।
  37. इसने देवलगढ़ में गढ़वाल का न्यायालय सोम का भांडा स्थापित किया।
  38. अजयपाल के शासनकाल में चंद राजा कीर्तिचंद ने आक्रमण किया था और अजयपाल को हराया।
  39. अजयपाल ने पांडुवानौला में तप किया।
  40. अंततः अजयपाल ने कीर्तिचंद को भी हराया था।
  41. यह सिकन्दर लोदी व इब्राहिम लोदी का समकालीन था।
  42. इसने श्रीनगर में राजमहल का निर्माण भी कराया जो 1803 में भूकम्प में ध्वस्त हो गया व 1894 में बाढ़ में पूरी तर बह गया।
  43. इसने श्रीनगर में कालिंका मठ, देवलगढ़ में राजराजेश्वरी मन्दिर व सत्यनाथ भैरव मन्दिर व गौरजा मन्दिर का निर्माण किया।
  44. अजयपाल ने राज्य को मण्डलों में तथा मण्डलों को परगनों में बांटा।
  45. नोट-अजयपाल का एक अन्य नाम पूर्वा देव था।
  46. देवलगढ़ शिलालेख में अजयपाल की मापन ईकाई पाथा को अजयपाल का धर्म पाथो कहा गया है।
  47. अजयपाल ने पाथा मापन प्रणाली लागू की।
  48. अजयपाल ने सरोला ब्राह्मण की नियुक्ति की थी तथा इनके द्वारा बनाए गए भात को शुद्ध माना जाता है।

कल्याणशाह(Kalyanshah)

  1. अजयपाल के बाद कल्याणशाह शासक बने।
  2. पंवार राजवंश में सबसे पहले इनके द्वारा शाह की उपाधि धारण की गयी।

विजयपाल(Vijaypal)

  1. पहला परमारवंशीय शासक जिसने भोट तिब्बत पर आक्रमण किया।
  2. हर्षदेव जोशी के अनुसार विजयपाल अपने इस अभियान में असफल रहा।

सहजपाल(Sahajpal) (1547-75)

  1. सहजपाल पंवार वंश के 42वें शासक सहजपाल हुए थे।
  2. सहजपाल के देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर से 5 अभिलेख प्राप्त हुये हैं। - पहला देवप्रयाग में 1548 ई० का क्षेत्रपाल के मन्दिर के द्वार से प्राप्त हुआ है।
  3. एक अन्य अभिलेख देवप्रयाग में रघुनाथ जी के मन्दिर में चढ़ी हुई एक घंटी में सन् 1561 ई० की खुदी हुई कुछ पंक्तियां मिली हैं। जिसमें उसका नाम लिखा है।
  4. सहजपाल ने देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में घंटी चढाई थी जिस पर उसका नाम लिखा है।
  5. सहजपाल हुमायूं व अकबर के समकालीन था तथा चंदों में भीष्मचंद, बालोकल्याणचंद व रूद्रचंद का समकालीन था।
  6. इसके काल में अकबर ने एक खोजी दल को गंगाजी के स्रोत की खोज तथा अन्य जानकारी प्राप्त करने हेतु गढ़वाल भेजा था।
  7. कवि भरत ने सहजपाल को वीर गुणज्ञ सुखद प्रजाया कहा था अर्थात प्रजा का हित चाहने वाला, शत्रुओं का नाश करने वाला, दानी, विद्वानों का आश्रयदाता तथा चतुर राजनीतिज्ञ था।

बलभद्र शाह (Balbhadrashah) (1575-91)

  1. सहजपाल के पश्चात् गढ़वाल राज्य की सत्ता बलभद्र शाह के हाथों में आई।
  2. इसके अन्य नाम बलरामशाह, रामशाह व बहादुरशाह भी मिलते है।
  3. अकबरनामा में इन्हें रामशाह कहा गया है।
  4. यह पहला शासक धर्म जिसने अपने नाम के आगे शाह की उपाधि धारण की।
  5. बलभद्र को शाह की उपाधि बहलोल लोदी द्वारा दी गई।
  6. राजा बलभद्रशाह अपने बल एवं युद्ध प्रियता के लिए प्रसिद्ध था।
  7. कवि देवराज ने बलभद्रशाह की तुलना भीमसेन समाबली से की।
  8. 1581 में बलभद्र शाह और रूद्रचंद के बीच ग्वालदम नामक स्थान पर बधाणगढ का युद्ध हुआ।
  9. अन्य मान्यता इन्हीं के शासनकाल में रूद्रचंद ने बधाणगढ़ (ग्वालदम) पर 1590-91 ई में आक्रमण किया।
  10. इस युद्ध में कुमाऊँनी सेना का सेनापति पुरूषपंत/पुरूखुपंत मारा गया।
  11. बधाणगढ़ के युद्ध में बलभद्रशाह की मदद सुखलदेव मिश्रा नामक कत्यूरी शासक ने की थी।
  12. बहादुर शाह ने राजधानी श्रीनगर में प्रस्तर के विशाल राजभवन का निर्मााण कराया।
  13. बलभद्रशाह के समय राजदूत भेजने की प्रथा प्रारंभ हुयी।
  14. मानशाह बलभद्रशाह के पुत्र थे।

मानशाह (Maanshah) (1591-1611 ई)

  1. बलभद्र शाह के पश्चात् मानशाह गद्दी पर बैठे।
  2. मानशाह के शासनकाल में लक्ष्मीचंद ने 1597 से 1605 तक आठ आक्रमण किए। 8 वें आक्रमण में उसे सफलता मिली।
  3. लक्ष्मीचंद ने 7 वां आक्रमण पैनोगढ पर किया। यहां भी उसे असफलता मिली। पयनदुर्ग (पैनोगढ) के युद्ध का वर्णन मानोदयकाव्य में वर्णित है।
  4. नंदी मानशाह का सेनापति था जिसने कुमाऊं की राजधानी पर अधिकार कर लिया था।
  5. 8 वां आक्रमण 1605 में हुआ जिसमें गढ सेनापति खतड़ सिंह मारा गया।
  6. भृंगी भी मानशाह का सेनापति था।
  7. मानशाह के समय के चार अभिलेख प्राप्त हुए हैं।
  8. प्रथम गढवाली ग्रंथ मानोदय काव्य की रचना मानशाह के शासनकाल में इनके दरबारी कवि भरत द्वारा की गई थी। यह संस्कृत भाषा में रचित है।
  9. कवि भरत ज्योतिषाचार्य भी था। जहांगीर ने कवि भरत को ज्योतिषराय की उपाधि दी और सम्मानित किया था।
  10. मानोदय काव्य में मानशाह की प्रशंसा करते हुये उसे समुद्र के समान गंभीर, भीम के समान शौर्यवान, सूर्य के समान तेजस्वी तथा दान देने में राजा बलि व कर्ण से अधिक कीर्तिवान कहा गया है।
  11. मानशाह बहुत शौर्यवान शासक रहे जो साने के बर्तनों में भोजन करते थे।
  12. युरोपीय यात्री विलियम फिंच मानशाह के दरबार में आया था।
  13. ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से विलियम फिंच नामक एक नील व्यापारी भारत आया था और ये जहांगीर दरबार में आया था। 
  14. विलियम फिंच ने मानशाह के बारे में कहा है कि ये राजा इतना धनवान था कि वो भोजन सोने के बर्तनों में करता था।
  15. मानशाह का वर्णन अर्ली ट्रैवल्स इन इंडिया फोस्टर ने किया है।
  16. इस पुस्तक में फोस्टर ने भारत आने वाले यात्रियों का वर्णन किया है।
  17. मानशाह ने गद्दी पर बैठते ही दापा (तिब्बत) के राजा काकवामार पर आक्रमण किया और जीत प्राप्त की।
  18. नोट: तिब्बत पर आक्रमण करने वाला पहला पंवार शासक विजयपाल था लेकिन वह हार गया था। अंततः तिब्बत पर प्रथम सफल आक्रमण मानशाह द्वारा किया गया और वह 1000 स्वर्ण कलश लेकर आया व गौरीमठ में इनको स्थापित किया।
  19. इसने अलकनंदा के किनारे मानपुर (श्रीनगर) नामक नगर की स्थापना की।
  20. इन्हें गढभंजन कहा जाता है।
  21. इन्होंने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी।
  22. जीतू बगडवाल मानशाह का समकालीन था। मानशाह ने जीतू को भोट का फौजदार नियुक्त किया था।
  23. मानशाह के दो पुत्र थे- श्यामशाह व धामशाह

श्यामशाह(Shyamshah) (1611-1631)

  1. मानशाह के बाद श्यामशाह गद्दी पर आसीन हुए।
  2. श्यामशाह चंद राजा लक्ष्मीचंद, दिलीपचंद, विजयचंद तथा त्रिमल चंद के समकालीन थे।
  3. त्रिमलचंद ने श्यामशाह के पास शरण ली। वह पहला चंद राजा था जिसने गढ़वाल में शरण ली और श्यामशाह ने इसे कुमाऊं का राजा बनाया।
  4. श्यामशाह की भेंट त्रिमलचंद से 1621 में हुई थी।
  5. श्यामशाह ने तिब्बत पर आक्रमण किया था क्योंकि काकवामोर श्यामशाह को कर देने से इंकार करता है।
  6. इन्होंने काकवामोर को एक शेर स्वर्ण चूर्ण, एक चार सींग वाला मेंढा तथा एक चंवर गाय कर के रूप में देने के लिये बाध्य किया।
  7. श्यामशाह ने काकवामोर का महल व तिब्बत का एक गांव जला दिया।
  8. श्यामशाह ने शत्रुओं को विजितकर दक्षिण में मंगलौर नगर को अपनी सीमा बनाया।
  9. श्यामशाह जहांगीर के दरबार में गए थे। श्यामशाह ने 15 मार्च 1621 को जहांगीर से आगरा में मुलाकात की थी।
  10. जहांगीर ने श्यामशाह को हाथी एवं घोड़े उपहार स्वरूप भेट किए थे।
  11. श्यामशाह का वर्णन प्रसिद्ध ग्रंथ जहांगीर नामा में भी किया गया है।
  12. श्यामशाह के गुरू का नाम शंकर था। जिनकी रचना वास्तुशिरोमणि है।
  13. यूरोपीयन यात्री (पुर्तगाली यात्री)एनड्रार्ड (जेसूएट पादरी) श्यामशाह के काल में 1624 ई में गढ़वाल आया और श्रीनगर से होकर तिब्बत गया। वहां छपराड़ मंडी उसने चर्च की स्थापना की।
  14. यह श्रीनगर आने वाला प्रथम ईसाई और पादरी था।
  15. उसके साथ उसका मित्र मैनुअल मार्क्स/ माक्विस भी था।
  16. 1631 में एनड्राडे ने पादरियों का एक दल श्रीनगर से होते हुये तिब्बत भेजा लेकिन जब यह दल श्रीनगर पहुंचा तो श्यामशाह की मृत्यु हो चुकी थी व उसके साथ उसकी 60 रानियों की चिताऐं जल रही थी।
  17. इन्होंने श्यामशाह के अंतिम संस्कार में भाग लिया तब तिब्बत को गये।
  18. श्रीनगर में श्यामशाह ने सामाशाही बागान बनाया।
  19. श्यामशाह के चरित्र में एक कमी थी। यह अत्यंत विलासी राजा था और वैश्याओं के साथ समय बिताने में कोई बुराई नहीं समझता था।
  20. अलकनंदा में नांव डूबने से श्यामशाह की मृत्यु हो गई।
  21. श्यामशाह की मौत के बाद उसकी 60 रानियों ने खुद को सती कर लिया।
  22. श्यामशाह के काल में सती प्रथा प्रचलित थी।
  23. श्यामशाह निःसंतान थे। अतः उनके बाद उनके चाचा महिपतिशाह गद्दी पर बैठे।
  24. गढवाल का मोहम्मद बिन तुगलक श्यामशाह को कहा जाता है।
  25. श्यामशाह के भाई का नाम धामशाह था जिसने राजकाज में श्यामशाह की मदद की थी।
  26. केशोराय मठ का निर्माण 1625 ई में महिपतिशाह ने श्यामशाह के शासन में किया था।
  27. श्यामशाह ने सिलासारी नामक गांव में भूमिदान शिवनाथ जोगी को दिया था।
  28. श्यामशाह के राज्यकाल में लोगों को प्लेग महामारी का सामना करना पड़ा। जो महामारी 1616 से 1624 तक निरंतर 8 वर्षों तक चलती रही।

महिपति शाह(Mahipati Shah) (1632-35 ई)

  1. श्यामशाह के बाद महिपति शाह गद्दी पर आसीन हुए।
  2. इनके पिता का नाम दुलाराम शाह था।
  3. महिपति शाह को गर्वभंजन के नाम से भी जाना जाता है।
  4. प्रमुख उपाधियां - गर्वभंजन-महिपतिशाह, गर्भभंजक माधोसिंह भण्डारी, गढ़भंजन - मानशाह को कहा जाता है।
  5. महिपतशाह ने अपने अनेक शत्रुओं को पराजित किया इस कारण इन्हें गर्वभंजन की उपाधि दी गई।
  6. महिपतिशाह ने नागा साधुओं की हत्या की थी।
  7. इन हत्याओं के प्रायश्चित के लिए वे ऋषिकेश के भरत मन्दिर गए जहां उन्होंने भरत की मूर्ति की आंखे निकाल महिपति शाह के तीन बहादुर सेनापति थे। माधोसिंह भण्डारी, लोदी रिखोला, बनवारी दास।
  8. माधोसिंह ने अपने पुत्र गजे सिंह का बलिदान किया था।
  9. महिपति शाह का प्रसिद्ध सेनापति माधोसिंह भण्डारी था। जिसे गर्भभंजक कहा जाता है।
  10. महिपति शाह ने तिब्बत पर तीन आक्रमण किए लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी।
  11. महीपति शाह ने भोट (तिब्बत) से संघर्ष को शांत करने के लिए माधोसिंह भण्डारी व रिखोला लोदी दो वीरों को भेजा था।
  12. महिपतिशाह ने लोदी रिखोला के नेतृत्व में तिब्बत के दापा दुर्ग पर 1632 ई में आक्रमण किया व दुर्ग को जीतकरी बड़थ्वाल भाइयों को वहां शासक बनाया।
  13. इनके सेनापतियों में बड़थ्वाल भाइयों का नाम भी आता है जिनमें भीम सिंह बड़थ्वाल मुख्य थे।
  14. बड़थ्वाल भाई तलवार चलाने में माहिर थे। लेकिन बड़थ्वाल भाई इस शासन को लंबे समय तक बरकरार नहीं रख पाए व तिब्बती आक्रमण में मारे गए।
  15. बड़थ्वाल भाइयों की तलवारें वर्तमान में दापा घाट के बौद्ध मन्दिरों में रखी गई हैं।
  16. तत्पश्चात् माधोसिंह भण्डारी के नेतृत्व में तिब्बत पर आक्रमण किया गया लेकिन माधोसिंह भण्डारी भी युद्ध में मारे गए।
  17. जिनकी मृत्यु विशहर नामक स्थान पर हुयी थी। जो सतलुज नदी के तट पर है।
  18. महिपति शाह की पत्नी का नाम कर्णावती था।
  19. देहरादून की प्रसिद्ध नहर राजपुर कैनाल का निर्माण रानी कर्णावती ने कराया था।
  20. कर्णावती ने देहरादून में करनपुर नगर बसाया।
  21. ये त्रिमलचंद के समकालीन थे व मुगल बादशाह शाहजहां के भी समकालीन थे।
  22. महिपतिशाह ने त्रिमलचंद के साथ कोसी नदी के तट पर युद्ध लड़ा जिसमें महिपतिशाह वीरगति को प्राप्त हुए।
  23. मुस्लिम लेखकों ने महिपतशाह को अक्खड़ राजा कहा है।
  24. मौलाराम ने महिपतिशाह को महाप्रचंड भुजदंड कहा है।
  25. महिपतिशाह ने 1625 में श्रीनगर में केशोराय मठ का निर्माण किया था।
  26. महिपतिशाह ने अपने राज्य में रोटी शुचि नामक प्रथा को शुरू किया। इस प्रथा के अनुसार कोई भी व्यक्ति बिना कपड़े उतारे भोजन बना सकता था चाहे व क्षत्रिय हो या ब्राह्मण हो।

माधोसिंह भंडारी(Madho Singh Bhandari)

  1. माधोसिंह भंडारी का जन्म 1595 मलेथा (टिहरी) में हुआ था।
  2. इनके पिता का नाम सोणबाण कालो भण्डारी था।
  3. इनकी पत्नी का नाम उदिना था।
  4. इनके पुत्र का नाम गजे सिंह था।
  5. माधोसिंह के पौत्र का नाम अमर सिंह था।
  6. मानशाह द्वारा इन्हें सोणबाण की उपाधि दी गई थी।
  7. पुत्रवधू का नाम मथुरा वैराणी था। मथुरा वैराणी का एक लेख देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर के द्वार से प्राप्त हुआ है।
  8. माधोसिंह को गर्भभंजक के नाम से जाना जाता है।
  9. माधोसिंह को नरकेसरी भी कहा जाता है।
  10. इन्हें 16वीं सदी का पहला इंजीनियर भी कहा जाता है।
  11. इनके द्वारा मलेथा की पुल बनाई गयी जो चन्द्रभागा नदी पर है।
  12. इनकी मृत्यु बिशहर तिब्बत में हुई थी।
  13. माधोसिंह तुमुल युद्ध में मारा गया था।

लोदी रिखोला (Lodi Rikhola)

  • लोदी रिखोला का जन्म पौड़ी हुआ था।
  • इनके पिता का नाम भौं सिंह रिखोला था।
  • लोदी रिखोला को गढ़वाल का रखवाला या गढ़वाल के भीम के नाम से जाना जाता है।
  • इनको महिपतिशाह ने छल करके मरवाया था।
  • लोदी रिखोला के नेतृत्व में महिपतिशाह ने सिरमौर के गढ़ों को जीता व सिरमौर के राजा कर्मप्रकाश को हराया।
  • लोदी रिखोला पर गढ़वीर महाकाव्य रूपमोहन सकलानी ने लिखा।
  • पृथ्वीपति शाह(Prithvipati Shah)
  • महिपति शाह के बाद पृथ्वीपति गद्दी पर बैठे तथा शाह के नाबालिग होने के कारण रानी कर्णावती इनकी संरक्षिका बन गयी।
  • रानी कर्णावती ने 1635 से 1640 तक राज्य की बागडोर संभाली।
  • पृथ्वीपतिशाह 1640 में पंवार राजवंश की राजगद्दी पर बैठा। पृथ्वीपति शाह जिस समय गद्दी पर बैठे वह केवल सात वर्ष के थे।
  • सबसे कम उम्र में गद्दी पर बैठने वाले राजा पृथ्वीपति शाह थे।
  • इसने राजगढ़ी (पौढी) को अपनी दूसरी राजधानी बनाया और वहां का राजा अपने पुत्र दिलीप शाह को बनाया।
  • पृथ्वीपतिशाह के नौ पुत्र थे जिनमें एक अजबू कुंवर भी था।
  • इन्होंने देहरादून में पृथ्वीपुर शहर बसाया था।
  • सर्वप्रथम पृथ्वीपतिशाह ने सिरमौर के राजा मानधाता प्रकाश पर आक्रमण किया व हटकोली की संधि हुई।
  • पृथ्वीपतिशाह ने शाहजहां की अधीनता स्वीकार नहीं की थी।
  • रानी कर्णावती के समय शाहजहां की 1 लाख पैदल व 30 हजार घुड़सवार सेना ने परमार राजवंश पर 1636 में नवाजत खां नेतृत्व में आक्रमण कर दिया।
  • गढ़वाल के सुरमाओं ने मुगल सेना को तहस नहस कर दिया जो सैनिक बचे उनके नाक कान कटवा दिए गए यह दिखाने के लिए की गढ़राज्य से टक्कर लेने वाले को जीवन भर अपमान का घूंट पीना पड़ता है।
  • इसलिए रानी कर्णावती को नाककाटी रानी के नाम से जाना जाता है।
  • कर्णावती ने अपने दोस्त बेग मुगल के सुझाव पर ही नाक काटने की परंपरा शुरू की।
  • बादशाहनामा/पादशाहनामा (अब्दुल हमीद लाहौरी), मासिर उल उमरा (शमशुद्दौला खान) से शाहजहां के साथ कर्णावती के युद्धों का वर्णन मिलता है।
  • कर्णावती की तुलना गोंडवाना की शासिका रानी दुर्गावती से की जाती है।
  • कर्णावती को ताराबाई की उपमा भी दी गयी है।
  • मुगल सेनापति नावजत खां भाग गया व दिल्ली जाकर आत्महत्या कर ली।
  • इस घटना का वर्णन निकोलस मनूची ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ मुगल में किया है।
  • इसकी पुष्टि मुगल दरबार का राजकीय विवरण मासिर उल उमरा भी करता है। 
  • बिनसर मंदिर में लिखा है कि यहां रानी कर्णावती के शत्रुओं को बिनसर देवता ने ओलावृष्टि में नष्ट कर दिया था।
  • तब रानी ने देवता के नये शिखर का निर्माण किया। इस मंदिर के समीप ही राणीहाट है जहां कर्णावती ने शिविर लगाया था।
  • दून की राजधानी नवादा में कर्णावती के राजभवन व बावड़ी के अवशेष अब तक विद्यमान हैं।
  • मुगल सम्राट अपने अपमान को न भूला व उन्नीस वर्ष तक प्रतीक्षा करता रहा तथा 1655 में खलीतुल्ला खां के नेतृत्व में दिल्ली की सेना ने गढ़वाल को घेर लिया व कुमाऊँ के शासक बाजबहादुर चंद और सिरमौर के राजा मानधाता प्रकाश की सहायता से दून की घाटी पर विजय प्राप्त कर ली, लेकिन श्रीनगर अविजित रहा।
  • इसी बीच बारिस का मौसम होने के कारण खलीलुल्ला खां वापस चला गया और विजित प्रदेश का कार्यभार चतुर्भुज चौहान को सौंप गया।
  • 1656 में पृथ्वीपतिशाह ने छापामार पद्धति के तहत देहरादून पर आक्रमण कर चतुर्भुज को हरा दिया और एक बार फिर देहरादून पंवार वंश के पास आ जाता है।
  • शाहजहां ने 1656 में कासिम खां के नेतृत्व में गढ़वाल पर अंतिम आक्रमण किया और पृथ्वीपति शाह हार गए।
  • इसी बीच गढ़वाल के राजकुमार मेदिनीशाह दिल्ली गए तो उनका भव्य स्वागत हुआ।
  • 1659 में मुगलों व गढ़वाल के मध्य खाई और बढ़ गई जब सामूगढ़ के युद्ध में दारा शिकोह औरंगजेब से पराजित हुआ और उसके पुत्र सुलेमान सिकोह ने गढ़वाल नरेश के यहां शरण ले ली। क्योंकि मुगल सल्तनत से टकराने का साहस गढ़राज्य को ही था।
  • इससे औरंगजेब नाराज हुआ और उसने पृथ्वीपति शाह को पत्र लिखकर भेजा कि वह सुलेमान को तुरंत दिल्ली भेज दे लेकिन उन्होंने औरंगजेब की इस धमकी को ज्यों का त्यों लौटा दिया क्योंकि वे औरंगजेब से ज्यादा शक्तिशाली व शौर्य प्रतिष्ठा के थे।
  • पृथ्वीपतिशाह का यह कृत्य हम्मीरदेव की तरह था जिस कारण पृथ्वीपतिशाह को गढवाल का हम्मीर देव कहा जाता है।
  • औरंगजेब जानता था कि अगर वह गढ़पति से लड़ा तो हार जाएगा अतः उसने कूटनीति का सहारा लिया। पहले श्रीनगर के एक वृद्ध सरदार को औरंगजेब के प्रतिनिधि जयसिंह ने प्रलोभन दिया। किन्तु वह असफल रहा।
  • इसके पश्चात् जयसिंह ने पृथ्वीपति शाह के मंत्री को प्रलोभन दिया।
  • मंत्री ने औषधि के रूप में सुलेमान को घातक विष दिया परन्तु सुलेमान ने इसका प्रयोग एक बिल्ली पर किया।
  • अपने मंत्री के इस जघन्य प्रयास की सूचना पाकर राजा ने तुरन्त उस दुष्ट का सर कटवा दिया। आगे चलकर जयसिंह ने राजा के पुत्र मेदिनीशाह से षड़यंत्र कराया व उसको प्रोत्साहन दिया कि अपने पिता के प्रति षड़यंत्र करें।
  • जब पृथ्वीपति शाह ने अपने गद्दार मंत्री का सर कटवा दिया तो गढ़वाल के अन्य सामंतों व पृथ्वीपति शाह के पारिवारिक सदस्यों में गढ़नरेश के प्रति रोष एवं असंतोष फैल गया तथा पृथ्वीपति शाह के पुत्र मेदिनी शाह ने षड़यंत्र का झण्डा खड़ा कर दिया।
  • अब औरंगजेब ने जयसिंह के पुत्र रामसिंह को पुनः पृथ्वीपति शाह के दरबार में भेजा लेकिन राजा ने पुनः वही जवाब दिया कि जब तक उनके शरीर में प्राण हैं तब तक सुलेमान सिकोह की रक्षा वे साये की तरह करेंगे।
  • राम सिंह व मेदिनी शाह सुलेमान सिकोह के विरूद्ध कपट जाल फैला रहे थे इसका पता सुलेमान ने लगा लिया था।
  • सुलेमान सिकोह बिना पृथ्वीपति शाह को सूचित किए एक रात्रि को चुपचाप तिब्बत की राह पर चल पड़ा।
  • भाग्य चक्र ही उल्टा हो रहा था समय विपरीत चल रहा था। निरीह राजकुमार राह भूल गया व सीमाप्रांत पर बसे गांववासियों ने उसे पकड़कर मेदिनीशाह के हवाले कर दिया और मेदिनीशाह ने उसे रामसिंह के हवाले कर दिया।
  • 5 जून 1661 को सुलेमान सिकोह को औरंगजेब के समक्ष पेश किया गया और अंत में सुलेमान सिकोह की हत्या कर दी गई।
  • सुलेमान शिकोह को अभागा सहजादा कहा जाता है।
  • सुलेमान सिकोह ने 17 आदमियों के साथ गढवाल में शरण ली थी।
  • इसी वर्ष मेदिनी शाह श्रीनगर त्यागकर दिल्ली पहुंचा।
  • वृद्ध पृथ्वीपति शाह ने अपने पुत्र को इस जघन्य अपराध के लिए देश निकाला दे दिया था।
  • मेदिनीशाह की 1662 में दिल्ली में मृत्यु हो गई।
  • मेदिनी शाह की दिल्ली में 1662 में मृत्यु की खबर औरंगजेब ने पृथ्वीपतिशाह को पत्र लिखकर दी।
  • मेदिनीशाह ने कहा 'मेरी गंगा हवेलि तो मेरे पास आली'।
  • पराक्रमी राजा का डरपोक पुत्र मेदिनीशाह को कहा जाता है।
  • ट्रैवर्नियर ने अपनी पुस्तक ट्रैवल्स इन इंडिया में गढ राज्य की बहादुरी की प्रसंसा की है।

फतेहपति शाह(Fatehpati Shah)(1667-1716 ई)

  • राजा फतेहशाह को प्रीतमशाह के नाम से भी जाना जाता है। संगीत प्रेमी होने के कारण प्रीतमशाह कहा जाता है।
  • फतेहपति शाह ने सहारनपुर पर आक्रमण किया तथा द्वरौरा परगने में फतेहपुर नामक नगर बसाया था।
  • फतेहपति शाह के दरबार में भी नौ रत्न थे सुरेशानन्द बर्थवाल, खेतराम धसमाना, रूद्रीदत्त किमोठी, हरिदत्त नौटियाल, बासवानन्द बहुगुणा, शशिधर डंगवाल, सहदेव चन्दोला, कीर्तिराम कनठोला, हरिदत्त थपलियाल थे।
  • इसी कारण से फतेहपति शाह को गढवाल का अकबर भी कहते हैं।
  • रत्नकवि व मतिराम फतेहशाह के दरबारी कवि थे।
  • फतेह प्रकाश के लेखक रत्नकवि या क्षेमराज हैं ।जिसकी भाषा हिंदी है।
  • फतेह प्रकाश में रत्नकवि ने फतेहशाह को हिंदुओं का रक्षक, शील का सागर, उदण्डों को दंड देने वाला बताया है।
  • फतेहप्रकाश नामक किताब फतेहशाह के जीवन पर डाॅ शूरवीर सिंह ने लिखी है।
  • फतेहशाह के शासनकाल में फतेहशाह कर्ण ग्रन्थ जटाधर या जटाशंकर द्वारा लिखा गया था।
  • वृत्त कौमुदी या छन्दसार पिंगल के लेखक मतिराम व वृत्त विचार के लेखक सुखदेव मिश्र हैं।
  • इनके एक अन्य दरबारी कवि रामचंद्र कंडियाल द्वारा फतेहशाह यशोवर्णन काव्य लिखा गया है।
  • फतेहशाह को शिवाजी की भांति घोड़े पर बैठा एक चित्र श्रीनगर से मिला है।
  • कवि मतिराम ने फतेहशाह को गढ़वाल का शिवाजी की उपाधि दी। इन्हीं के शासन काल में गुरु रामराय 1676 में श्रीनगर आए थे।
  • राजा फतेहशाह ने देहरादून में 3 गांव उन्हें दान दिए। जहां डेरा डालने के कारण इसका नाम देहरादून पड़ा।
  • गुरु गोविन्द सिंह फतेहशाह के अच्छे मित्र थे।
  • सन् 1662 में फतेहशाह ने सिरमौर को भी जीत लिया।
  • पौंटा (हिमाचल प्रदेश) व जौनसार का एक बड़ा भाग गढ़नरेश ने जीत लिए।
  • सिरमौर (हिमाचल प्रदेश) के राजा मेदिनी प्रकाश ने भय के मारे गुरु गोविन्द सिंह का आवाहन किया गुरुजी ने मित्रता के नाते फतेहशाह को सिरमौर की मित्रता स्वीकार करने के लिए राजी कर लिया। साथ ही सिरमौर के विजित प्रदेशों को लौटाने का आश्वासन भी प्राप्त कर लिया।
  • फतेहशाह ने बिलासपुर के राजा भीमचंद के पुत्र से अपनी पुत्री का विवाह किया।
  • संभवतः राजा भीमचंद गुरु गोविन्द सिंह से शत्रुता का भाव रखता था। इसलिए उसने राजा फतेहशाह को मजबूर किया कि वे गुरु द्वारा भेजा गया उपहार लौटा दें और चेतावनी दी कि यदि फतेहशाह ने उपहार स्वीकार किया तो वे नववधू को उसके पितृग्रह में ही छोड़ जाएंगे।
  • किसी भी पिता के लिए इससे बड़ा अपमान जीवन में नहीं है।
  • अतः उन्होंने ऐसा ही किया तब गढ़नरेश व गुरुजी के मध्य भैंगड़ी पौंटा में 1689 में युद्ध हुआ व फतेहशाह को झुकना पड़ा ।
  • इनके दरबार में दो मंत्री रहते थे- शंकरदत्त डोभाल व पुरिया नैथाड़ी।
  • पुरिया नैथाड़ी को गढ़वाल का चाणक्य व नाना फड़नवीस भी कहा जाता है।
  • पुरिया नैथाड़ी की चालाकी के कारण ही औरंगजेब ने गढ़वाल में जजिया कर नहीं लगाया।
  • पुरिया नैथानी अस्तबल का प्रमुख था।
  • फतेहपतिशाह की संरक्षिका राजमाता कटौची थी जो हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा के राजा की पुत्री थी।
  • राजमाता कटौची के 5 भाई थे। जिन्हें 5 भाई कठैत कहा जाता है। इनके द्वारा जनता पर खुब अत्याचार किया गया और कई कर लगाये गये।
  • चुलकर : जिसके घर में जितने चूल्हे होंगे उसे उतने ही रूपए दरबार में देने होंगे।
  • स्यूदा सूपा कर : जिस परिवार में जितनी औरते हैं उतने ही सूपे अनाज के देने होंगे।
  • पुरिया नैथाड़ी व शंकरदत्त डोभाल की मदद से लोगों ने 5 भाई कठैतों की हत्या पंचभैयाखाल में की।
  • फतेहशाह के शासनकाल को गढ़वाल का स्वर्णकाल कहा जाता है।
  • फतेहशाह ने गढ़सार गांव बद्रीनाथ मन्दिर को दान दे दिया था।
  • रतन कवि कहते हैं कि फतेहशाह के समय राज्य में इतनी शांति सुरक्षा थी कि लोग घरों में ताले तक नहीं लगाते थे।
  • मंगतराम फतेहशाह के दरबारी चित्रकार थे।

उपेन्द्र शाह(Upendra Shah) (1716 ई)

  • फतेहशाह के उत्तराधिकारी उपेन्द्रशाह हुए।
  • उपेन्द्रशाह ने केवल आठ माह तक शासन किया और दीपावली के दिन इनकी मृत्यु हो गई।

प्रदीपशाह (Pradeepshah) (1717-1773 ई)

  • उपेन्द्र शाह के बाद प्रदीपशाह गद्दी पर आसीन हुए।
  • ये दिलीप शाह के पुत्र थे।
  • गद्दी पर बैठते समय प्रदीप शाह अवयस्क था। इस कारण जिया कनकदेई इनकी संरक्षिका बन गयी थी।
  • जब प्रदीपशाह अपनी माता के संरक्षण में था उस समय चंद राजा देवीचंद की सेना ने पंवार राज्य पर 1723 में आक्रमण किया। दोनों सेनाओं के बीच रणचूलाकोट नामक स्थान पर भयंकर युद्ध हुआ। जिसमें चंद सेना विजयी हुयी।
  • चंद सेना ने पंवार सेना का पीछा ना छोड़ा अतः दोनों के बीच पुनः गणाई नामक स्थान पर युद्ध हुआ। इस युद्ध में पंवार सेना विजयी रही।
  • प्रदीपशाह के समय कुमाऊँ एवं गढ़राज्य के मध्य अच्छे संबंध थे।
  • कुमाऊँ पर जब रोहलों ने आक्रमण किया तो कुमाऊँ के राजा कल्याणचंद के सहायतार्थ प्रदीपशाह ने गढ़वाल के रणबांकुरे भेजे किन्तु दोनों राज्यों की सम्मलित सेना भी रोहेलों को पीछे न मोड़ सकी तत्पश्चात् संधि हुई।
  • रोहेलों ने 3 लाख रूपए कुमाऊँ नरेश से मांगे मित्रता की रक्षा के लिए प्रदीपशाह ने गढ़वाल के राजकोष से इसका भुगतान किया तब रोहेले अपने राज्य को लौट गए।
  • 1757 में रोहेलों ने अपने सेनापति नजीब खां के नेतृत्व में भाबर व दून घाटी गढ़राज्य से छीन लिया था।
  • 1770 में नजीब खां की मृत्यु हो जाती है। बाद में 31 अक्टूबर 1770 का दून पुनः पर पुनः गढराज्य का कब्जा हो जाता है।
  • इसके समय प्लासी का युद्ध 1757 में, पानीपत का युद्ध 1761 व बक्सर का युद्ध 1764 में हुआ था।
  • कुमाऊं में कल्याणचंद की मृत्यु के बाद उसका पुत्र दीपचंद गद्दी पर बैठा उसका संरक्षक शिवदेव जोशी था। शिवदेव जोशी से अप्रसन्न हो हरिराम जोशी ने प्रदीपशाह को चंद राज्य पर आक्रमण के लिये उकसाया। अतः तामाचौड़ नामक‌ स्थान पर दोनों राज्यों के बीच युद्ध हुआ लेकिन शिवदेव जोशी ने प्रदीप शाह के उच्च अधिकारियों को अपनी ओर मिला लिया। जिससे प्रदीपशाह की हार हुयी थी।
  • प्रदीपशाह के समय उनके कवि मेधाकर ने प्रदीप रामायण नामक ग्रन्थ की रचना की।
  • मौलाराम को सबसे पहले संरक्षण प्रदीपशाह ने दिया था।
  • प्रदीपशाह का मंत्री चंद्रमणि डंगवाल था जिसने डांग में मंगलेश्वर शिव मंदिर का निर्माण किया।
  • 1772 में प्रदीपशाह की मृत्यु पक्षाघात से हुयी ।
  • प्रदीपशाह द्वारा मोनाशाही तिमाशा मुद्रा चलाई गयी। राजा प्रदीपशाह के काल एक सिक्का लखनऊ के म्यूजियम में है।
  • प्रदीपशाह ने देहरादून में सिक्ख मंदिर के लिये धामूवाला, पंडितवाड़ी तथा भूपतवाला में जमीन दान दी।
  • प्रदीपशाह और कल्याणचंद(Pradipshah and Kalyanchand)
  • 1731 में प्रदीपशाह ने अपना एक प्रतिनिधि भुजबल सिंह को कुमाऊं भेजा। क्योंकि कुमाऊं में कल्याणचंद की बेटी का विवाह था।
  • 1738 में प्रदीपशाह ने अपने वकील बंधु मित्र व लक्ष्मीधर ओझा को कल्याणचंद के दरबार में भेजा। ये वकील मैत्रीपत्र व उपहार लेकर गये। कल्याणचंद ने भी उपहार और मैत्रीपत्र भेजे और दोनों राज्यों के बीच मित्रता स्थापित हो गयी।
  • इसके बाद ये वकील जयपुर के राजा जयसिंह के पास मैत्रीपूर्ण पत्र व उपहार लेकर गये। जयसिंह ने भी मैत्रीपूर्ण पत्र व उपहार भिजवा दिये।
  • तामाचौड़ या तामाढौंन का युद्ध प्रदीपशाह व शिवदेव जोशी के बीच हुआ। इस युद्ध प्रदीपशाह का सेनापति नरपति गुलेरिया मारा गया।

ललितशाह या ललिपतशाह(Lalitshah) (1772 -80 ई)

  • प्रदीपशाह के बाद ललितशाह गढ़वाल के शासक बने।
  • इनके समय दीपचंद कुमाऊँ में चंद वंश के शासक थे।
  • दीपचंद के समय मोहन सिंह रौतेला नामक व्यक्ति ने स्वयं को कुमाऊँ का शासक घोषित कर दिया।
  • मंत्रियों ने उनका साथ नहीं दिया। विशेषतः इसका फायदा उठाकर हर्षदेव जोशी ने ललितशाह को कुमाऊँ पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया।
  • मोहनचंद व ललित शाह के बीच 1779 में बग्वालीपोखर का युद्ध हुआ। इस युद्ध में मोहनचंद (मोहन सिंह रौतेला) की हार हुई और मोहन चंद व उसके भाई लाल सिंह ने रामपुर के नवाब फैजुल्ला के वहां शरण ली।
  • ललितशाह ने अपने पुत्र प्रद्युम्न शाह को प्रद्युम्न चंद के नाम से कमाऊँ का शासक घोषित कर दिया तथा हर्षदेव जोशी को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया।
  • प्रद्युम्न चंद ने स्वयं को दीपचंद का दत्तक पुत्र घोषित कर लिया।
  • ललित शाह के चार पुत्र थे - जयकृतशाह, प्रद्युम्न शाह, पराक्रम शाह तथा प्रीतमशाह।
  • अपने पुत्र से विदाई ले जब श्री ललितशाह गढ़राज्य को लौट रहे थे कि मार्ग में उन्हें मलेरिया हो गया और 1780 में दुलड़ी (अल्मोड़ा) नामक स्थान पर उनकी मृत्यु हो गई।
  • ललित शाह के समय सिक्खों ने दो बार 1775 व 1778 में दून पर आक्रमण किया।
  • 1779 में ललितशाह ने सिरमार राज्य पर भी आक्रमण किया व सिरमौर का युद्ध जीता।
  • जयकृतशाह(Jaikritshah) (1780-86 ई)
  • ललितशाह बाद जयकृत शाह गढ़वाल की गद्दी पर आसीन हुए।
  • जयकृतशाह व प्रद्युम्न शाह सौतेले भाई थे और इन दोनों में परस्पर शत्रुता थी।
  • जयकृतशाह ने अपने भाई प्रद्युम्न को गद्दी से हटाने के लिए मोहनसिंह को सहायता दी थी इससे क्रूद्ध होकर प्रद्युम्न शाह ने 1780 में हर्षदेव जोशी के नेतृत्व में देवलगढ़ को लूटा तथा श्रीनगर पर आक्रमण किया।
  • श्रीनगर में वह तीन वर्ष तक रहा और उसके बाद वह कुमाऊँ लौटा।
  • 1783 में सिक्ख प्रमुख बुघेल सिंह ने दून पर आक्रमण किया।
  • जयकृतशाह ने सिक्खों के आक्रमण से बचने के लिये 4000 रूपये वार्षिक राखी नामक कर देना स्वीकार किया।
  • राखी कर लूटमार न करने के बदले दिया जाता था।
  • राखी कर उपज का पांचवा भाग होता था।
  • दून पर रोहेलों ने गुलाम कादिर के नेतृत्व में 1786 में आक्रमण किया। यह दून पर रोहेलों का दूसरा आक्रमण था।
  • अपने भाइयों का राज्य के प्रति लालच, मंत्रियों के षड्यंत्र और अंत में विश्वास पात्र धनीराम द्वारा धोखा दिये जाने से जयकृत शाह अंदर ही अंदर टूट गया।
  • हताश व निराश जयकृतशाह रघुनाथ मन्दिर, देवप्रयाग गए और चाथे दिन बाद उनका देहान्त हो गया।
  • उनके साथ उनकी चार पत्नियां भी सती हो गई।
  • कहते हैं कि जयकृतशाह ने मरते समय प्रद्युम्न शाह व पराक्रमशाह को श्राप दिया।
  • जयकृतशाह को उसके अधिकारी धनीराम ने धोखा दिया।
  • मौलाराम को 60 गांव जागीर में देने वाला पंवार शासक जयकृतशाह था।
  • जयकृतशाह का शासनकालः षडयंत्रों और विद्रोह का काल
  • जयकृत शाह के दरबार में दो दल थे। खंडूरी दल व डोभाल दल।
  • खंडूरी दल का प्रमुख नित्यानंद खंडूरी था और डोभाल दल का प्रमुख कृपाराम डोभाल था।
  • कृपाराम डोभाल की तानाशाही प्रवृत्ति इतनी ज्यादा हो गयी कि जो भी इनका विरोध करता था उसको ये मौत के घाट उतार देते थे।
  • कृपाराम डोभाल ने हषदेव जोशी के साथ मिलकर षडयंत्र किया और नित्यानंद खंडूरी की आंखे निकलवा दी।
  • तत्पश्चात नित्यानंद खंडूरी के रिश्तेदार शामा खंडूरी व नेगी जाति के सदस्यों ने दून से श्रीनगर तक के गवर्नर घमंड सिंह मियां को आमंत्रित किया और डोभाल के अत्याचारों की कहानी सुनायी। घमंड सिंह ने खुले दरबार में डोभाल की गर्दन काट दी।
  • जयकृतशाह के काल में सिरमौर के राजा जगत प्रकाश व हर्षदेव जोशी के बीच 1785 में कपरोली का युद्ध हुआ।
  • इस युद्ध में जयकृतशाह ने अपने मित्र जगतप्रकाश का साथ दिया जबकि प्रद्युम्नशाह ने हर्षदेव जोशी का साथ दिया।
  • इस युद्ध के बाद हर्षदेव जोशी को भागकर कुमाउं आना पड़ा।
  • जोशियाड़ा कांड भी 1785 में जयकृत शाह के काल में हुआ। जिसमें हर्षदेव जोशी के नेतृत्व में कुमाउंनी सेना ने गढवाल पर आक्रमण किया। इस घटना को ही जोशियाड़ा कांड कहते हैं।
  • नोट:- हर्षदेव जोशी को उत्तराखंड का मैकियावेली, शासक निर्माता, कुमाऊँ का चाणक्य कहा जाता है।
  • हर्षदेव जोशी को कुमाऊं विभीषण राहुल सांस्कृत्यायन ने कहा था।
  • कुमाऊँ का अलवारिक भी हर्षदेव जोशी को कैप्टन हियरसे ने कहा था।
  • एटकिंशन ने हर्षदेव जोशी को स्वार्थपूर्ण व देशद्रोही कहा।
  • हर्षदेव जोशी शिवदेव जोशी का पुत्र था।

प्रद्युम्नशाह(Pradyumanshah)(1786-1804 ई)

  • जयकृतशाह की मृत्यु के बाद प्रद्युम्न शाह एवं पराक्रम शाह दोनों ही गढवाल आए उनके साथ हर्षदेव जोशी भी थे।
  • प्रद्युम्नशाह ने कुमाऊँ और गढ़वाल पर 1786 में संयुक्त रूप से शासन किया तथा प्रद्युम्न शाह को कुमाऊँ व गढ़वाल दोनों का नरेश घोषित कर दिया गया। जिसका स्वागत दोनों राज्यों की प्रजा ने किया था। किन्तु पराक्रम शाह इस घोषणा से क्षुब्ध हो गए क्योंकि वे गढ़राज्य के सिंहासन पर आसीन होना चाहते थे।
  • सन् 1785 में हर्षदेव जोशी ने प्रद्युम्न शाह के प्रतिनिधि के रूप में कुमाऊँ पर शासन करना प्रारम्भ किया किन्तु मोहनचंद ने इसका विरोध किया।
  • दोनों के बीच 1786 में पाली गांव या नथड़ागढी का युद्ध हुआ। हर्षदेव जोशी श्रीनगर भाग गए।
  • मोहनचंद ने 1788 तक शासन किया तथा 1788 में हर्षदेव जोशी ने मोहनचंद की हत्या कर दी।
  • तत्पश्चात् हर्षदेव जोशी ने प्रद्युम्न शाह को अल्मोड़ा आमंत्रित किया लेकिन प्रद्युम्न शाह ने अपनी अस्वोकृति भेज दी।
  • सन् 1788 में जब से प्रद्युम्नशाह अल्मोड़ा को ठुकराकर गढ़राज्य की गद्दी पर सुशोभित हुए उस दिन से उनका भाग्यचक्र कुछ ऐसा उल्टा कि उन्हें एक पल के लिए भी शांति प्राप्त न हुई। इसका कारण उनका भाई पराक्रमशाह था जो उनके खिलाफ षड्यंत्र रच रहा था।
  • मौलाराम ने अपने ग्रन्थ गढ़ गीता संग्राम या गणिका नाटक में पराक्रमशाह की काली करतूतों का पर्दाफास किया है।
  • मौलाराम ने अपनी रचनाओं में पराक्रमशाह को बिलासी, दुराचारी एवं चरित्रहीन बताया है।
  • पराक्रमशाह ने मौलाराम की गढिका छीन उसकी जागीर भी ले थी।
  • पराक्रमशाह ने प्रद्युम्नशाह के वफादार मंत्रियों, खण्डूरी भाइयों की व रामा-धरणी की हत्या करवा दी।
  • पराक्रशाह ने प्रद्युम्न शाह को बंदी बना लिया तत्तपश्चात् प्रद्युम्नशाह के उत्तराधिकारी सुदर्शनशाह के साथ उसका युद्ध हुआ।
  • सेना दो गुटों में बंट गई गृहयुद्ध की घटाओं से समस्त गढ़राज्य घिर गया।
  • सन् 1801 में गोरखों ने गढराज्य की आंतरिक परिस्थियों को सुअवसर जान अपना एक प्रतिनिधि गढ़वाल भेजा जिससे राज्य के आंतरिक क्षेत्र में गोरखों को हस्तक्षेप करने का अधिकार मिल सके। इससे पहले भो 1791 में गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया था।
  • श्री हर्षदेव जोशी के आमंत्रण पर उन्होंने 1790 में नरेश रण बहादुरशाह के नेतृत्व में अल्मोड़ा विजित किया तब गढ़वाल की ओर बढ़े तथा लंगूरगढ़ (पौड़ी) नामक स्थान पर 1791 में उन्होंन प्रद्युम्न शाह से संधि की। तत्काल ही उन्हें यह सूचना मिली कि चीन ने नेपाल पर चढ़ाई कर दी है। अतः व नेपाल लौट गए।
  • लंगूरगढ़ की संधि 1791 में हुई।
  • प्रद्युम्न शाह ने राज्य की समस्याओं को देखते हुए व आगामी आक्रमणां से बचने के लिए गोरखाओं को प्रति 25000 रूपए की धनराशि देना स्वीकार कर लिया।
  • सन् 1803 में गढवाल में भयंकर भूकंप आया जिससे वहां की 80 प्रतिशत जनता समाप्त हो गयी इस स्थिति सुअवसर जान गोरखों ने गढवाल पर आक्रमण कर दिया।
  • गोरखों के प्रसिद्ध सेनापति हस्तीदल चौतरिया व अमरसिंह थापा के झण्डे के नीचे गोरखों ने भयंकर मार-काट मचाई।
  • प्रद्युम्न शाह ने गोरखों से युद्ध के लिए अपना बहुमूल्य सिंहासन सहारनपुर में 1803 में बेचा।
  • यह सोने का सिंहासन अजयपाल ने कत्यूरियों से छीना था।
  • बाड़ाहाट या उत्तरकाशी में प्रद्युम्न शाह व गोरखों के बीच यह हुआ और इस युद्ध में गोरखा विजयी हुए।
  • चंबा का युद्ध या चमुआ के युद्ध में भी गोरखा विजयी हुए।
  • अंतिम निर्णायक युद्ध देहरादून के खुड़बुड़ा नामक स्थान पर 14 मई 1804 को हुआ जहाँ शाह वीरगति को प्राप्त प्रद्युम्न शाह गोरखा कुंवर रंजीत की गोली लगने से मारे गए।
  • गोरखों ने प्रद्युम्न शाह का अंतिम संस्कार हरिद्वार में किया।
  • प्रद्युम्नशाह के भाई कुंवर प्रीतम शाह को गोरखाओं ने बंदी बनाकर काठमाण्डू भेज दिया, जबकि पुत्र सुदर्शनशाह हरिद्वार में रहकर स्वतंत्र होने का प्रयास करते रहे।
  • उनकी मांग पर अंग्रेज गवनर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स ने अक्टूबर 1814 में गोरखों के विरूद्ध अंग्रेजी सेना भेज दी।
  • 1795 में गढ़वाल में भयंकर अकाल पड़ा जिसे इकावनो-बावनी के नाम से जाना जाता है क्योंकि यह संवत 1851-52 में पड़ा था।
  • महाराजा प्रद्युम्न शाह को संपूर्ण गढ़-कुमाऊँ का राजा कहते हैं।
  • गढवाल का हुमायूं प्रद्युम्न शाह को कहा जाता है।
  • प्रद्युम्न शाह अंतिम स्वतंत्र पंवार वंशीय राजा था।
  • प्रद्युम्न शाह के राजा बनते ही दून पर रोहेलों ने 1785 में आक्रमण किया। रोहेलों का नेता गुलाम कादिर था।
  • प्रद्युम्न शाह का दामाद हरिसिंह गुलेरिया इनकी जनता पर अत्याचार करता था। जिसस प्रद्युम्न शाह ने अपनी पुत्री का विवाह करवाया था। जो गुलाम कादिर का मंत्री था।
  • प्रद्युम्न शाह व उम्मेद सिंह के बीच 1796 में संधि हुई।
  • सिरमौर के राजा धर्मप्रकाश ने भी लगभग 1792 में दून पर आक्रमण किया लेकिन पराक्रम शाह ने उसे खदेड़ दिया।
  • धर्मप्रकाश ने पुनः एक सेना ईश्वरी सिंह के नेतृत्व में दून पर आक्रमण के लिये भेजी। दोनो सेनाओं के बीच खुशहालपुर नामक स्थान पर 1793 में युद्ध हुआ। इस युद्ध में सिरमौर की सेना विजयी रही।

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