उतराखंड का कत्यूरी राजवंश (Katyuri dynasty of Uttarakhand)

उतराखंड का कत्यूरी राजवंश utaraakhand ka katyooree raajavansh

उतराखंड का कत्यूरीराजवंश 
  • कत्यूरीराजवंश
  • परमार (पंवार) वंश
  • कनकपाल
  • वर्ण-निर्धारण-
  • प्रारम्भिक जीवन


कत्यूरीकाल में नरेश राज्य का सर्वोपरि शासक था। अभिलेखों में केवल राजा की प्रधान रानी (महादेवी) तथा केवल उत्तरधिकारी राजपुत्र का उल्लेख मिलता है। अभिलेखों में वर्णित क्रम यथा-राजा, राजान्यक, राजामात्य, सामन्त, महासामन्त, ठक्कुर, महामनुष्य, महाकर्ता इत्यादि से विदित्त होता है कि राजपरिवार के पुरूषों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया जाता था।

कत्यूरी अभिलेखों से विदित्त होता है कि राजपरिवार की अपनी निजी सम्पति होती थी जिसमें मुख्यतः गाय, भैंस, घोड़े, खच्चर इत्यादि होते थे। उनकी देखभाल के लिए "किशोर-बड़ा-गो-महिव्याधिकृत" कर्मचारी नियुक्त था।

कत्यूरी राजकाल में इस क्षेत्र की बहुसंख्य जनता हिन्दू धर्म की अनुयायी थी। वैष्णव व शैव सम्प्रदाय के अनगिनत मन्दिरों के साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं। सम्भवतः इसी काल में इस क्षेत्र में बौद्ध एवं जैन धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में काली पूजा के साक्ष्य भी मिलते है जिससे स्पष्ट होता है कि कत्यूरी धार्मिक सहिष्णुता का अनुपालन करते थे। 

परमार (पंवार) वंश

इस वंश का संस्थापक कनकपाल को माना जाता है। इस तथ्य की पुष्टि श्री बैकेट द्वारा प्रस्तुत पंवार वंशावली एवं 'सभासार' नामक ग्रन्थ से होती है। इसके अतिरिक्त परमार वंशावली कैप्टन हार्डविक, विलियम एवं एटकिन्सन महोदय ने भी दी है। एटकिन्सन ने अल्मोड़ा के किसी पण्डित के संग्रह से अपनी सूची ली है। इनमें श्री बैकेट की सूची सर्वाधिक प्रमाणिक प्रतीत होती है क्योंकि यह सुर्दशनशाह कृत ग्रन्थ "सभासार" (1828 ई०) से पूर्णतः मेल खाती है।  

कनकपाल

कनकपाल को परमार (पंवार) वंश का संस्थापक माना जाता हैं कनकपाल मूलतः कहाँ का रहने वाला था इस विषय में इतिहासविदों के मध्य मतभेद है।
पण्डित हरिकृष्ण रतुड़ी का मानना है कि कनकपाल धारा नगरी से आये थे। एटकिन्सन महोदय ने रतुड़ी के मत का समर्थन करते हुए लिखा है कि धारानगरी के पंवार वंश का एक युवक इस पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा को आया था। मार्ग में सोनपाल नाम के राजा का राज्य पड़ता था जिससे वह युवक मिलने जा पहुँचा। सोनपाल उस युवक से इतना प्रभावित हुआ कि अपनी कन्या का विवाह उस युवक से करवा दिया और दहेज में चाँदपुर परगना प्रदान किया। वॉल्टन भी एटकिन्सन के मत का ही सर्मथन करते हैं।

डॉ. पातीराम' ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि "सम्वत् 756 में तत्कालीन राजवंश के कनकपाल मालवा से गढ़वाल आये। वे चन्दवंश के थे। इस पर्वतीय क्षेत्र में प्रचलित पुरातन नियम के अनुसार गढ़वाल के शासक सोनपाल ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया एवं अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। सोनपाल के बाद कनकपाल सिहासनारूढ़ हुआ। सोनपाल गढ़राज्य की गढ़ियों में से किसी एक के गढ़पति होगें।"

उपरोक्त मत पूर्णतः सत्य नहीं माने जा सकते है क्योंकि विद्वानों ने अपने मत के पक्ष में ठोस प्रमाण नहीं दिये। सम्भवतः इन लोगो ने कुछ साहित्यिक पंक्तियों के आधार पर ही अपना मत प्रस्तुत कर दिया।

जबकि चाँदपुर गढ़ी से प्राप्त एक शिलालेख पर अंकित लेख से प्रतीत होता है कि कनकपाल गुर्जर प्रदेश के किसी क्षेत्र से गढ़वाल आये थे। इसके अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण प्रमाण भी यह प्रमाणित करता है कि गढ़वाल के पंवार वंश के आदि पुरूष मेवाड़, गुजरात, महाराष्ट्र से होकर गढ़वाल आये थे जिसे गुर्जर प्रदेश कहा जाता है। इसका प्रमाण है इस वंश के नरेशों के काल में बनी गणेश भगवान की मूर्ति अथवा चित्र है जिसमें उनकी सूंड दाहिनी ओर मुड़ी है। उदाहरणार्थ जोशीमठ से प्राप्त गणेश की नृत्यरत मूर्ति टिहरी के पुराना दरबार के राजप्रसाद के द्वार पर बनी काष्ठ की गणेश मूर्ति। गणेश की सूंड दाहिनी ओर मोड़ने की परम्परा पुरातन समय से गुजरात, राजस्थान एवं महाराष्ट्र में चली आ रही है जबकि उतर भारत में गणेश की सूंड बांयी ओर मुड़ी होती है।

गुर्जर प्रदेश से कनकपाल के आने का एक अन्य प्रमाण 'आदिबद्री' मन्दिर भी है जिसकी रचना गुजरात एवं राजस्थान के सोलंकी मन्दिर निर्माण शैली से मिलती है। इसके अतिरिक्त एक विशेष तथ्य यह भी है कि गढ़वाल एवं कुमाऊँ की अनेक राजपूत जातियाँ अपना मूल स्थान गुर्जर प्रदेश को ही बताती है। रूद्रसिंह तोमर एवं बालकृष्ण शास्त्री बताते है कि कनकपाल के साथ गोर्ला रावत, बर्खाल, रौतेला तथा बाग्ली नेगी भी गढ़वाल आए थे। 

डॉ. शूरबीर सिंह के संग्रह के रखे कुछ ऐसे पत्र है 
जो भी कनकपाल के धारानगरी से आने के भ्रम को मिटा देते है। 
उदाहरणार्थ सन् 1927 दीवान चक्रधर जुयाल 23 मई पत्रांक 560/सी, भेजने की तिथि 13 जून 1927, इण्डोर्स मेंण्ट न० 1839502-27 को धारा दरबार भेजा था जिसका प्रति उत्तर दिनांक 10 दिसम्बर 1927 को पत्र सं0 1004 धार के इतिहास अधिकारी ने पत्र सं0 17 दिनांक 22 जुलाई 1927 को टिहरी भेजा था जिसमें स्पष्ट शब्दों में पुष्टि की गई थी कि कनकपाल का धारानगरी के राजवंश से कोई सम्बन्ध नहीं था।

इस प्रकार कनकपाल को गुर्जर प्रदेश से आने की बात सर्वाधिक प्रमाणिक प्रतीत होती हैं। श्री कन्हैयालाल कणिकलाल मुंशी रचित "दि ग्लोरी दैट वाज गूजर देश" में राजस्थान, महाराष्ट्र, मालवा एवं गुजरात के सम्मिलित क्षेत्र को गुर्जर प्रदेश कहा है।

वर्ण-निर्धारण

गढ़वाल में पंवार वंश के संस्थापक कनकपाल का सम्बन्ध परमार वंश से ही था या नहीं, इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम साक्ष्य इस वंश के नरेश सुदर्शनशाह द्वारा रचित ग्रन्थ " सभासार" की यह पंक्ति है कि "मानी पंवार कुछ वंश की देत जो पुश्त बदरी वंशत" से स्पष्ट होता है कि कनकपाल परमार वंश के ही थे

गढराज्य में भाटों रचित गीत 'पवाड़ा' या "पैवाडा" कहलाते है। श्याम परमार ने अपनी रचना 'भारतीय लोक साहित्य' में लिखा है कि परमार वंश के लोग चाहे बिहार में बसे हों या भारत के किसी अन्य भाग में उन लोगो में 'पैवड़ा' शब्द अत्यधिक प्रचलित है। बृज व भोजपुरी भाषा में 'पवाड़ा' मध्य प्रदेश एवं उतर प्रदेश में 'पंवारा' तथा महाराष्ट में 'पवाड़े' या पंवाड़' बहुत प्रयोग होता है। डॉ० सत्येन्द्र लिखते है कि इन गीतों से पहले पंवार क्षत्रियों की गाथायें गाई जाती होगी, फलतः परमारों के गीत होने के कारण ये 'पमारे' कहलाए।

अतः गढ़वाल क्षेत्र में 'पंवाड़' शब्द परमारों ने ही प्रचलित किया होगा। गढ़वाल की कतिपय वीरगाथाएँ (पंवाडे) जैसे कफ्फू चौहान पंवाड़ा, विजयपाल पवाड़ा, जीतु-बगड़वाल पंवाड़ा, रिखोला लोदी, तीलू रौतेली एवं माधोसिंह पवाड़ा अत्यधिक लोकप्रिय है।

भक्तदर्शन ने अपनी पुस्तक" गढ़वाल की दिवंगत विभूतियों" में गढ़वाल नरेशों को परमार वंश का ही माना है। राजपूतों की उत्पति सम्बन्धी पृथ्वीराज रासो के अनुसार अग्निकुण्ड से चार राजपूत कुलों का उद्भव हुआ परमार, प्रतिहार, चौहान तथा चालुक्य और यहीं पर आबू पर्वत की तलहटी में चन्द्रपुरी नाम का नगर था। अतः गढ़वाल आकर कनकपाल ने चन्द्रपुरी की सुखद स्मृतियों को सजीव रखने के लिए अपने गढ़ का नाम "चाँदपुरगढ़ी" रखा होगा।

इसके अतिरिक्त मॉउण्टआबू और गढ़वाल में अन्य समानताएँ भी पाई जाती हैं। उदाहरणार्थ उत्तरकाशी जिले का गोमुख और आबू पर्वत के गोमुख की बनावट एक सी है। आबू के पास एक स्थल 'कोटेश्वर' है तो पुरानी टिहरी के निकट भी इसी नाम का स्थल है जहाँ वर्तमान में कोटेश्वर विद्युत परियोजना निर्माणाधीन है। आबू पर्वत पर एक पवित्र कुण्ड "मन्दाकिनी" है जिसे शान्तमूर्ति मुनिराज की पुस्तक "आबू" में परमार नरेश द्वारा निर्मित बताया गया है। इसी नाम की नदी चमोली जिले में गंगा की सहायक नदी है। अतः गढ़वाल एवं आबू क्षेत्र में प्रचलित समान नामावली भी इस ओर संकेत करती है कि परमारों का इन दोनो स्थलों से गहरा सम्बन्ध था।

प्रारम्भिक जीवन

पंवार वंश के सस्थापक राजा कनकपाल का मूल निवास गुर्जर प्रदेश था। यह उपरोक्त वर्णन से सिद्ध होता है। उनके सिंहासनरूढ़ होने की तिथि पर भी मतैक्य नहीं है। उनके सिंहासन पर बैठने की तिथि के सम्बन्ध में प्रचलित मत इस प्रकार हैं-

पंडित हरिकृष्ण रतुड़ी ने अपनी पुस्तक 'गढ़वाल के इतिहास' में एक स्थान पर कनकपाल के 888 ई० में गद्दी पर बैठने का वर्णन किया है जबकि अपनी दूसरी रचना" गढ़वाल वर्णन" में अपने मत का खण्डन करते हुए उन्होंने उसके सिंहासनरूढ होने की तिथि सम्वत् 745 (688 ई०) बताई है। भक्त दर्शन ने राजा कनकपाल के सिंहासनारूढ़ होने की तिथि 888 ई० ही बताई है।

डॉ० शिवप्रसाद डबराल ने कोई निश्चित तिथि नहीं लिखी है उन्होंने अलग-अलग विद्वानों के मतों का उल्लेख किया हैं। चाँदपुरगढ़ी दुर्ग निर्माण उनके अनुसार सन् 1425 से 1500 ई0 के मध्य हुआ जिस आधार पर राजा कनकपाल के सिंहासनरूढ़ होने की तिथि 15वीं शताब्दी के आरम्भ बैठती है।

  • राहुल सांकृत्यायन ने तो राजा कनकपाल के राजा होने पर भी संदेह व्यक्त किया है। वे तो अजयपाल को (1500 ई0) पंवार वंश का संस्थापक मानते हैं।
  • श्री बैकट ने अपनी सूची में सम्वत् 756 में राजा कनकपाल के 11 वर्ष के शासन का अन्त माना है। अर्थात् राजा कनकपाल उनके अनुसार सम्वत् 754 (756-11) में गद्दी पर बैठे थे। यह तिथि ईसवी सन् 688 बैठती है।
  • बालकृष्ण शान्ती भट्ट ने अपनी पुस्तक 'गढ़वाल जाति प्रकाश" में जो पक्तियाँ प्रस्तुत की हैं उनके अनुसार राजा कनकपाल सम्वत् 745 (अर्थात् 688 ई०) में गढ़वाल आए और राजा बने।
  • इसके अतिरिक्त शूरबीर सिंह के ऐतिहासिक संग्रह में कवि देवराज की लिखी 'गढवाल राजा वंशावली' की हस्तलिखित पाण्डुलिपि रखी हैं जिसमें स्पष्टतः राजा कनकपाल के गढ़वाल आने और सिहांसनरूढ़ होने की तिथि 745 सम्वत् अर्थात 688 ई० लिखी है।
  • अतः उपरोक्त विवरण से राजा कनकपाल के गढ़वाल क्षेत्र में आने और राजा बनने की सर्वाधिक प्रमाणित तिथि सम्वत् 745 (688 ई०) ही प्रतीत होती है।

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