उतराखंड का राजा अजयपाल / King Ajaypal of Uttarakhand

उतराखंड का राजा अजयपाल /utaraakhand ka raaja ajayapaal



राजा अजयपाल श्री बैकेट की पंवार वंशावली के अनुसार वंश का 27वाँ राजा था। इससे पूर्व के पंवार राजाओं की जानकारी
के ऐतिहासिक स्त्रोत उपलब्ध न होने कारण इस बीच के इतिहास का प्रमाणिक ज्ञान न के बराबर है। इसे पंवार राजवंश के इतिहास का "अंधकार युग" की संज्ञा दी जा सकती है।

राजा अजयपाल के शासनकाल में पंवार राजाओं ने पहली बार अपनी राजधानी परिवर्तन की और श्रीनगर (गढ़वाल) को चाँदपुर-गढ़ी के स्थान पर नवीन राजधानी बनाया। इसके अतिरिक्त राजा अजयपाल को गढ़वाल क्षेत्र की 52 गढ़ियों (ठकुराईयों) को विजित कर एक विशाल गढराज्य की स्थापना का श्रेय दिया जाता है जिसे गढवाल राज्य" के नाम से जाना जाता है। यद्यपि गढ़वाल क्षेत्र में गढ़ियों की संख्या को लेकर मतभेद हैं। 

इतिहासकारों के अनुसार-

  •  कनकपाल ने 12 गढों को अधीन किया था।
  • हरिकृष्ण रतुड़ी के अनुसार इन बावन गढ़ों में ठाकुरी राज्य था। अतः इन्हें ठकुराईयाँ कहा जाता रहा होगा। हरिकृष्ण रतुड़ी ने प्रारम्भ में 64 परगनों के आधार पर 64 गढों का अनुमान किया।
  • डॉ. यशवन्त कटौच चाँदपुरगढ़ी से प्राप्त सूची के आधार पर 24 गढ़ों का उल्लेख लेख में करते हैं।
  • वाचस्पति गैरोला अजयपाल से पहले से ही गढ़वाल को 52 गाढ़ियों में विभक्त मानते है।
  • गढवाल क्षेत्र में प्रचलित जागर गाथाओं में भी 52 नरसिंगों की गढ़ो में नियुक्ति का प्रसंग आता है जिससे भी 52 गढ होने की पुष्टि होती है। डॉ० शिवानन्द नौत्यिाल जागरों में आये इन 52 वीरों के नामों को 52 गढ़ों का नाम मानते हैं।
  • कुछ विद्वानों ने 'शिवबावनी'को गढ़वाली' माना है ।
नरसिंह देव के शासनकाल में शासन व्यवस्था में 52 नरसिंहों की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। अतः ये 52 स्थान इन वीरों के नाम से प्रचिलित हो गए। इनके साथ ही 85 भैरव भी जागर में आते हैं। सम्भवतः ये भैरव 85 भिन्न-भिन्न स्थानों (उपगढ़ों) में नरसिंगो के अधीन गिरद्वार घाटों की रक्षा के लिए नियुक्त थे।

1050 ई0 के आस-पास नरसिंह देव के द्वारा 52 नरसिंगो की नियुक्ति की गई मानी जाती है। रायबहादुर पातीराम ने समस्त गढ़ों को जीतने वाले राजा अजयपाल को 'गढपाल' कहकर सम्बोधित किया। अभिलेखीय साक्ष्यों में हमें रानी कर्णावती के काल का ताम्रपत्र जिस पर सम्वत् 1640 अंकित हैं और यह हाट गांव से प्राप्त हुआ है। इस ताम्रपत्र में सर्वप्रथम "गढ़वाल सन्तान' उत्कीर्ण है। इसके अतिरिक्त बद्रीदत्त पांडे के अनुसार दीपचन्द के ताम्रपत्र (1600 ई0) में भी गढ़वाल के राजा प्रतीपशाह का उल्लेख हुआ है। अतः इससे स्पष्ट होता है "गढवाल" शब्द 15वीं शताब्दी के बाद ही प्रयोग होने लगा।

कौटिल्य द्वारा वर्णित तीन प्रकार के दुर्ग यथा जलदुर्ग, मरूस्थलीय दुर्ग और पर्वत दुर्ग में वर्णित पर्वत दुर्ग के समान ही उत्तराखण्ड के गढ़ थे। इन पर कठिनाई से चढ़ा जा सकता था और इनसे निकलने के लिए एक गुप्त सुरंग होती थी। जौनसार-भावर क्षेत्र में इन दुर्गों को 'टिम्बा' कहा जाता है। अग्निपुराण में वर्णन है कि गढ़ दुर्गों में गढपति अपने परिवार और विश्वासपात्रों के साथ रहकर आस-पास की उपत्यका पर शासन करता था। गढ़ ही उसका पुर होता था जहाँ घाट, मन्दिर इत्यादि सभी होता था।

गढ़ के अतिरिक्त कोट, बूंगा, थुम्बा, मौड़ा आदि भी गढ़ के छोटे रूप अथवा गढ़ से छोटी ईकाइयाँ होती थी। मुस्लिम काल के लेखको ने इन कोटों की अधिसंख्य के कारण ही गढ़वाल के प्रवेश द्वारों को कोटद्वार, हरिद्वार नाम दिया। गढ़ के भीतर घेराबन्दी के समय के लिए पर्याप्त भोजन व्यवस्था रखी जाती थी तथा पानी के लिए पहाड़ी के शीर्ष से जल स्त्रोत तक गुप्त सुरंग बनाई जाती थी। चाँदपुरगढ़ी, खैरागढ़, उप्पूगढ़ गुजडुगढी, भैरवगढी इत्यादि में सुरंग अब भी दृष्टव्य है।

इन गढ़ो पर जगह-जगह खाई काटी जाती थी। जहाँ शत्रु पर वार करने के लिए बड़े-बड़े पत्थर एकत्रित रखे जाते थे। इसी कारण महाभारत में पहाड़ी लोगों को पाषाणयोधीन तथा अश्मकयुद्ध विशारद कहा गया है।' सम्भवतः मुहमद बिन तुगलक के कराचल अभियान जिसकी साम्यता कुछ विद्वान गढ़वाल राज्य से करते हैं। इसमें तुगलक की एक लाख सैनिक बिना युद्ध किये इन्ही पाषाण योद्धाओं के द्वारा मारी गयी। इनके अनुसार केवल तीन अफसर जीवित दिल्ली पहुँचे।

अतः इन गढ़ों के मान्य संख्या कुछ भी हो परन्तु इनकी बहुलता के कारण ही यह क्षेत्र गढ़वाल कहलाया। यद्यपि वर्तमान समय में सभी गढ़ी नष्टप्रायः है। इन गाढ़ियो के अवशेष ही यत्र-तत्र बिखरे पडे मिलते हैं ?

अजयपाल पंवार वंश का महानतम शासक था। कवि भरत कृत 'मानोदय' (ज्ञानोदय) में उसकी तुलना कृष्णा, कुबेर, युधिष्ठर, भीम एवं इन्द्र से की गई है। वर्तमान श्रीनगर गढ़वाल से आठ या नौ किलोमीटर की दूरी पर एक छोटी-सी पहाड़ी पर बसा देवलगढ़ अजयपाल की राजधानी थी। यहाँ उसने एक राजप्रसाद एवं अपनी कुलदेवी 'राज-राजेश्वरी' का मन्दिर बनवाया। सम्भवतः यह स्थल गोरखपंथी संत " सतनाथ" का आश्रम भी था। राजा अजयपाल इस पंथ का अनुयायी था क्योंकि उसे गोरखंपंथी सम्प्रदाय के अनुयायी भृतहरि एवं गोपीचन्द्र की श्रेणी में रखा जाता है।

जार्ज डब्लू ब्रिग्स ने तो अजयपाल को गोरखनाथ सम्प्रदाय के एक पंथ का संस्थापक भी माना है। "नवनाथ कथा" तथा "गोरक्षा स्तवांजलि" ग्रन्थ में तो अजयपाल को गोरखपंथी सम्प्रदाय के 84 सिद्धों में से एक सिद्ध माना है।

प्रो० अजय सिंह रावत ने अजयपाल की तुलना महान मौर्य सम्राट अशोक से की है। उनके अनुसार जिस प्रकार कंलिग युद्ध (261 बी.सी) के भीषण नरसंहार से क्षुब्द होकर अशोक ने " भेरीघोष" को त्यागकर 'धम्मघोष को अपना लक्ष्य निर्धारित किया था। उसी प्रकार अजयपाल ने गढ़वाल क्षेत्र की सभी 52 गढ़ियों को जीतने के बाद सदैव के लिए ऐश्वर्य को त्यागकर गुरूपन्थ को अपना लिया।

दूसरे शब्दों में अजयपाल ने भी सम्राट अशोक की ही भाँति गढ़राज में अपनी सार्वभौमिकता स्थापित करने के बाद अपना सम्पूर्ण जीवन गोरखपंथी सम्प्रदाय के विकास पर लगा दिया था। शूरवीर सिंह के संग्रह में रखी तांत्रिक विधा की पुस्तक 'सांवरी ग्रन्थ' की हस्तलिखित प्रति में अजयपाल को 'आदिनाथ' कहकर सम्बोधित किया गया है। यह अजयपाल के गोरखपंथ में उच्च स्थान का द्योतक है। देवलगढ़ के विष्णु मन्दिर के दाहिनी ओर ठीक सामने की दीवार पर अजयपाल को पदमासन मुद्रा में चित्रित किया गया है। इस चित्र में उनके कानों में कुण्डल एवं सिर पर पगड़ी है।

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