क्यूंकालेश्वर मंदिर (Kyunkaleshwar Temple, Pauri Garhwal)

क्यूंकालेश्वर मन्दिर, पौड़ी गढ़वाल Kyunkaleshwar Temple, Pauri Garhwal

क्यूंकालेश्वर मंदिर (Kyunkaleshwar Temple, Pauri Garhwal)

क्यूंकालेश्वर मन्दिर सिद्धपीठ गढ़वाल मुख्यालय पौड़ी गढ़वाल में लगभग 2200 मीटर की ऊंचाई पर सघन देवदार, बांज, बुरांस, सुराई आदि वृक्षों से सुशोभित शैल शिखर के रमणीक स्थल पर विद्यमान है। बस स्टेशन पौड़ी से कार, टैक्सी द्वारा लगभग 2.5 कि.मी. का सफ़र तय करके इस रमणीक स्थान तक पहुंचा जा सकता है। यहां से हिमालय की लम्बी पर्वत श्रृंखलाओं की हिमाच्छादित चोटी जिनमें चौखम्बा, त्रिशूल, हाथी पर्वत, नन्दा देवी, त्रिजुगी नारयण, श्री बद्री केदार क्षेत्र प्रमुख हैं जो कि स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। उत्तराखंड में इस पुण्य स्थान की मनोहरता सुप्रसिद्ध है। श्रावण मास के सोमवार के व्रतों में भक्त यहां शिवलिंग में दूध व जल चढ़ाने आते हैं। यह पौराणिक स्थल धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है।
क्यूंकालेश्वर मंदिर (Kyunkaleshwar Temple, Pauri Garhwal)

क्यूंकालेश्वर मंदिर का इतिहास व मान्यताऐं | History & Beliefs of Kyunkaleshwar Temple

कहते हैं कि आदिकाल में जब देवी सती ने अपने पिता राजा दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपना देह त्याग किया तो उस दो घटनाएं हुई भगवान शिव जिन्होंने ने क्रोध में आकर दक्ष का गला काटा व तांडव करने लगे। जिसके बाद भगवान विष्णु ने उनका क्रोध शांत किया व शिव को दक्ष को जीवनदान देने को कहा। भगवान दक्ष के धड़ पर बकरे का सर लगा दिया तबसे ही कनखल हरिद्वार में दक्ष महादेव मंदिर हुई। इस घटना के भगवान शिव कठोर तपस्या में लीन हो गए।

जब एक तरफ ये घटनाएं हो रही थी तब दैत्यों का राजा ताड़कासुर ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए तपस्या में बैठा था। ताड़कासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर जब ब्रह्मा से उससे वरदान मांगने को कहा तो ताड़कासुर जानता था अमरत्व का वरदान देवता मांगने नहीं देंगे वहीं वो माता सती व भगवान शिव से जुडी घटनाओं से भली भांति परचित। था। इसलिए उन्होंने ब्रह्मा से शिव के पुत्र द्वारा वध का वरदान माँगा।

वरदान मिलने के बाद ताड़कासुर ने देवताओं पर चढ़ाई कर दी कई वर्षों के भीषण युद्ध के बाद ताड़कासुर ने त्रिलोक विजय किया। जब व तीनो लोक जीत गया तो उसने मृत्यु के देव यम पर चढ़ाई कर दी। भगवान शिव यम के आराध्य थे। कहते हैं यम के साथ ताड़कासुर का युद्ध होने के बाद जब यम पराजय की स्तिथि में पहुँच गए तो वे कीनाश पर्वत, जहाँ आज क्यूंकालेश्वर मंदिर स्तिथ है, वहां शिव की तपस्या में बैठ गए। तब देवी भगवती ने पार्वती के रूप में जन्म ले लिया था। कई वर्षों की कठोर तपस्या के बाद जब का शरीर कंकाल हो गया तो भगवान शिव ने यम की तपस्या से प्रसन्न होकर अपनी समाधि छोड़ी व उन्हें वरदान दिया। पहला वरदान उन्होंने ताड़कासुर वध से सम्बन्धित दिया जबकि उन्होंने दूसरा वरदान यम की तपस्या से खुश होकर आदिकाल में इस स्थान में कंकालेश्वर के रूप में अपने भक्तों को मुक्ति देने का दिया।

क्यूंकालेश्वर मंदिर (Kyunkaleshwar Temple, Pauri Garhwal)

पौराणिक मान्यता

इस पवित्र स्थल के विषय में स्कन्दपुराण के केदारखण्ड में लिखा है कि यह स्थान कीनाश पर्वत पर स्थित है। यहां यमराज ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी। तदुपरान्त शिवजी ने यमराज को वर देकर कहा कि कलियुग में मैं गुप्तरुप में प्रकट होऊंगा और मेरा नाम कंकालेश्वर, मुक्तेश्वर आदि होंगे। मैं कलियुग में उपासकों को भक्ति और मुक्ति प्रदान करूंगा। वर्तमान में कंकालेश्वर का अपभ्रंश ही क्यूंकालेश्वर या किंकालेश्वर है।

क्यूंकालेश्वर मंदिर से जुड़े कुछ अन्य तर्क | Some other arguments related to Kyunkaleshwar temple

क्यूंकालेश्वर मंदिर (Kyunkaleshwar Temple) से जुड़ी दो मान्यताएं प्रचलित हैं जिसके कारण इसकी स्थापना में द्वन्द दिखाई देता है।
  1. पहली मान्यता के अनुसार इस मंदिर आदि गुरु शंकराचार्य ने इसकी स्थापना अपनी केदारखंड की यात्रा के दौरान की थी। क्यूंकि इसकी वास्तुकला केदारनाथ मंदिर से मिलती है। हालाँकि केदारखंड की उनकी यात्रा वर्षो पुरानी है।
  2. वहीं अन्य तर्क है कि इस मंदिर की नींव नेपाल से इस स्थान पर तपस्या करने आये दो मुनि मित्र शर्मा व मुनि शर्मा ने रखी। उनकी कुटिया मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्तिथ थी तथा वे पानी लेन के दौरान इस स्थान पर विश्राम करते थे। कहते हैं कि एक दिन उन्होंने अपने स्वपन में देखा कि इस स्थान पर यम ने शिव की तपस्या की थी। तभी उन्होंने इस मंदिर का निर्माण करवाया। उस समय यह क्षेत्र ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत आता था अतः उन्होंने भी इस मंदिर के निर्माण में अपना योगदान दिया यही कारण है इस मंदिर के प्रांगण में स्तिथ एक बैठने के चूबतरे पर लार्ड पंचम का नाम लिखा है।
  3. क्यूंकालेश्वर मंदिर (Kyunkaleshwar Temple, Pauri Garhwal)

  4. दूसरी और इस मंदिर का नाम भगवान शिव के नाम कंकालेश्वर के नाम पर रखा गया था जबकि शब्दों के अपभ्रंश होने के कारण यह क्यूंकालेश्वर से जाना जाने लगा। वहीं उत्तराखंड के पर्यटन विभाग ने भी इस मंदिर का नाम क्यूंकालेश्वर बताया है उसी नाम का हम भी प्रयोग कर रहे हैं। 

मन्दिर परिसर

मन्दिर परिसर में विकास को कृत संकल्प मन्दिर के महन्त श्री चैतन्यानन्द जी ने क्यूंकालेश्वर मठ को नया रुप दिया है। जिसके अन्तर्गत श्रद्धालु भक्तगणों एवं धार्मिक पर्यटकों के ठहरने की उचित व्यवस्था है। मन्दिर का सौन्दर्य यहां आने वाले पर्यटकों के लिये किसी आश्चर्य से कम नहीं है। पूर्व में मन्दिर के अतिरिक्त रहन सहन की सारी व्यवस्था मन्दिर परिसर से हटकर 200 गज ऊंची पहाड़ी पर थी जिसके भग्नावशेष आज भी विद्यमान हैं। मन्दिर के सम्मुख धूनी वाले भवन के अतिरिक्त कोई भी भवन नहीं था। यह भवन लगभग 205 वर्ष प्राचीन बताया जाता है। हरीशर्मा मुनि जी इस क्षेत्र के प्रकाण्ड विद्वानों में गिने जाते थे। उनकी विद्वता के कारण किंग जार्ज पंचम के समय उन्हें "महामहोपाध्याय" की उपाधि से विभूषित किया गया।

संस्कृत विद्यालय की स्थापना

कहा जाता है कि उस समय क्षेत्र में वैदिक संस्कृति के के अनुरूप कोई शिक्षण संस्था नहीं थी। वैदिक शिक्षा की नितान्त आवश्यकता का अनुभव कर "षाड़ांग वेद शिक्षा" प्रदान करने महन्त हरिशर्मा मुनि जी ने गंगा दशहरा बृहस्पतिवार 9 जून, 1870 को यहां गुरूकुल पद्धति के अनुरूप संस्कृत विद्यालय की स्थापना की थी। महन्त श्री धर्मानन्द शर्मा मुनि जी के योगदान से इसे 1928 में क्वींस कालेज (वर्तमान सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय) वाराणसी से संबद्ध करवाया गया। आज भी यह संस्था छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा, भोजन तथा आवास की सुविधा उपलब्ध करवा रही है।
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