लोक परंपरा का एक उत्सव: घी संक्रांति
उत्तराखंड अपनी अनोखी संस्कृति के लिए जाना जाता है। यहां के लोक जीवन में कई रंग और उत्सव समाहित हैं। ऐसा ही एक पारंपरिक उत्सव है घी संक्रांति। उत्तराखंड में घी संक्रांति पर्व को घ्यू संज्ञान, घिया संज्ञान, और ओलगिया के नाम से भी जाना जाता है।
घी संक्रांति की परंपरा
पहाड़ों में यह मान्यता है कि पुराने राजाओं के समय शिल्पकार अपने हाथों से बनी कलात्मक वस्तुएं राजमहल में राजा के समक्ष प्रस्तुत करते थे। इन शिल्पकारों को तब राजा-महाराजाओं से इस दिन पुरस्कार मिलता था। कुमाऊं में चंद शासकों के काल में भी यहां के किसानों और पशुपालकों द्वारा शासकीय अधिकारियों को विशेष भेंट ‘ओलग’ दी जाती थी। गाँव के काश्तकार अपने खेतों में उगे फल, सब्जियां, दूध-दही और अन्य खाद्य पदार्थ राजदरबार में भेंट करते थे। इसे 'ओलग' की प्रथा कहा जाता था। आज भी यह त्योहार लगभग इसी तरह मनाया जाता है। इसी कारण इस पर्व के दिन पुरोहित, रिश्तेदारों और परिचितों को शाक सब्जी और घी-दूध भेंट कर 'ओलग' देने की रस्म पूरी की जाती है।
घी संक्रांति का महत्व और लोक मान्यताएं
यह पर्व भादो माह की पहली तिथि को मनाया जाता है। मूल रूप से यह एक ऋतु उत्सव है, जिसे खेती-बाड़ी से जुड़े किसान और पशुपालक बड़े उत्साह से मनाते हैं। गांवों में महिलाएं इस दिन अपने बच्चों के सिर में ताजा मक्खन मलती हैं और उनकी लंबी उम्र की कामना करती हैं। कुमाऊं के क्षेत्रों में इस दिन मक्खन या घी के साथ बेड़ू रोटी (उड़द की दाल की पिट्ठी भरी रोटी) खाने का रिवाज है। इसके अलावा घी से बने अन्य व्यंजनों का सेवन भी किया जाता है। लोकमान्यता है कि इस दिन घी न खाने वाले व्यक्ति को अगले जन्म में घोंघे की योनि प्राप्त होती है।
ओलगिया का कुमाऊं में महत्व
कुमाऊं के कृषक वर्ग की ओर से इस पर्व पर फसल से प्राप्त खाद्य पदार्थ जैसे- गाबे (अरबी के पत्ते), भुट्टे, दही, घी, मक्खन आदि की 'ओलग' सबसे पहले ग्राम देवता को अर्पित की जाती है, उसके बाद पंडितों-पुजारियों और अन्य लोगों को 'ओलग' दी जाती है। अंत में यह खुद सेवन की जाती है। उत्तराखंड में इस तरह के पर्वों की भांति ऋतु परिवर्तन के और भी कई लोक पर्व समय-समय पर मनाए जाते हैं।
घी संक्रांति का वैज्ञानिक आधार
वास्तव में पुराने समाज ने इन पर्वों के माध्यम से आम जनजीवन को खेती-बाड़ी और पशुपालन से जुड़े उत्पादों, जैसे शाक-सब्जी, फल, फूल, अनाज, और दूध से बने पदार्थों (दही, मक्खन, घी आदि) से जोड़ने का एक अनूठा प्रयास किया है। हमारे पूर्वजों ने इन विभिन्न खाद्य पदार्थों के पोषक तत्वों के महत्व को समाज में समझाने के लिए लोक पर्व घी संक्रांति यानी ओलगिया का उपयोग किया। वास्तव में देखें तो इन त्योहारों के कुछ पक्ष वैज्ञानिक आधार पर भी खरे उतरते हैं।
घी संक्रांति का सामाजिक पक्ष
अरबी के पत्तों (गाबे) में मौजूद पोषक तत्व हमारे शरीर के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इसलिए पहाड़ों में गाबे की सब्जी और इसके पत्तों के पत्तोड़ बनाने की परंपरा है। इसी तरह घी और मक्खन की उपयोगिता से भी सभी परिचित हैं। लोक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन घी का सेवन न करने वाले व्यक्ति को अगले जन्म में घोंघे की योनि प्राप्त होती है। यह धारणा शायद इसी उद्देश्य से फैलाई गई थी कि लोग घी के पोषक तत्वों का महत्व समझें। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे गाँव समाज के पूर्वजों के पास इस तरह के लोक विज्ञान की गहरी समझ थी, और शायद इसी वजह से उन्होंने इन अद्भुत पर्वों को इस रूप में प्रस्तुत किया।
घी संक्रांति: उत्तराखंड की लोक परंपरा का अनोखा उत्सव
उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर में अनेक पर्व और उत्सव शामिल हैं, जो इस प्रदेश की प्राकृतिक सुंदरता और लोक जीवन को दर्शाते हैं। ऐसे ही एक उत्सव का नाम है घी संक्रांति, जिसे कुमाऊं और गढ़वाल में घी त्यार, घ्यूसग्यान, और ओलगिया के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व भाद्रपद माह के प्रथम दिन, यानी सिंह संक्रांति के दिन मनाया जाता है।
कृषि और पशुपालन से जुड़ा उत्सव
भारत हमेशा से एक कृषि प्रधान देश रहा है, और यहां की अधिकांश परंपराएं और उत्सव कृषि, ऋतु परिवर्तन, और पशुओं से जुड़े हुए हैं। उत्तराखंड में भी ऐसे कई उत्सव मनाए जाते हैं, जो खेती-बाड़ी, पशुपालन, और ऋतु परिवर्तन से संबंधित होते हैं। घी संक्रांति भी ऐसा ही एक पर्व है, जिसमें किसान और पशुपालक अपने पशुओं और प्रकृति से प्राप्त उपहारों का आनंद लेते हैं।
घी संक्रांति का पारंपरिक महत्व
घी संक्रांति पर्व विशेष रूप से उन परिवारों में बड़े उत्साह से मनाया जाता है, जिनके पास दुधारू पशु होते हैं। इस दिन परिवार की महिलाएं ताजा मक्खन बनाती हैं और फिर उससे ताजा घी तैयार करती हैं। इस घी का उपयोग विभिन्न पारंपरिक व्यंजनों में किया जाता है, जो खासकर पहाड़ी इलाकों में उगने वाले अनाजों से बनाए जाते हैं। इन व्यंजनों में उड़द के बड़े, बेडवा रोटी (उड़द की दाल की रोटी), सिंगल, खीर, और पुवे शामिल होते हैं। घी का सेवन इस दिन न केवल स्वाद के लिए, बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी अत्यधिक लाभदायक माना जाता है।
लोक मान्यताएं और परंपराएं
इस पर्व के दौरान, उत्तराखंड में एक मान्यता है कि इस दिन घी का सेवन न करने वाला व्यक्ति अगले जन्म में घोंघा (गनेल) बनता है। यह मान्यता शायद इसलिए फैलाई गई थी ताकि लोग घी के महत्व को समझें और उसका सेवन करें। इस दिन ताजे घी की मालिश भी बच्चों के सिर में की जाती है, जो उनके स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभकारी मानी जाती है।
ओलगिया का महत्व
कुमाऊं मंडल में इस पर्व को ओलगिया या ओगलिया के रूप में भी मनाया जाता है। इसका अर्थ है कि इस दिन व्यक्ति अपने ससुरालियों या अन्य प्रियजनों को प्रकृति से प्राप्त उपहार, जैसे दही, मक्खन, भुट्टे, ककड़ी आदि भेंट करता है। खासकर अरबी या पिनालू के कोमल पत्तों (गाबों) की सब्जी इस दिन विशेष रूप से बनाई जाती है। इस मौसम में पहली बार इन पत्तों को तोड़ा जाता है और इसे सबसे पहले भूमि देवता और ग्राम देवता को अर्पित किया जाता है, इसके बाद ही इसे घर में उपयोग किया जाता है।
वैज्ञानिक आधार
इस परंपरा का एक वैज्ञानिक आधार भी हो सकता है। अरबी के पौधे इस समय पूरी तरह से तैयार हो जाते हैं, और अगर इस समय इन पत्तों को तोड़ा जाए, तो इससे पौधे की जड़ों और गांठों को कोई नुकसान नहीं होता। यह परंपरा हमारे पूर्वजों द्वारा बहुत ही सावधानी और समझ के साथ निभाई जाती थी, लेकिन समय के साथ-साथ अब यह लगभग लुप्त होती जा रही है।
निष्कर्ष
घी संक्रांति केवल एक त्यौहार नहीं है, बल्कि यह हमारी संस्कृति, परंपराओं और प्रकृति के साथ जुड़ाव का प्रतीक है। इस पर्व के माध्यम से हमें अपने पूर्वजों की सोच और उनकी समझ का परिचय मिलता है, जिन्होंने इन उत्सवों के माध्यम से हमें जीवन के मूल्यों और प्रकृति के महत्व को सिखाने का प्रयास किया। हमें चाहिए कि हम इन परंपराओं को संजोएं और उन्हें आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाएं, ताकि हमारी समृद्ध संस्कृति और धरोहर बनी रहे।
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