गढ़वाली भाषा का परिचय: इतिहास, बोलियाँ, और साहित्य - Introduction to Garhwali Language: History, Dialects, and Literature
गढ़वाली भाषा का परिचय: इतिहास, बोलियाँ, और साहित्य
गढ़वाली भाषा उत्तराखंड राज्य की एक प्रमुख भाषा है। यह मुख्यतः गढ़वाल क्षेत्र में बोली जाती है और इसके अनेक स्वरूप विकसित हो चुके हैं। गढ़वाली भाषा का प्राचीनतम स्वरूप वैदिक गढ़वाळि है, जो समय के साथ विकसित होकर कुणिन्द गढ़वाळि और फिर आधुनिक श्री गढ़वाळि में बदल गया। यह लेख गढ़वाली भाषा के इतिहास, बोलियों, और इसके समृद्ध साहित्य को समझने का प्रयास करेगा।
गढ़वाली भाषा का इतिहास
गढ़वाली भाषा की उत्पत्ति वैदिक काल से मानी जाती है। प्रारंभिक काल में इसे "कुणिन्द गढ़वाळि" के रूप में जाना जाता था। मध्यकाल में यह "गस्वाळी" या "खश गढ़वाळी" के रूप में विकसित हुई। वर्तमान समय में इसे "श्री गढ़वाळी" के नाम से जाना जाता है, जो आधुनिक गढ़वाली भाषा का स्वरूप है।
गढ़वाली भाषा का मानक स्वरूप "गस्यी" कहलाता है, जो सलाणी, खशपर्या, श्रीनगरया और संस्कृत के मिश्रण से बना है। यह मानक बोली गढ़वाल के क्षेत्र में विशेष रूप से प्रयोग की जाती है।
गढ़वाली की बोलियाँ
गढ़वाली भाषा के अंतर्गत कई बोलियाँ हैं, जो गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाती हैं। इनमें से कुछ प्रमुख बोलियाँ निम्नलिखित हैं:
गढ़वाली: यह गढ़वाल मंडल के सातों जिलों—पौड़ी, टिहरी, चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, देहरादून और हरिद्वार में बोली जाती है। गढ़वाली भाषा का विकास आर्य भाषाओं के साथ ही हुआ लेकिन 11—12वीं सदी में इसने अपना अलग स्वरूप धारण किया। गढ़वाली पर हिंदी, मराठी, फारसी, गुजराती, बांग्ला, और पंजाबी का प्रभाव रहा है।
कुमाउनी: कुमाऊं मंडल के छह जिलों—नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत और उधमसिंह नगर में बोली जाती है। यह दो मुख्य वर्गों में विभाजित है: पूर्वी और पश्चिमी कुमाउनी।
जौनसारी: जौनसार बावर और आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है। यह भाषा देहरादून जिले के पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्र में प्रमुख है और इसमें पंजाबी, संस्कृत, प्राकृत, और पाली के कई शब्द मिलते हैं।
मार्छा: गढ़वाल मंडल के चमोली जिले की नीति और माणा घाटियों में रहने वाली भोटिया जनजाति द्वारा बोली जाती है। इसमें तिब्बती के कई शब्द सम्मिलित हैं।
रवांल्टी: उत्तरकाशी जिले के पश्चिमी क्षेत्र में बोली जाती है, जिसे रवांई कहा जाता है। इस क्षेत्र की भाषा गढ़वाली से भिन्न है।
जाड़: उत्तरकाशी जिले के जाड़ गंगा घाटी में निवास करने वाली जाड़ जनजाति की भाषा है। इसे तिब्बत की 'यू मी' लिपि में भी लिखा जाता था।
बेंगाणी: उत्तरकाशी जिले के मोरी तहसील के अंतर्गत बंगाण क्षेत्र में बोली जाती है। इसे यूनेस्को ने उन भाषाओं में शामिल किया है जिन पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है।
जोहारी: पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी क्षेत्र में बोली जाती है। इसमें भी तिब्बती शब्द पाए जाते हैं।
थारू: उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के तराई क्षेत्रों में थारू जनजाति द्वारा बोली जाती है। यह कन्नौजी, ब्रजभाषा, और खड़ी बोली का मिश्रित रूप है।
गंगपरिया: टिहरी गढ़वाल के भागीरथी (गंगा) के पार के क्षेत्र में बोली जाती है। इसमें मुख्यतः गंगाड़ी और टिहरियाली का प्रभाव है।
बुक्साणी: कुमाऊं से लेकर गढ़वाल तक के तराई क्षेत्रों में निवास करने वाली जनजाति की भाषा है।
रंग ल्वू: पिथौरागढ़ की धारचुला तहसील के दारमा, व्यास, और चौंदास पट्टियों में बोली जाती है। इसे तिब्बती—बर्मी भाषा का अंग माना जाता है।
राजी: कुमाऊं के जंगलों में रहने वाली जनजाति की भाषा है। यह तेजी से विलुप्त होती जा रही है।
गढ़वाली साहित्य
गढ़वाली भाषा का साहित्य और लोक साहित्य अत्यधिक समृद्ध है। इसके लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाता है। गढ़वाल में देवताओं के जागर, आह्वान, स्तुति, मांगलिक गीत और तंत्र-मंत्र पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद किए जाते रहे हैं। इनमें से एक "ढोल सागर" है, जिसे सर्वप्रथम 1932 में लिपिबद्ध किया गया।
गढ़वाली साहित्य का इतिहास सन् 1750 से शुरू होता है जब महाराज प्रदीप शाह के राज ज्योतिषी जयदेव बहुगुणा जी ने गढ़वाली में पहली कविता "रंच जुड़्यां पंच जुड़्यां जूड़िगे घिमसाण जी" लिखी। इसके बाद सन् 1820 के आसपास ईसाई मिशनरियों ने बाइबिल (न्यू टेस्टामेंट) का गढ़वाली अनुवाद करवाया।
20वीं सदी में गढ़वाली साहित्य ने महत्वपूर्ण विकास किया। सत्यशरण रतूड़ी, चन्द्रमोहन रतूड़ी, बलदेव प्रसाद शर्मा, तारादत्त गैरोला, और शशि शेखरानंद जैसे कवियों ने गढ़वाली गीत और कविताओं की रचना की। गद्य के क्षेत्र में भवानी दत्त थपलियाल, शालिग्राम वैष्णव, गिरिजादत्त नैथानी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
स्वतंत्रता के बाद का गढ़वाली साहित्य
स्वतंत्रता के बाद, गढ़वाली साहित्य में एक नई स्फूर्ति आई। गीत, कविता, कहानी के साथ-साथ गढ़वाली नाटक, निबंध, व्याकरण, और भाषा कोश के क्षेत्र में भी काम होने लगा।
- गोविन्द चातक: "गढ़वाली भाषा" (1959)
- अच्युदानन्द घिल्डियाल: "गढ़वाली भाषा और साहित्य" (1962)
- मोहनलाल बाबुलकर: "गढ़वाली लोक साहित्य का विवेचनात्मक अध्ययन" (1963)
- हरिदत्त भट्ट 'शैलेश': "गढ़वाली भाषा और उसका साहित्य" (1976)
- रमाकान्त बेंजवाल: "गढ़वाली भाषा की शब्द संपदा" (2010)
गढ़वाली में शब्दकोशों के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जयलाल वर्मा, मालचंद रमोला, अरविंद पुरोहित, और बीना बेंजवाल ने गढ़वाली हिंदी शब्दकोश प्रकाशित किए हैं।
वर्तमान गढ़वाली
वर्तमान समय में गढ़वाली भाषा और साहित्य का स्वरूप काफी बदल गया है। गढ़वाली भाषा पर हिंदी का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। लेकिन गढ़वाली साहित्य की समृद्धि और विविधता आज भी इसे एक महत्वपूर्ण भाषा बनाती है।
गढ़वाली भाषा और साहित्य का संरक्षण और संवर्धन आज की आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इसे समझ सकें और इसकी गहराई का अनुभव कर सकें।
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