कूर्मांचल केसरी बद्रीदत्त पाण्डेय, - Kurmanchal Kesari Badridatt Pandey,

कूर्मांचल केसरी बद्रीदत्त पांडेय: उत्तराखंड के स्वतंत्रता संग्राम के नायक

जन्म: 15 फरवरी 1882
जन्म स्थान: हरिद्वार, उत्तराखंड
मृत्यु: 13 जनवरी 1965

उत्तरांचल, जिसे आज उत्तराखंड के नाम से जाना जाता है, में स्वतंत्रता संग्राम के कई नायकों ने अपनी भूमिका निभाई है। इनमें से एक प्रमुख नाम है कूर्मांचल केसरी श्री बद्रीदत्त पांडेय का। उनका जन्म 15 फरवरी 1882 को हरिद्वार में हुआ था। उनके पिता, वैद्य श्री विनायक दत्त पांडेय, और माता की मृत्यु के बाद उनका पालन-पोषण बड़े भाई ने किया।

शिक्षा और प्रारंभिक जीवन
अल्पावस्था में माता-पिता की मृत्यु के बाद, बद्रीदत्त जी ने अपने बड़े भाई की देखरेख में शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने अल्मोड़ा में स्वामी विवेकानंद, महामना मदनमोहन मालवीय, और ऐनी बेसेंट जैसे महान व्यक्तियों के भाषण सुने, जो उनके जीवन पर गहरा प्रभाव डालने वाले थे।

पत्रकारिता और स्वाधीनता आंदोलन
1908 में नौकरी छोड़ने के बाद, बद्रीदत्त जी ने पत्रकारिता में कदम रखा। उन्होंने प्रयाग के 'लीडर' और देहरादून के 'कॉस्मोपोलिटिन' में काम किया। 1913 में उन्होंने 'अल्मोड़ा अखबार' की शुरुआत की, जो शीघ्र ही जनता के बीच लोकप्रिय हो गया।

1918 में, उन्होंने 'शक्ति' नामक एक नया पत्र शुरू किया, जिसने कुमाऊं में स्वतंत्रता और समाज सुधार आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1920 में 'कुमाऊं परिषद' की स्थापना की, जिसका गांधी जी ने समर्थन किया।

कुली बेगार आंदोलन
1921 में, बद्रीदत्त जी ने कुली बेगार प्रथा के खिलाफ एक अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया। बागेश्वर में आयोजित एक सभा में, उन्होंने 40,000 लोगों को एकत्रित किया और कुली बेगार प्रथा के विरोध में शपथ दिलाई। यह आंदोलन सफल रहा और बद्रीदत्त जी को 'कूर्मांचल केसरी' की उपाधि प्राप्त हुई।

महात्मा गांधी के साथ सहयोग
1929 में गांधी जी जब अल्मोड़ा आए, तो बद्रीदत्त जी उनके लाउड स्पीकर बने। गांधी जी की कमजोर आवाज को जनता तक पहुंचाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

स्वतंत्रता संग्राम और जेल यात्राएँ
बद्रीदत्त जी ने स्वतंत्रता संग्राम में कई बार जेल की यात्रा की। उन्होंने 1921, 1929, 1932, और 1942 में जेल में बिताया। उनके जेल जीवन में उनके बेटे तारकनाथ और बेटी जयन्ती की मृत्यु हो गई। उन्होंने इसी दौरान 'कुमाऊं का इतिहास' लिखा, जो आज भी एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है।

मृत्यु और विरासत
13 जनवरी 1965 को बद्रीदत्त जी का निधन हुआ। उनका दाह संस्कार बागेश्वर में सरयू के तट पर किया गया, जहां उन्होंने कुली बेगार प्रथा के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत की थी। उनके योगदान को सहेजने के लिए, उनके संघर्ष और बलिदान को याद किया जाता है।

श्री बद्रीदत्त पांडेय का जीवन स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष की एक प्रेरणादायक कहानी है, जिसने उन्हें उत्तराखंड और भारत के इतिहास में अमर बना दिया।

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