देवदार और उमा : उत्तराखंड की लोक-कथा Deodar Aur Uma : Lok-Katha (Uttarakhand)

देवदार और उमा : उत्तराखंड की लोक-कथा Deodar Aur Uma: Lok-Katha (Uttarakhand)

चमोली में एक छोटा सा गाँव है- ‘देवरण डोरा’। कई साल पहले इसी गाँव में भवानीदत्त नामक एक पुरोहित रहते थे। वे गाँव के शिव मंदिर के पुजारी थे। उनकी एक बेटी थी- उमा। वह अपने पिता के समान ही धार्मिक स्वभाव वाली थी। वह रोज अपने पिता के साथ मंदिर जाती। मंदिर की साफ-सफाई के बाद वह शिव की पूजा करती। प्रतिदिन शिवलिंग पर गंगाजल चढ़ाती थी। शिवलिंग पर मंदार के फूल भी चढ़ाती। इन फूलों को लाने वह नित्य जंगल जाती थी। मंदार के फूल तोड़ने वह जब अपने पंजों के बल उचकती तो पेड़ की डालियाँ अपने आप झुक जाती थीं। उमा को जंगल बहुत भाता था। सघन देवदारों के पेड़ों की छाँव में बैठना उसे बहुत अच्छा लगता था। जंगल में चीड़ के पेड़ों से बहुत लगाव था। उमा ने अपने घर के आँगन में भी देवदार का पेड़ लगाया था। वह उसमें नियम से प्रतिदिन पानी डालती। पौधे को बढ़ते देख उसे खुब खुशी होती।

‌नित्य की भाँति एक दिन उमा अपने पिता के साथ मंदिर जा रही थी। तभी सामने से जंगली हाथियों का झुण्ड आता दिखाई दिया। उमा डरकर उपने पिता से चिपट गयी। पिता ने प्यार से उसे समझाया, “बेटा डरो नहीं, ये हाथियों का झुँड जंगल में घूमने आया है। लगता है, इन हाथियों को भी हमारी तरह जंगल के देवदार पसंद हैं। थोड़ी देर में ये चले जाएंगे।”

मंदिर में पूजा करने के बाद उमा रोज की तरह जंगल की ओर चली गयी। लेकिन काफी देर तक वह नहीं लौटी तो भवानीदत्त को चिंता होने लगी। बेटी की तलाश में वे भी जंगल गए। थोड़ी दूर जाने के बाद उन्होंने देखा कि उमा देवदार के एक पेड़ के नीचे खड़ी होकर रो रही है। बेटी को रोती देख भवानीदत्त जी ने घबराकर पूछा, “उमा बिटिया, क्या हुआ?” उमा देवदार का तना दिखाते हुए बोली, “बाबू एक जंगली हाथी ने अपनी पीठ खुजलाते हुए इस पेड़ की छाल उतार दी है। इस कितना दर्द हो रहा होगा।” देवदार के प्रति बेटी का स्नेह देखकर भवानीदत्त का हृदय भी करुणा से भर उठा। वे सोचने लगे कि मेरी नन्हीं-सी बेटी का हृदय कितना विशाल है जो पेड़ों के प्रति भी इतना ममतामय है।

कहा जाता है कि नन्हीं उमा ही अगले जन्म में हिमालय की पुत्री उमा बनीं। शिव जी का जब उमा से विवाह हुआ तो उन्होंने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर हिमालय में उगने वाले इन देवदार वृक्षों को अपने दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार किया। कहते हैं कि शिव-पार्वती इन देवदार वृक्षों से पुत्रवत् स्नेह करते थे। उनकी ममतामयी दृष्टि आज भी देवदार वृक्षों पर बनी हुई है। हिमालय के जंगलों में वनदेवी स्वयं सिरीसृप (रेंगनेवाले जीव-जंतुओं) और वनाग्नि (पेड़ों की रगड़ से जगंल में लगने वाली आग) से देवदार वृक्षों की रक्षा करती हैं।

ऊँची हिमाला की शाना यो,
यो देवदारा झुमर्याली देवदारा।

कहानी से शिक्षा

  • प्रकृति प्रेम: इस कहानी से हमें सिखने को मिलता है कि प्रकृति, पेड़-पौधों और सभी जीव-जंतुओं के प्रति करुणा और प्रेम का भाव रखना चाहिए।

  • संवेदनशीलता और ममता: उमा का वृक्षों के प्रति स्नेह हमें यह सिखाता है कि हमारे अंदर संवेदनशीलता और ममता का भाव होना चाहिए, चाहे वह मानव हो या प्रकृति।

  • पर्यावरण संरक्षण: देवदार के वृक्षों को शिव-पार्वती का दत्तक पुत्र मानने का संदेश हमें यह सिखाता है कि पर्यावरण का संरक्षण करना हमारा धार्मिक और नैतिक कर्तव्य है।


"ऊँची हिमाला की शाना यो,
यो देवदारा झुमर्याली देवदारा।"

इस पंक्ति के माध्यम से उत्तराखंड के लोगों की देवदार वृक्षों के प्रति आस्था और प्रेम झलकता है। यह कहानी न केवल प्रकृति से हमारे संबंध को प्रकट करती है, बल्कि हमें यह भी सिखाती है कि हमारे आसपास के पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हमारी ज़िम्मेदारी है।

उत्तराखंड, अपने प्राकृतिक सौंदर्य, घने जंगलों, और पवित्र धार्मिक मान्यताओं के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ की धरती पर बसे गाँवों में अनेक पुरानी लोक-कथाएँ बसी हुई हैं, जो यहाँ के लोगों के जीवन और संस्कृति का हिस्सा रही हैं। इन्हीं लोक-कथाओं में से एक है देवदार और उमा की कहानी, जो देवभूमि उत्तराखंड के चमोली जिले के एक छोटे-से गाँव 'देवरण डोरा' से जुड़ी है। यह कहानी पर्यावरण संरक्षण, देवदार वृक्षों के महत्व, और शिव-पार्वती के प्रति उत्तराखंड की आस्था का गहरा संदेश देती है।

कहानी की शुरुआत: भवानीदत्त और उमा

कई साल पहले चमोली के इस गाँव में भवानीदत्त नामक एक पुरोहित रहते थे, जो गाँव के शिव मंदिर के पुजारी थे। उनकी एक प्यारी बेटी थी, जिसका नाम था उमा। उमा का स्वभाव अपने पिता जैसा धार्मिक था। वह रोज़ अपने पिता के साथ मंदिर जाती, वहाँ की साफ-सफाई करती और भगवान शिव की पूजा करती थी। उमा की दिनचर्या में शिवलिंग पर गंगाजल और मंदार के फूल चढ़ाना भी शामिल था। वह रोज़ जंगल में जाकर मंदार के फूल लाती, और यह जंगल उसकी प्रार्थनाओं और मन की शांति का केंद्र बन चुका था।

उमा और देवदार वृक्षों का स्नेह

उमा को जंगलों से बहुत लगाव था, खासकर देवदार के विशाल वृक्षों से। इन वृक्षों की छाँव में बैठना उसे आत्मिक शांति प्रदान करता था। इतना ही नहीं, उसने अपने घर के आँगन में भी एक देवदार का पौधा लगाया था, जिसे वह रोज़ पानी देती और बड़े होते हुए देखती। देवदार के इस पौधे को उमा ने अपने हृदय से लगाया और उसे पुत्रवत् स्नेह दिया।

जंगली हाथियों का आगमन और उमा की करुणा

एक दिन उमा और उसके पिता भवानीदत्त मंदिर जा रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि जंगल से जंगली हाथियों का एक झुंड आ रहा है। उमा डर गई और अपने पिता से लिपट गई। पिता ने उसे समझाया कि यह हाथियों का झुंड केवल घूमने आया है और थोड़ी देर में जंगल वापस चला जाएगा। इसके बाद उमा रोज़ की तरह मंदिर में पूजा करने के बाद जंगल चली गई।

जब काफी देर हो गई और उमा वापस नहीं आई, तो भवानीदत्त को चिंता होने लगी। उन्होंने उमा की खोज शुरू की और देखा कि वह देवदार के एक पेड़ के नीचे खड़ी होकर रो रही है। पिता ने घबराकर उमा से पूछा, “क्या हुआ बेटा?” उमा ने देवदार के पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा, “बाबू, एक जंगली हाथी ने अपनी पीठ खुजलाते हुए इस पेड़ की छाल उधेड़ दी है। इस पेड़ को कितना दर्द हो रहा होगा।”

उमा का विशाल हृदय और पिता की करुणा

उमा के इस करुण हृदय और देवदार के प्रति प्रेम को देखकर भवानीदत्त का मन भी करुणा से भर गया। उन्हें अपनी बेटी के हृदय की विशालता पर गर्व हुआ, जिसने एक वृक्ष के प्रति भी इतनी गहरी संवेदनशीलता दिखाई। उमा का यह प्रेम और ममता केवल अपने पिता के लिए नहीं था, बल्कि प्रकृति के प्रति भी थी। उमा ने सिखाया कि पेड़ों और प्रकृति से हमें पुत्रवत् प्रेम करना चाहिए, क्योंकि ये हमारी धरती की संतान हैं।

उमा का पुनर्जन्म और देवदार का संरक्षण

लोककथाओं के अनुसार, यही उमा अगले जन्म में हिमालय की पुत्री पार्वती बनीं। शिवजी से विवाह के बाद, उन्होंने हिमालय के देवदार वृक्षों को अपने दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार किया। शिव और पार्वती इन देवदार वृक्षों से पुत्रवत् प्रेम करते थे और उनकी कृपा आज भी इन वृक्षों पर बनी हुई है। कहते हैं कि वनदेवी स्वयं हिमालय के इन देवदार वृक्षों की रक्षिका हैं, जो रेंगने वाले जीव-जंतुओं और जंगल की आग से उनकी रक्षा करती हैं।

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