खतडुवा पर्व: उत्तराखंड की प्राचीन परंपरा और संस्कृति - Khatduwa Festival: Ancient Tradition and Culture of Uttarakhand

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खतडुवा पर्व: उत्तराखंड की प्राचीन परंपरा और संस्कृति

उत्तराखंड की संस्कृति में कृषि और पशुपालन का बहुत गहरा संबंध है। इस क्षेत्र के लोग सदियों से प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहे हैं, जिसमें खेती और पशुपालन उनका मुख्य आजीविका का साधन रहा है। इन गतिविधियों के साथ जुड़े विभिन्न त्यौहार और परंपराएँ राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जीवित हैं। ऐसा ही एक त्यौहार है खतडुवा, जो पशुओं की मंगलकामना और शीत ऋतु की शुरुआत का प्रतीक है।

खतडुवा का महत्व

खतडुवा त्यौहार भाद्रपद महीने में मनाया जाता है, जो आमतौर पर सितंबर के मध्य में आता है। इस समय उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में ठंड का आगमन होता है और गर्म कपड़े जैसे रजाई और स्वेटर निकालने का समय आ जाता है। यह पर्व इस बात का प्रतीक है कि बारिश के मौसम के बाद शीत ऋतु दस्तक देने वाली है, और लोगों को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। यह त्योहार विशेष रूप से पशुपालन से जुड़ा हुआ है, जिसमें लोग अपने पशुओं की लंबी आयु और रोगमुक्त रहने की कामना करते हैं।

खतडुवा की परंपराएँ

इस दिन गाँवों में विशेष सफाई की जाती है। गौशाला को साफ किया जाता है, और पशुओं को नहला-धुलाकर उन्हें हरी घास खिलाई जाती है। इसके अलावा, महिलाएँ गौशाला में एक छोटी मशाल (जिसे खतड़ुवा कहा जाता है) जलाकर मकड़ी के जाले और अन्य गंदगी को साफ करती हैं। मशाल को गौशाला में घुमाकर भगवान से कामना की जाती है कि वे पशुओं को बीमारियों और परेशानियों से दूर रखें।

शाम के समय, गाँव के बच्चे लकड़ी के ढेर पर आग लगाते हैं और उसे बुढी के नाम से जलाते हैं। यह माना जाता है कि यह आग पशुओं को बीमारियों से बचाती है। बच्चे जोर से चिल्लाते हुए गाते हैं:

"भैल्लो जी भैल्लो, भैल्लो खतड़ुवा,
गै की जीत, खतडुवै की हार,
भाग खतड़ुवा भाग।"

इसका अर्थ है कि गाय की जीत हो और खतडुवा (पशुओं की बीमारियाँ) की हार हो। इसके बाद, लोग प्रसाद स्वरूप ककड़ी वितरित करते हैं, जिसे मिलकर खाया जाता है।

खतडुवा से जुड़ी भ्रांतियाँ

खतडुवा पर्व के साथ कई मिथक और कहानियाँ भी जुड़ी हैं। एक लोकप्रिय कथा के अनुसार, कुमाऊं के सेनापति गैड़ सिंह ने गढ़वाल के राजा खतड़ सिंह को हराया था, और उसी विजय की खुशी में इस त्यौहार की शुरुआत हुई। लेकिन इतिहासकारों के अनुसार, ऐसी कोई ऐतिहासिक घटना या व्यक्ति का उल्लेख कुमाऊं या गढ़वाल के इतिहास में नहीं मिलता।

प्रसिद्ध कुमाऊंनी कवि श्री बंशीधर पाठक "जिज्ञासु" ने अपनी कविता में इस मिथक को स्पष्ट रूप से खारिज किया है:

"अमरकोश पढ़ी, इतिहास पन्ना पलटीं, खतड़सिंग न मिल, गैड़ नि मिल।
कथ्यार पुछिन, पुछ्यार पुछिन, गणत करै, जागर लगै,
बैसि भैट्य़ुं, रमौल सुणों, भारत सुणों, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल।"

इसलिए, इस पर्व के पीछे की वास्तविकता यह है कि यह त्यौहार शीत ऋतु की शुरुआत और पशुओं की मंगलकामना के रूप में मनाया जाता है। हमें इस पर्व की पुरानी धरोहरों को जीवित रखना चाहिए और इससे जुड़ी भ्रांतियों को दूर करना चाहिए, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ इस संस्कृति को सही रूप में समझ सकें और उसका आदर कर सकें।

निष्कर्ष

खतडुवा केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है। यह पर्व न केवल पशुपालकों के जीवन का अहम हिस्सा है, बल्कि यह संदेश भी देता है कि हम अपने पर्यावरण और पशुधन की देखभाल करें। समय के साथ इस पर्व में नए-नए मिथक और कहानियाँ जुड़ गई हैं, लेकिन हमें इसकी वास्तविकता को समझकर इसे उसी पवित्रता और आदर के साथ मनाना चाहिए जैसा हमारे पूर्वजों ने किया था।

खतडुवा छू बल आज!

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