फागुन में: गाँव की यादें और प्रकृति का जादू
फागुन का जादू
फागुन आता था,
और मेरे गाँव के सीढ़ीनुमा खेत,
खिलखिला उठते थे भिटारू के फूलों से।
बर्फ से ढकी चोटियां,
मुस्करा उठती थीं,
जैसे किसी ने सफेद चादर को,
फेंक दिया हो कहीं दूर।
प्रकृति का रंगीन आभास
प्यूली के जंगली फूल,
पीली चमक बिखेरते थे,
और बुरांस की लाल कोपलें,
खिलने को आतुर दिखती थीं।
झाड़ियों में बसंत का श्रृंगार,
फागुन के स्वागत में तैयार होता था।
फागुनी हवाओं का संगीत
हर शाख पर कोयल,
कुहू-कुहू का राग सुनाती थी।
होली की मधुर तान,
हवा में घुलने लगती थी।
और बेटियाँ,
भिटोली की आस में,
मायके की दिशा में निहारती थीं।
गाँव की बयार और खोए हुए सपने
तब बहती थी बसंती बयार,
फागुन रंगीला सा आता था।
लेकिन अब?
क्या मेरे गाँव में,
वही फागुन अब भी आता होगा?
क्या बंजर खेतों में,
भिटारू वैसे ही खिलता होगा?
क्या प्यूली को देख,
कोई कविता रचता होगा?
शहर की कृत्रिमता और यादों का बोझ
शहर के इस कृत्रिम जीवन में,
फागुन का आना,
महसूस होता है,
पर वैसा नहीं।
यह उदास मन,
गाँव की उन पुरानी यादों संग,
फिर से फागुनी सा हो उठता है।
पर वक्त के साथ,
वो सब जैसे खो सा गया है।
प्रकृति और हमारी संस्कृति
यह कविता केवल यादों का संग्रह नहीं,
बल्कि एक पुकार है,
प्रकृति की ओर लौटने की।
हमारी परंपराएँ, हमारी भूमि,
और वो गाँव की मिट्टी,
अब भी हमें बुला रही हैं।
कविता का संदेश
फागुन का मौसम,
सिर्फ मौसम नहीं,
यह जीवन की ताजगी,
और गाँव के हर कोने में बसी,
संस्कृति का प्रतीक है।
आइए, इस फागुन,
उन खोई हुई यादों को जी लें।
फागुन की इस कविता के साथ,
गाँव की बसंती बयार को,
फिर से महसूस करें। 🌸
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें