उत्तराखंड का भाषा साहित्य एवं क्षेत्रवार बोली जाने वाली लोकभाषाएँ (Language, literature and region-wise spoken languages of Uttarakhand)
उत्तराखंड का भाषा साहित्य एवं क्षेत्रवार बोली जाने वाली लोकभाषाएँ
हिंदी की एक पुरानी कहावत है, "कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बाणी"। यह कहावत उत्तराखंड की भाषाओं के विविध रूपों को बहुत अच्छे से दर्शाती है। उत्तराखंड राज्य, जो उत्तर प्रदेश से अलग होकर 2000 में अस्तित्व में आया, की राजकीय भाषा हिंदी है। लेकिन यदि हम लोकभाषाओं की बात करें तो यहां एक या दो नहीं, बल्कि 13 प्रमुख लोकभाषाएँ बोली जाती हैं, जो अपनी अलग-अलग खासियतों और स्वरूपों के साथ उत्तराखंड की सांस्कृतिक विविधता को प्रदर्शित करती हैं।
उत्तराखंड की भाषाओं का इतिहास
उत्तराखंड की लोकभाषाओं पर सबसे पहले जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने काम किया। उन्होंने 1894 से 1927 के बीच राजस्व विभाग के कर्मचारियों की मदद से उत्तराखंड की भाषाओं का वर्गीकरण किया। ग्रियर्सन का कार्य महत्वपूर्ण था, लेकिन उनके द्वारा तैयार किए गए दस्तावेजों में भोटांतिक भाषाओं को खास जगह नहीं मिली। इसके बाद, डॉ. गोविंद चातक, चक्रधर बहुगुणा, डॉ. हरिदत्त भट्ट, डॉ. डी शर्मा जैसे भाषाविदों ने भी उत्तराखंड की लोकभाषाओं के सन्दर्भ में उल्लेखनीय कार्य किया।
उत्तराखंड की लोकभाषाएँ
उत्तराखंड में बोली जाने वाली प्रमुख लोकभाषाएँ हैं:
गढ़वाली: गढ़वाल मंडल के सातों जिलों में गढ़वाली बोली जाती है। इसमें श्रीनगरिया, नागपुरिया, बधाणी, सलाणी, टिहरियाली, राठी, दसौल्या, मँझ कुमैया जैसे उपभाषाएँ हैं। गढ़वाली भाषाविद डॉ. गोविंद चातक ने श्रीनगर औऱ उसके आसपास बोली जाने वाली भाषा को आदर्श गढ़वाली कहा था।
कुमाउँनी: कुमाऊँ मंडल के सभी छह जिलों में कुमाऊँनी बोली जाती है। कुमाऊँनी की दस उपभाषाएँ हैं जैसे कुमैया, सोर्याली, अस्कोटी, सिराली, खसपर्जिया, चौगर्खिया, गंगोली, दनपुरिया आदि।
जौनसारी: गढ़वाल मंडल के देहरादून जिले के पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्र में जौनसारी बोली जाती है। इस भाषा में पंजाबी, संस्कृत, प्राकृत और पाली के शब्द मिलते हैं।
जौनपुरी: यह टिहरी जिले के जौनपुर विकासखंड में बोली जाती है। यहां की भाषा को जौनपुरी कहा जाता है, और इसे यामुन जाति से जोड़ा गया है।
रवांल्टी: उत्तरकाशी जिले के पश्चिमी क्षेत्र में बोली जाने वाली यह भाषा गढ़वाली से भिन्न है, और इसे रोमांटिक कहा जाता है।
जाड़: उत्तरकाशी जिले की जाड़ गंगा घाटी में बोली जाने वाली यह भाषा तिब्बत के साथ व्यापार से जुड़ी हुई है।
बंगाणी: उत्तरकाशी जिले के मोरी तहसील में बोली जाने वाली यह भाषा तिब्बती और भोटिया प्रभावी है।
मार्च्छा: यह भाषा गढ़वाल मंडल के चमोली जिले की नीति और माणा घाटियों में बोली जाती है।
जोहारी: पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी क्षेत्र में बोली जाने वाली यह भाषा तिब्बती प्रभावी है।
थारू: कुमाऊँ मंडल के तराई क्षेत्रों में बोली जाने वाली यह भाषा कन्नौजी ब्रज और खड़ी बोली का मिश्रण है।
बुक्साणी: कुमाऊँ और गढ़वाल के तराई क्षेत्रों में बोली जाने वाली यह भाषा बुक्साणी जनजाति से जुड़ी है।
रड ल्वू: पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील में बोली जाने वाली यह भाषा तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार से संबंधित है।
राजी: कुमाऊँ के जंगलों में रहने वाली राजी जनजाति की भाषा, जो खानाबदोश थी, अब स्थाई निवास में बदल चुकी है।
संकट में उत्तराखंड की लोकभाषाएँ
यूनेस्को ने अपनी सारणी में गढ़वाली और कुमाऊंनी जैसी प्रमुख भाषाओं को "असुरक्षित" श्रेणी में रखा है, जबकि जौनसारी और जाड़ जैसी भाषाएँ संकटग्रस्त हैं। इन भाषाओं पर संकट का प्रमुख कारण पलायन है। गढ़वाली और कुमाऊँनी पर हिंदी और अंग्रेजी का प्रभाव अधिक हो गया है, जिससे इन भाषाओं की अस्मिता संकट में है।
कैसे बचेंगी हमारी लोकभाषाएँ?
उत्तराखंड की लोकभाषाएँ तभी बच सकती हैं जब इन्हें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित किया जाए। इसके लिए परिवारों को अपनी भाषा को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। पलायन को रोकने के साथ-साथ यह सुनिश्चित करना होगा कि लोग अपनी मातृभाषा को बच्चों को सिखाएं ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इन भाषाओं से जुड़ी रहें। साथ ही, इन भाषाओं को संरक्षित करने के लिए सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों की आवश्यकता है, ताकि उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को बचाया जा सके।
निष्कर्ष: उत्तराखंड की लोकभाषाएँ न केवल हमारे राज्य की सांस्कृतिक विविधता को दर्शाती हैं, बल्कि हमारी पहचान और इतिहास का हिस्सा भी हैं। इन भाषाओं को बचाने के लिए हम सभी को मिलकर काम करना होगा। हमें अपनी मातृभाषाओं का सम्मान करना होगा और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहना होगा।
FAQ: उत्तराखंड की लोकभाषाएँ और उनका साहित्य
1. उत्तराखंड की मुख्य लोकभाषाएँ कौन सी हैं?
उत्तराखंड में 13 प्रमुख लोकभाषाएँ बोली जाती हैं, जिनमें गढ़वाली, कुमाऊँनी, जौनसारी, जौनपुरी, रवांल्टी, जाड़, बंगाणी, मार्च्छा, जोहारी, थारू, बुक्साणी, रड ल्वू और राजी प्रमुख हैं।
2. गढ़वाली और कुमाऊँनी भाषाओं में क्या अंतर है?
गढ़वाली और कुमाऊँनी दोनों पहाड़ी भाषाएँ हैं, लेकिन इनकी ध्वनियाँ और शब्दावली में अंतर होता है। गढ़वाली मुख्य रूप से गढ़वाल मंडल में बोली जाती है, जबकि कुमाऊँनी कुमाऊँ मंडल के छह जिलों में बोली जाती है। इन दोनों भाषाओं के कुछ स्थानीय रूप भी होते हैं।
3. उत्तराखंड की भाषाओं की रक्षा के लिए कौन से प्रयास किए जा रहे हैं?
उत्तराखंड की भाषाओं को बचाने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं, जैसे स्थानीय भाषा शिक्षा को बढ़ावा देना, लोकगीतों और साहित्य का संकलन करना, और भाषाओं के महत्व को लोगों के बीच फैलाना। कुछ संस्थाएँ और शैक्षिक संस्थान भी इन भाषाओं पर शोध कर रहे हैं।
4. क्या उत्तराखंड की लोकभाषाएँ संकट में हैं?
हां, उत्तराखंड की प्रमुख भाषाएँ जैसे गढ़वाली और कुमाऊँनी संकटग्रस्त हैं, और कुछ भाषाएँ जैसे बंगाणी और जौनसारी अत्यधिक संकटग्रस्त मानी जाती हैं। पलायन और हिंदी तथा अंग्रेजी के प्रभाव के कारण इन भाषाओं का प्रयोग कम हो रहा है।
5. क्या उत्तराखंड की भाषाएँ हिंदी और अंग्रेजी से समृद्ध हैं?
हां, गढ़वाली और कुमाऊँनी भाषाएँ शब्द संपदा के मामले में हिंदी और अंग्रेजी से समृद्ध हैं। इनमें गंध, ध्वनि, अनुभव, स्वाद और स्पर्श के लिए अलग-अलग शब्द होते हैं, जो इन भाषाओं को अत्यधिक सशक्त बनाते हैं।
6. गढ़वाली और कुमाऊँनी भाषाओं के उपभाषाएँ कौन सी हैं?
गढ़वाली की उपभाषाएँ में श्रीनगरिया, नागपुरिया, बधाणी, सलाणी, टिहरियाली, राठी, दसौल्या, और मँझ कुमैया शामिल हैं। कुमाऊँनी की उपभाषाएँ में कुमैया, सोर्याली, अस्कोटी, सिराली, खसपर्जिया, चौगर्खिया, गंगोली, दनपुरिया, पछाईं, और रोचोभैंसी शामिल हैं।
7. क्या हमें अपनी लोकभाषाओं को बचाने के लिए कदम उठाने चाहिए?
हां, उत्तराखंड की लोकभाषाओं को बचाने के लिए हमें इन भाषाओं के प्रति जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। हमें इन भाषाओं का सम्मान करना चाहिए, उन्हें अपने बच्चों को सिखाना चाहिए, और शैक्षिक संस्थाओं में इन भाषाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए।
8. उत्तराखंड की लोकभाषाओं का साहित्य किस प्रकार का है?
उत्तराखंड की लोकभाषाओं का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। इसमें लोकगीत, कविताएँ, कहानियाँ, और संस्कृति से जुड़ी रचनाएँ शामिल हैं। इन भाषाओं का साहित्य समाज और संस्कृति की गहरी समझ प्रदान करता है।
9. क्यों उत्तराखंड की लोकभाषाएँ संकट में हैं?
उत्तराखंड की लोकभाषाएँ संकट में हैं क्योंकि यहां का युवा वर्ग हिंदी और अंग्रेजी को ज्यादा महत्व देता है, और वे अपनी मातृभाषा को कम समझते हैं। इसके अलावा, पलायन और सामाजिक-आर्थिक बदलाव ने भी इन भाषाओं के अस्तित्व पर असर डाला है।
10. क्या उत्तराखंड की लोकभाषाओं को संरक्षित किया जा सकता है?
उत्तराखंड की लोकभाषाओं को संरक्षित किया जा सकता है यदि हम इन भाषाओं का महत्व समझें और उन्हें प्रोत्साहित करें। इसके लिए शिक्षा, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और साहित्यिक कार्यों के माध्यम से इन भाषाओं को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
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