ढोल-दमो: उत्पत्ति, महत्व और 16 श्रृंगार (Dhol-Damo: Origin, Importance and 16 Decorations)

ढोल-दमो: उत्पत्ति, महत्व और 16 श्रृंगार

ढोल-दमो उत्तराखंड के पारंपरिक वाद्य यंत्र हैं, जिनके बजने मात्र से हर कार्य मंगलमय हो जाता है। यह न केवल सांस्कृतिक धरोहर हैं, बल्कि देवताओं के आवाहन के लिए भी उपयोग किए जाते हैं।

ढोल-दमो की उत्पत्ति

उत्तराखंड की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, ढोल की उत्पत्ति भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह के दौरान हुई थी। यह विवाह त्रिजुगी नारायण मंदिर, रुद्रप्रयाग में संपन्न हुआ था। मान्यता है कि विवाह के समय मिट्टी का ढोल बनाया गया, जिसे भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी ने बजाने का प्रयास किया, लेकिन उसमें कोई आवाज नहीं आई। जब यह ढोल महादेव को दिया गया, तो उन्होंने गज (हाथी) की खाल से बने ढोल को बजाया, जिससे मधुर ध्वनि उत्पन्न हुई। इसके बाद निर्णय लिया गया कि बिना इस वाद्य यंत्र के बजने के कोई भी मंगल कार्य पूर्ण नहीं होगा।

तब से, किसी भी शुभ अवसर पर ढोल-दमो का बजना आवश्यक माना जाने लगा। बाद में, तांबे के ढोल का निर्माण किया गया और इसे देवताओं के आवाहन का माध्यम माना गया।

ढोल के 16 श्रृंगार

उत्तराखंड की पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, ढोल के 16 श्रृंगार होते हैं, जो इसे एक पवित्र और दिव्य वाद्य यंत्र बनाते हैं:

  1. गले में टांगने वाला सफेद धागा – इसे ब्रह्माजी का जनेऊ माना जाता है।

  2. ढोल के बीचों-बीच की पट्टी – इसे शेषनाग का स्वरूप माना जाता है।

  3. त्रिभुजाकार आकृति – यह तीनों देवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) का प्रतीक है।

  4. 11 धमनियां – यह ढोल की संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती हैं।

  5. बजाने वाली लकड़ी (डंगर) – यह हल्की मुड़ी हुई होती है और भगवान शिव के नागों का प्रतीक मानी जाती है। इसलिए इसे बेवजह छूने की मनाही होती है।

  6. से 16. – अन्य श्रृंगार ढोल की बनावट, ध्वनि, और धार्मिक महत्व से जुड़े हैं।

संस्कृति और परंपरा से जुड़ाव

इस जानकारी को साझा करने का उद्देश्य केवल यह है कि चाहे हम देश-विदेश में कहीं भी हों, हमें अपने पारंपरिक वाद्य यंत्रों को शुभ कार्यों में जरूर शामिल करना चाहिए। जब तक हम इन्हें बजाना जारी रखेंगे, तब तक हमारी संस्कृति जीवित रहेगी और इसे बजाने वाले भी सम्मानित होते रहेंगे।

देवी-देवताओं के जागर और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में भी ढोल-दमो का विशेष स्थान है। आज के समय में, पहाड़ी गीतों और आधुनिक संगीत में भी इन वाद्य यंत्रों का प्रयोग बढ़ने लगा है। यह उत्तराखंडी संस्कृति की समृद्धि और निरंतरता का प्रतीक है।

पहाड़ी लोग – अपनी संस्कृति से प्रेम करें और इसे जीवित रखें!

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