उत्तराखंड में स्वतंत्रता संग्राम और जन आंदोलनों का इतिहास - (The history of the freedom struggle and people's movements in Uttarakhand.)
उत्तराखंड में स्वतंत्रता संग्राम और जन आंदोलनों का इतिहास
वन आंदोलन
जब सम्पूर्ण देश में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चल रहा था, उस समय ब्रिटिश तथा टिहरी गढ़वाल में वनों की समस्या के कारण जनता आक्रोशित हो रही थी। चमोली और पौड़ी तहसीलों की जनता ने जंगलात विभाग के अफसरों और अंग्रेज अधिकारियों के साथ असहयोग किया। ब्रिटिश गढ़वाल में तारादत्त गैरोला, जोध सिंह नेगी और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया, जबकि टिहरी गढ़वाल में गोपाल सिंह राणा के नेतृत्व में आंदोलन चला। गोपाल सिंह राणा को "आधुनिक किसान आंदोलन का जन्मदाता" कहा जाता है। कुमाऊं क्षेत्र में भी जनता ने वन कानूनों का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने जंगलों में आग लगाकर और तारबाड़ तोड़कर अपना असंतोष व्यक्त किया।

कुली बेगार और कुली बरदायष का विरोध
ब्रिटिश हुकूमत के दौरान कुली-बेगार में स्थानीय जनता को अधिकारियों की निःशुल्क सेवा करनी पड़ती थी और कुली-बरदायष में खाद्य सामग्री भी निःशुल्क देनी पड़ती थी। सुधारवादी नेताओं ने इस कुप्रथा के उन्मूलन के लिए कई सभाएँ आयोजित कीं। 1917 में मदन मोहन मालवीय गढ़वाल आए और उन्होंने इस अन्यायपूर्ण प्रथा के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने का आह्वान किया।
गढ़वाल में इस आंदोलन का नेतृत्व चमोली में अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, पौड़ी में मथुरा प्रसाद नैथानी और लैन्सडौन में बैरिस्टर मुकुन्दी लाल ने किया। 1 जनवरी 1921 को चमेठाखाल में एक सभा हुई जिसमें यह निर्णय लिया गया कि जनता ब्रिटिश प्रशासन को बेगार नहीं देगी। इसी तरह, कुमाऊं में बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद, मोहन सिंह और चिरंजी लाल जैसे नेताओं ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। 13 फरवरी 1921 को बागेश्वर में एक बड़ी सभा हुई जिसमें जनता ने जबरन कुली न बनने की शपथ ली और कुछ मालगुजारों ने कुली रजिस्टरों को सरयू नदी में प्रवाहित कर दिया। इस घटना को "असहयोग की पहली ईंट" और "रक्तहीन क्रांति" की संज्ञा दी गई।
दुगड्डा सम्मेलन
बेगार आंदोलन की रणनीति तय करने के लिए दुगड्डा में एक सम्मेलन आयोजित किया गया। कार्यकर्ताओं की टोलियां गढ़वाल के विभिन्न हिस्सों में बेगार प्रथा उन्मूलन के लिए भेजी गईं। ईश्वरीदत्त ध्यानी, हरिदत्त बौड़ाई, मंगतराम खन्तवाल, जीवानन्द बड़ोला और योगेश्वर प्रसाद खंडूरी जैसे कार्यकर्ताओं ने गाँव-गाँव जाकर गांधीजी के विचारों का प्रचार किया।
ग्रामीणों को संगठित करने के लिए पंचायतों का निर्माण किया गया और बेगार न देने की शपथ दिलाई गई। इस आंदोलन में नव शिक्षित वर्ग, थोकदार, प्रधान, छात्र और ग्रामीण जनता भी शामिल हो गई।
कंकोड़ाखाल आंदोलन
चमोली में बेगार विरोधी आंदोलन की बागडोर अनुसूया प्रसाद बहुगुणा को सौंपी गई। 1921 में श्रीनगर गढ़वाल में नवयुवकों का सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसके बाद दशजूला पट्टी के कंकोड़ाखाल में बेगार विरोधी समितियों का गठन हुआ। यहाँ पर जनता से किसी भी अधिकारी को बेगार न देने की अपील की गई। सबसे बड़ी जनसभा बैरासकुंड में हुई जिसमें करीब 4,000 ग्रामीण शामिल हुए।
डिप्टी कमिश्नर ने 12 जनवरी 1921 को कंकोड़ाखाल में कैम्प लगाया, लेकिन अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के नेतृत्व में हजारों ग्रामीणों ने "कुली-बरदायष बंद करो" के नारे लगाते हुए इसका विरोध किया। उन्होंने स्वयं को सड़क पर लिटाकर बरदायष ले जाने से रोका, जिससे कोई भी ग्रामीण अधिकारियों को सामान पहुँचाने की हिम्मत नहीं कर सका।
निष्कर्ष
उत्तराखंड के इन आंदोलनों ने न केवल स्थानीय जनता को अन्याय के खिलाफ लड़ने की शक्ति दी, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुली बेगार प्रथा और वन आंदोलन जैसी घटनाओं ने सामाजिक न्याय की नई राह बनाई और जनता को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया।
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