उत्तराखण्ड के प्रमुख ऐतिहासिक स्थल
गोपेश्वर
केदारखण्ड में वर्णित 'गोस्थल' ही राजस्व अभिलेखों में 'गोथला' गाँव के नाम से दर्ज है, जो वर्तमान में गोपेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। यह नगर अपनी सुन्दर स्वास्थ्यवर्द्धक आबोहवा तथा मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाना जाता है। यह गंगा की सहायक धारा बालसुती (बालखिल्य) के बायें किनारे पर अवस्थित है। बदरीनाथ-केदारनाथ यात्रा-पथ के मध्य में स्थित होने के कारण यह एक प्रमुख तीर्थ स्थल रहा है। इसकी भौगोलिक स्थिति इसे ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बनाती है।

छठी शताब्दी के आसपास नागवंशीय राजा गणपतिनाथ यहाँ तक पहुँचा था और अपनी विजय के उपलक्ष्य में उसने यहाँ एक अभिलेखयुक्त त्रिशूल की स्थापना की। गणपतिनाग के त्रिशूल-लेख में उल्लिखित 'रुद्रमहालय' किसी प्राकृतिक आपदा के कारण नष्ट हो गया होगा, और बाद में आठवीं शताब्दी के अंत में कार्तिकेयपुर के शासकों ने वर्तमान शिव मंदिर का निर्माण कराया।
गुप्तोत्तर काल से लेकर मध्यकाल तक गोपेश्वर धार्मिक गतिविधियों का केंद्र रहा। 1960 ईस्वी में सीमांत जनपद चमोली के गठन के पश्चात इसे उसका मुख्यालय बनाया गया। 1948 में गीता स्वामी द्वारा यहाँ एक विद्यालय की स्थापना हुई, जो 1954 में हाई स्कूल और 1962 में इंटर कॉलेज बना। संचार और परिवहन की सुविधाओं के विकसित होने से यह नगर ऊखीमठ और चमोली के अन्य क्षेत्रों से जुड़ गया।
देवप्रयाग
पंच प्रयागों में सबसे अधिक धार्मिक महत्व रखने वाला यह देवतीर्थ अलकनंदा और भागीरथी नदियों के संगम पर स्थित है। पुराणों में इसका महात्म्य विस्तारपूर्वक वर्णित है। देवप्रयाग से संगम के पश्चात प्रवाहित होने वाली जलधारा को 'गंगा' के नाम से जाना जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, भगवान विष्णु ने राजा बलि से तीन पग भूमि का दान यहीं पर माँगा था।
देवप्रयाग में दो प्रमुख कुण्ड हैं: भागीरथी की ओर 'ब्रह्मकुण्ड' और अलकनंदा की ओर 'वशिष्ठकुण्ड'। यह नगर धार्मिक एवं पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहाँ स्थित श्री रघुनाथ मंदिर में ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण यात्रा-लेख हैं, जिनकी संख्या लगभग चालीस है और इन्हें पंचम शताब्दी का माना जाता है। इसके अतिरिक्त यहाँ पंवारकालीन अनेक ताम्रपत्र एवं शिला-लेख भी प्राप्त हुए हैं।
मध्य हिमाद्री शैली में निर्मित श्री रघुनाथ मंदिर 12वीं-13वीं शताब्दी में निर्मित माना जाता है। 1803 में आए भूकंप ने इसे क्षति पहुँचाई, लेकिन दौलतराव सिंधिया के दान से इसका जीर्णोद्धार किया गया। मंदिर के प्रांगण में 'आदि विश्वेश्वर' का प्राचीन मंदिर भी स्थित है।
श्रीनगर
उत्तराखण्ड के प्रमुख ऐतिहासिक नगरों में से एक श्रीनगर, परगना देवलगढ़ के पट्टी कलस्यूँ में अलकनंदा नदी के बाएँ तट पर स्थित है। महाभारत काल में इसे कुलिन्दाधिपति सुबाहु की राजधानी माना जाता है। यहाँ पंवार वंश के शासकों ने भी लंबे समय तक शासन किया। अजयपाल ने इसे अपनी राजधानी के रूप में स्थापित किया और 1804 में गोरखों ने इस पर अधिकार कर लिया।
1815 में अंग्रेजों ने इसे महाराजा सुदर्शन शाह से अधिग्रहित कर लिया और इसे ब्रिटिश गढ़वाल का मुख्यालय बनाया, जो 1840 तक बना रहा।
श्रीनगर कई बार प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हुआ है। 1803 के भूकंप और 1894 की बाढ़ ने इसे भारी क्षति पहुँचाई। इसके बाद अंग्रेजों ने पुराने श्रीनगर के उत्तर-पूर्व में कोदड़ के समतल मैदान में नए श्रीनगर की स्थापना की। वर्तमान श्रीनगर में कमलेश्वर और अन्य कुछ पंवारकालीन मंदिरों के अवशेष ही शेष रह गए हैं।
श्रीनगर में स्थित प्रमुख ऐतिहासिक स्थल:
लक्ष्मीनारायण मंदिर समूह
गोरखनाथ गुफा मंदिर
केशवराय मठ
भक्तयाणा का पंचायतन मंदिर
यह नगर वर्तमान में गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रमुख शिक्षा केंद्र के रूप में भी जाना जाता है।
उत्तराखण्ड के ये ऐतिहासिक नगर न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि प्रशासनिक और सांस्कृतिक महत्त्व के कारण भी प्रसिद्ध हैं। इनका इतिहास हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का परिचायक है।
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