गढ़वाल क्षेत्र पर गोरखों का आक्रमण (The attack of the Gorkhas on the Garhwal region.)

गढ़वाल क्षेत्र पर गोरखों का आक्रमण

गोरखा शासन का विस्तार 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तेजी से हुआ। 1790 ईस्वी में गोरखों ने कुमाऊँ क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया, जिससे गढ़वाल राज्य पर भी उनका ध्यान केंद्रित हुआ। इस समय गढ़वाल की राजनैतिक स्थिति कमजोर थी, जिसका लाभ उठाते हुए गोरखों ने इस पर भी आक्रमण करने की योजना बनाई।

प्रथम गोरखा आक्रमण (1791 ई.)

1791 ई. में हर्षदेव जोशी की सहायता से गोरखों ने गढ़वाल के पश्चिमी भाग पर हमला किया। गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह के नेतृत्व में गढ़ सैनिकों ने बहादुरी से मुकाबला किया, विशेष रूप से लंगूरगढ़ी में। गोरखों को कड़ी टक्कर मिली, जिससे उन्हें पीछे हटना पड़ा। गुस्से में उन्होंने सलाण क्षेत्र के गाँवों में लूटपाट की।

गोरखों की योजना थी कि वे पुनः आक्रमण करें, लेकिन इसी बीच उन्हें यह सूचना मिली कि चीन, नेपाल पर हमला कर सकता है। 1791 में गोरखों ने तिब्बत पर आक्रमण किया था, जिससे चीन नाराज था। इस संभावित चीनी हमले के कारण गोरखों को लंगूरगढ़ का घेरा छोड़कर नेपाल लौटना पड़ा। हालांकि, जाने से पहले उन्होंने प्रद्युम्न शाह से 20,000 रुपये वार्षिक कर देने की शर्त रखी, जिसे मजबूरी में स्वीकार करना पड़ा।

गढ़वाल पर निरंतर गोरखा आक्रमण

गोरखा सेनाएँ 1792 ईस्वी तक गढ़वाल में लूटपाट करती रहीं और छोटे-छोटे हमले जारी रखे। प्रद्युम्न शाह को निरंतर गोरखा आक्रमणों का सामना करना पड़ा। इस समय श्रीनगर में नेपाली रेजीडेंट लगातार नयी माँगे रख रहा था, जिससे गढ़वाल की अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव पड़ा।

द्वितीय गोरखा आक्रमण (1803 ई.)

1803 ईस्वी में एक विनाशकारी भूकंप ने गढ़वाल राज्य को कमजोर कर दिया। इस स्थिति का लाभ उठाकर अमर सिंह थापा, हस्तिदल चौतरिया और बमशाह चौतरिया के नेतृत्व में गोरखों ने पुनः आक्रमण किया। आठ-नौ हजार सैनिकों के साथ उन्होंने चमोली जिले से प्रवेश किया। प्रद्युम्न शाह ने द्वाराहाट और चंबा में गोरखा सेना का सामना करने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे। श्रीनगर की रक्षा करना कठिन हो गया, और अंततः प्रद्युम्न शाह अपने परिवार के साथ देहरादून चले गए।

गोरखा सेना ने उनका पीछा किया और अक्टूबर 1803 ईस्वी में देहरादून पर अधिकार कर लिया। प्रद्युम्न शाह को लंढौरा रियासत (वर्तमान सहारनपुर) में शरण लेनी पड़ी। वहाँ के गुर्जर राजा रामदयाल ने उनकी सहायता की और एक 12,000 सैनिकों की सेना तैयार की।

खुड़बुड़ा का युद्ध (1804 ई.)

14 मई 1804 को देहरादून में प्रसिद्ध खुड़बुड़ा का युद्ध हुआ। प्रद्युम्न शाह ने बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की। उनके छोटे भाई प्रीतम शाह को गोरखों ने बंदी बनाकर नेपाल भेज दिया, जहाँ 1815 में उनकी मृत्यु हो गई। उनके दूसरे भाई पराक्रम शाह किसी तरह बच निकले और कांगड़ा रियासत के संसार चंद की शरण में चले गए।

गढ़वाल राज्य का पतन और सुदर्शन शाह की शरण

प्रद्युम्न शाह के अल्पवयस्क पुत्र सुदर्शन शाह को उनके स्वामिभक्त सैनिकों ने सुरक्षित बचा लिया और हरिद्वार के समीप ज्वालापुर में ब्रिटिश संरक्षण में रखा। 1815 ईस्वी में ब्रिटिश सेना की सहायता से सुदर्शन शाह टिहरी गढ़वाल के शासक बने।

निष्कर्ष

गोरखा आक्रमणों ने गढ़वाल राज्य को बुरी तरह प्रभावित किया। इन आक्रमणों ने न केवल गढ़वाल की स्वायत्तता को समाप्त किया, बल्कि उसकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को भी कमजोर कर दिया। हालांकि, अंततः 1815 में ब्रिटिश हस्तक्षेप से गोरखों को पराजित किया गया और गढ़वाल का एक हिस्सा सुदर्शन शाह को वापस मिला।

गोरखा-गढ़वाल संघर्ष, गढ़वाल के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जो न केवल वीरता, बल्कि आक्रमण, संधियों और सत्ता संघर्षों की कहानी भी बयां करता है।

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