गढ़वाल का वीर शासक: राजा फतेशाह
गढ़वाल के इतिहास में राजा फतेशाह का नाम वीरता, सैन्य अभियानों और सांस्कृतिक संरक्षण के लिए जाना जाता है। पृथ्वीपतिशाह की मृत्यु के बाद वे गढ़राज्य के शासक बने। हालांकि, उनके सिंहासन पर बैठने की तिथि को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार, वह 7 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठे और उनकी माता ने संरक्षिका के रूप में शासन किया। परंतु यह तथ्य विवादित है क्योंकि किसी भी राजा के जीवित रहते अल्पव्यस्क उत्तराधिकारी को गद्दी सौंपने की संभावना कम होती है।

फतेशाह के शासनकाल के प्रमाण
फतेशाह के शासनकाल को प्रमाणित करने वाले कई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। उनके शासनकाल के दो ताम्रपत्र (संवत 1757 और 1767) शूरवीर सिंह के संग्रह में उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त, एक सिक्का भी मिला है, जिसमें दोनों पक्षों पर चित्र एवं भाषा में लेख अंकित हैं, जो गढ़राज्य की स्वतंत्र सत्ता का प्रमाण देते हैं।
फतेशाह का राज्य विस्तार एवं विजय अभियान
फतेशाह अपने विजय अभियानों के लिए प्रसिद्ध थे। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, उनकी विजय पताका तिब्बत तक फैली थी। उनकी तलवार और हथियार कई वर्षों तक 'दाबा' विहार में रखे गए थे।
सिरमौर राज्य पर आक्रमण (1662 ई.): फतेशाह ने सिरमौर पर आक्रमण कर पॉवटा साहिब और जौनसार-भाबर क्षेत्र को गढ़राज्य में मिला लिया। सिरमौर नरेश गढ़राज्य की शक्ति से भयभीत होकर गुरु गोविंद सिंह से सहायता मांगने गए।
गुरु गोविंद सिंह से संबंध: प्रारंभ में फतेशाह और गुरु गोविंद सिंह के संबंध मैत्रीपूर्ण थे, परंतु कालांतर में यह संबंध कटु हो गए। विचित्र नाटक के अनुसार, भैगणी नामक स्थान पर सिक्खों और गढ़राज्य की सेना के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें फतेशाह को पराजय का सामना करना पड़ा।
कुमाऊं और सहारनपुर पर आक्रमण: भक्तदर्शन के अनुसार, फतेशाह ने कुमाऊं पर भी आक्रमण किया था। ‘मैमायर्स ऑफ देहरादून’ में वर्णित है कि उन्होंने सहारनपुर पर आक्रमण कर 'फतेहपुर' नामक नगर बसाया।
कलात्मक और सांस्कृतिक योगदान
फतेशाह न केवल एक योद्धा थे बल्कि कला और संस्कृति के संरक्षक भी थे। उनके दरबार में नौ रत्न विद्यमान थे, जिनमें सुरेशानंद बर्थवाल, खेतराम धस्माना, रूद्रीदत्त किमोठी, हरिदत्त नौटियाल, वासवानंद बहुगुणा, शशिधर डगवाल, सहदेव चंदोला, कीर्तिराम कनठौला और हरिदत्त थपलियाल प्रमुख थे।
जयशंकर द्वारा रचित 'फतेहशाह कर्ण ग्रंथ' देवप्रयाग के पंडित चक्रधर शास्त्री के पुस्तकालय में आज भी संरक्षित है।
कविराज सुखदेव के ग्रंथ 'वृत विचार' में भी फतेशाह का यशोगान किया गया है।
हिंदी कवि मतिराम की रचना 'वृत कौमुदी' में उनकी तुलना छत्रपति शिवाजी से की गई है।
धार्मिक सहिष्णुता और नाथपंथ से संबंध
राजा फतेशाह अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति के थे और नाथपंथ में उनकी गहरी श्रद्धा थी। 1668 ई. के ताम्रपत्र में नाथपंथी संत बालकनाथ का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने हिमालयी क्षेत्र में प्रसिद्धि पाई।
फतेशाह धार्मिक सहिष्णुता के पक्षधर थे। उन्होंने सिक्ख गुरु रामराय को अपने राज्य में आमंत्रित किया और देहरादून में गुरुद्वारे के निर्माण का स्वागत किया। उन्होंने इसकी आय के लिए खुडबुड़ा, बाजपुर और चमासारी ग्राम दान में दिए। उनके पौत्र प्रदीपशाह ने भी गुरुद्वारे के लिए कई ग्राम दान किए।
मृत्यु और उत्तराधिकारी
फतेशाह की मृत्यु 1715 ई. में हुई। विद्वानों में उनके उत्तराधिकारी को लेकर मतभेद हैं। भक्तदर्शन एवं वॉल्टन के अनुसार, उनके पश्चात दिलीपशाह गद्दी पर बैठे, जबकि मौलाराम के अनुसार, उपेंद्रशाह उनके उत्तराधिकारी थे। उपेंद्रशाह का एक चित्र और एक ताम्रपत्र शूरवीर सिंह के संग्रहालय में उपलब्ध है।
निष्कर्ष
फतेशाह पंवार वंश के महान शासकों में से एक थे, जिन्होंने न केवल गढ़राज्य की सीमाओं का विस्तार किया बल्कि कला, संस्कृति और धर्म को भी बढ़ावा दिया। उनकी वीरता, कूटनीति और कलात्मक दृष्टि ने उन्हें गढ़वाल के सबसे प्रतिष्ठित राजाओं में शामिल किया।
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