उत्तराखण्ड में औपनिवेशिक शासन
ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक संघ था, जिसका गठन 1600 के चार्टर के तहत इंग्लैंड के व्यापारियों द्वारा किया गया था। इस कंपनी के कूटनीतिज्ञ कर्मचारियों ने ब्रिटिश पार्लियामेंट की सहायता से धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत पर अपना राजनैतिक अधिकार स्थापित किया। उत्तराखण्ड में अंग्रेजों का आगमन सर्वप्रथम काशीपुर में एक भांग की फैक्टरी स्थापित करने के रूप में हुआ। यहां अक्सर कंपनी के कर्मचारी आते थे और कुमाऊँ की नैसर्गिक सुंदरता से प्रभावित होते थे।

ब्रिटिश शासन की स्थापना
1802 ई. में लार्ड वेलिज़ली ने गॉट महोदय को कुमाऊँ की जलवायु, जंगल एवं परिस्थितियों का संकलन करने के लिए भेजा। 1811-12 ई. में मूरक्राफ्ट और कैप्टन हेरसी तिब्बत गए। मॉरकिस ऑफ हेस्टिंग्स लार्ड मायरा भी काशीपुर होते हुए कुमाऊँ भ्रमण पर आए। उन्होंने इस क्षेत्र को ब्रिटिश नियंत्रण में लाने का स्वप्न देखा। उस समय कुमाऊँ पर गोरखों का शासन था, जिन्होंने चंद राजाओं को अपदस्थ कर दिया था। गोरखों की अंग्रेजी राज्य क्षेत्र में निरंतर घुसपैठ ने अंग्रेजों को इस क्षेत्र पर कब्ज़ा करने का अवसर प्रदान किया।
सिंगौली की संधि और ब्रिटिश शासन की शुरुआत
नेपाल के साथ हुए संघर्ष के परिणामस्वरूप, मार्च 1816 को सिंगौली की संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके पश्चात् अंग्रेजों को इस क्षेत्र पर राजनैतिक अधिकार मिल गया। 1815 ई. से 1949 तक यह क्षेत्र सीधे ब्रिटिश नियंत्रण में रहा। अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को प्रशासनिक रूप से दो भागों में विभाजित किया:
ब्रिटिश कुमाऊँ: अलकनंदा नदी से काली नदी के मध्य का भाग, जिसे कुमाऊँ कमिश्नरी के रूप में स्थापित किया गया और सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन रखा गया।
टिहरी रियासत: अलकनंदा नदी के पश्चिमी भाग में पूर्व गढ़वाल नरेश के वंशज सुदर्शनशाह को पुनः स्थापित किया गया और इसे एक संरक्षित रियासत घोषित किया गया।
प्रशासनिक विकास
ब्रिटिश शासनकाल में उत्तराखण्ड के प्रशासन में महत्वपूर्ण बदलाव हुए। इसे गैर-विनियमित क्षेत्र के रूप में प्रशासित किया गया, जहाँ ब्रिटिश संसद के अनुमोदन से प्रशासनिक निर्णय लिए जाते थे। इस काल में उत्तराखण्ड के प्रशासनिक विकास को तीन प्रमुख चरणों में विभाजित किया जा सकता है:
गार्डनर एवं ट्रेल के सुधार
ई. गार्डनर को 1815 में कुमाऊँ का पहला कमिश्नर नियुक्त किया गया। उनके सहायक के रूप में ट्रेल महोदय को नियुक्त किया गया। गार्डनर ने तहसीलों, थानों, भूराजस्व, और भूमि सुधारों की आधारशिला रखी। गार्डनर के बाद ट्रेल को कुमाऊँ गढ़वाल का द्वितीय आयुक्त नियुक्त किया गया। ट्रेल ने लगभग 19 वर्षों तक सेवा दी और प्रशासनिक ढांचे को मजबूत किया।
उन्होंने प्रशासन, राजस्व प्रणाली, पर्वतीय श्रमिकों की समस्याओं, वन व्यवस्था, और यातायात सुविधाओं में सुधार किया। उन्होंने कुमाऊँ को 26 परगनों में विभाजित किया और 'पटवारी' पद की स्थापना की। पटवारी का कार्य भूमि माप, लगान वसूली, अपराध नियंत्रण और प्रशासनिक सूचना संकलन करना था। यह व्यवस्था वर्तमान उत्तराखण्ड में अब भी प्रभावी है।
लुशिंगटन व बैटन के सुधार
गार्डनर और ट्रेल के बाद लुशिंगटन तथा बैटन ने प्रशासनिक सुधार किए। इन्होंने न्यायिक प्रणाली को व्यवस्थित किया, वन संरक्षण नीति बनाई और शिक्षा के क्षेत्र में सुधार किए। इनके कार्यों से क्षेत्र की प्रशासनिक व्यवस्था और मजबूत हुई।
रामजे के सुधार
रामजे के कार्यकाल में प्रशासनिक संरचना को और अधिक मजबूत किया गया। उन्होंने कृषि सुधार, व्यापारिक नीतियाँ और कानून व्यवस्था को दुरुस्त किया। उनके सुधारों से उत्तराखण्ड में राजस्व प्रशासन की दक्षता बढ़ी।
निष्कर्ष
ब्रिटिश शासनकाल के दौरान उत्तराखण्ड में प्रशासनिक व्यवस्था में व्यापक बदलाव हुए। इस दौरान पटवारी व्यवस्था, न्यायिक सुधार, और बुनियादी ढांचे का विकास हुआ, जिससे उत्तराखण्ड की वर्तमान प्रशासनिक संरचना की नींव पड़ी। ब्रिटिश शासनकाल की ये व्यवस्थाएँ उत्तराखण्ड के प्रशासनिक ढांचे को आज भी प्रभावित करती हैं।
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